आख़िर क्या चाहते हैं हम!

न्याज़िया
मंथन। क्या हम सब जानते हैं कि आखिर हमें क्या चाहिए ? हमारा सुख कहां छुपा है ? क्या ,उसकी तलाश में हैं हम ?या फिर दुखी मन से बस ज़िंदगी जिए जा रहे हैं ?कुछ ज़रूरतें हैं हमारी, जिन्हें पूरा करने के लिए काम करना ज़रूरी है तो कर रहे हैं और बस उसी काम या हमारे प्रोफेशन के इर्द गिर्द हमारी ज़िंदगी घूम रही है न हमें अपने लिए वक्त है न अपने ,अपनों के लिए ऐसे में हम अपने जिस सुख या सुकून के बारे में जानते भी हैं वो भी हमें नहीं मिल पाता क्योंकि तब तक या तो बहुत देर हो जाती है या फिर हमारा स्वास्थ्य ही अब इजाज़त नहीं देता दिल के अरमान पूरे करने की , तो क्या ज़िंदगी जीने का ये तरीका सही है ? और अफसोस तो ये है कि इस फलसफे में बंधने वाले बड़ी उम्र के लोग ही नहीं हैं बल्कि हमारी नई और यंग जेनरेशन भी इसी ढर्रे पर चल रही है ,जो खुद अपने बारे में ज़्यादा नहीं जानती उसकी कामियाबी का दारो मदार, दुनिया को जानने उसके नफे नुकसान को समझने पर टिका है।

कौन है जिम्मेदार

इस चलन का ज़िम्मेदार आख़िर कौन है जो हम पर अभी बीते कुछ बरसों से ज़्यादा हावी हो गया है , आपको नहीं लगता कि विषय पर चिंतन की आवश्यकता है, आत्म मंथन भी ज़रूरी है ,क्योंकि ज़रा सोचिए कि हमारे बड़े बुज़ुर्ग भी तो मेहनत करते थे कमाते खाते थे फिर भी वो खुश रहते थे पूरा परिवार एक साथ कुछ समय तो हंसी खुशी के साथ बिताता था, ताज़ा खाना, हंसना बोलना था, दुख बंट के कम हो जाते थे तो सुख बंट के बढ़ जाते थे ,इसलिए शायद बीमारियां भी कम थीं, फिर एक सवाल कि क्यों? हमने अपनी जीवन शैली को बदला!

क्या अमीरी बन रही वजह

क्या अब हममें से ज़्यादा लोग पहले के मुक़ाबले अमीर हैं ? बहुत सेविंग हैं उनके पास ? आखिर तब अब से अलग क्या था तब शायद किसी बात की होड़ नहीं थी , सबका अपना ढंग था अपने फैसले थे ,क्या काम करना है ,कैसे अपना काम को बेहतर बनाना है कि लोग आपकी क़द्र करें ,मतलब सच्ची लगन थी ,क्योंकि कोई दबाव नहीं था तब कहीं कोई निगरानी नहीं रखता था पर इज़्ज़त कमाना ज़िंदगी का मक़सद था तो इज़्ज़त देना ऐसा बड़प्पन जो हमारी आदत में शामिल था,शायद इस धारणा के चलते कि जो देंगे वही मिलेगा।

निभाए जाते थें रिश्ते

शादी ब्याह के फैसले तो बच्चों के थे ही नहीं वो तो माता पिता ने जहां तय करदी बच्चे सिर झुका के वहीं शादी कर लेते थे और निभा भी लेते थे रिश्ते ,यही कहलाते थे अच्छे संस्कार अच्छी परवरिश और अब जब हम खुद लाइफ पार्टनर चूज़ करते हैं तब भी अक्सर रिश्ते बोझ बन जाते हैं सब दिखावटी हो जाता है लेकिन तब दो लोगों के साथ रहने की एक ही शर्त थी हर हाल में खुश रहना है किसी को अकेला नहीं छोड़ना है, और चूंकि एक दूसरे में कॉम्पटीशन नहीं था इसलिए दिल साफ थे एक दूसरे के लिए कोई मैल नहीं था ,हमदर्दी थी, आपको नहीं लगता वो दौर फिर से आ जाए तो शायद हम निश्चल प्रेम छलका सकेंगे एक दूसरे के ऊपर ,सलीक़ा आ जाएगा जीने का, दुनिया की भीड़ में कोई अकेला नहीं रहेगा!
सोचिएगा ज़रूर फिर मिलेंगे आत्म मंथन की अगली कड़ी में।

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