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पचास साल में ही क्या से क्या हो गए हमारे गांव?

babulal dahiya

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लेखक: पद्मश्री बाबूलाल दाहिया जी | एक जमाना था जब गांव अपने आप में एक आत्मनिर्भर इकाई हुआ करते थे। वहां किसान और उनसे जुड़े सहायक उद्धमी रहतेे जो अपनी बनाई बस्तुए किसानों को देते एवं किसान से बदले में अनाज लेते।उसी तरह खेती से जुड़ा श्रमिकों का भी एक बहुत बड़ा समुदाय होता जो खेतिहर मजदूर कहलाता एवं उसी से अपनी अजीविका चलाता।

कहने का आशय यह कि गाँव में जितनी आवादी सब के हाथ को काम और भोजन की ब्यवस्था भी। यहां तक कि गाय बैलों तक से खेती के हिस्सेदारी में हमारा एक मूक समझौता जैसा कि चुनी, चोकर ,भूसा, चारा उनका और खेत में उत्पादित अनाज हमारा। लेकिन बूढ़े हो जाने पर वे जीवन पर्यंत हमसे सेवा लेने के उसी प्रकार अधिकारी जिस प्रकार हमारे माता पिता।

यह सही है कि अकाल दुर्भिक्ष के समय उस वर्षा आधारित खेती में भूखों मरने की नोबत भी आती। किन्तु उसका उपाय भी गाँव ने ब्यापक पैमाने पर कोदो की खेती कर के ढूढ़ लिया था। वह ऐसा अनाज था जिसे 80 वर्ष तक बड़े -बड़े बन्डे बखारियों में सुरक्षित रखा जा सकता था। और जरूरत पड़ने पर बड़े किसान, छोटे किसानों को उधार बाढ़ी आदि में भी देते व फसल आने पर सवाई ले लेते ।

कुछ सम्पन्न लोग तो पालायन रोकने के लिए तालाब आदि बनबा देते जिससे लोगों के भूखों मरने की नोबत ही न आये?क्यो कि हमारे रीवा सम्भाग में जो लगभग 6 हजार तलाब हैं उन्हें खनवाने का श्रेय उस लोक अन्न कोदो को ही है जिसे आज मोटा अनाज कहा जाता है। इसी तरह उन दिनों भोजन की आपूर्ति में बहुत बड़ा योगदान महुए का होता जिसके तरह – तरह के व्यंजन बन जाते थे और उसे खाकर लोग महीनों गुजार लेते।

परन्तु हरित क्रांति आने के पश्चात बिगत 50 साल में न सिर्फ हमारा खान पान और खेती बदली है बल्कि, रहन सहन भी बदल गया है। खेती की बढ़ी लागत बढ़ा उत्पादन और घटे भाव ने हजारों साल की गांव की उस अर्थ ब्यवस्था को ही तहस नहस कर दिया है। जो खेती पहले समूचे गाँव के पेट की खेती होती थी वह अब न सिर्फ सेठ की खेती के रूप में बदल चुकी है बल्कि गाय बैलों से लेकर गांव के उद्द्मियों, श्रमिकों तथा कृषक पुत्रों सभी को बेरोजगार बना गाँव छोड़ने को मजबूर कर चुकी है।

जिस खेती से जुड़े किसान,कृषि शिल्पी एवं श्रमिक भोजन के साथ-साथ अपने बेटे बेटियों के विवाह भी कर लेते और अन्य समस्त खर्चे भी उसी से चलते उस खेती से अब कोई कार्य सम्भव नही है। क्योकि नई खेती में खेत तो हरे भरे दिखते है लेकिन पैदावार का 80% भाग खाद ,बीज,जुताई, कीट नाशक, नींदा नाशक, हारबेस्टर आदि के रास्ते तरह- तरह के सेठों के पास शहर पहुँच जाता है। फल स्वरूप इस अलाभकारी खेती को सेठों के रहमों करम पर छोड़ किसान,मजदूर, उद्धमी सभी तबके के युवा गुजरात, गोबा महाराष्ट्र आदि की तरफ भागने लगे हैं।

हमने अनुभव किया है कि जो लोग बाहर नही गए वह भी हमारे गांव के बेरोजगार प्रति दिन साइकिलिंग करके सतना पहुँच लालता चौक में अपना एक दिन का श्रम बेंचने के लिए खड़े होते हैं। फिर उन्हें काम में लेने हेतु कोई सेठ आया तो उसकी नजर उसी तरह उसके मोटे ताजे शरीर पर टिकी रहती है जैसे कसाई बकरे का मांस का अंदाज उसके पुट्ठे में उंगली गड़ाकर करता है तब दाम लगाता है।

फल स्वरूप हट्टे कट्टे युवाओं को तो काम मिल जाता है पर दुबले पतले फिर उदास मन घर लौट आते हैं। जब कि हमारी कृषि संस्कृति में युवा, बृद्ध, महिला, पुरुष चाहे जो भी खेत में कटाई निराई करने आएं सभी को बराबर मजदूरी मिलती पर छटनी करके किसी भी श्रमिक को खेत से वापस नही लौटाया जाता था।

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