~डॉ रामानुज पाठक सतना (म.प्र.)
आज का मानव समाज ऊर्जा पर अत्यधिक निर्भर है, और यह ऊर्जा मुख्यतः जीवाश्म ईंधनों,जैसे कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस से प्राप्त होती है। इन स्रोतों ने औद्योगिक क्रांति से लेकर डिजिटल युग तक मानव विकास को गति प्रदान की है। पिछले दो शताब्दियों में इन ऊर्जा स्रोतों ने विज्ञान, प्रौद्योगिकी, और समाज के विकास की दिशा में अभूतपूर्व परिवर्तन लाए हैं। किंतु वर्तमान युग में यह प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक हो उठा है — “कोयले के बाद क्या?” यह केवल एक वैज्ञानिक या तकनीकी जिज्ञासा नहीं, बल्कि एक बहुआयामी चुनौती है जिसमें पर्यावरणीय संतुलन, सामाजिक न्याय, आर्थिक पुनर्रचना और वैश्विक सहयोग जैसे तत्व अंतर्निहित हैं। पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की सीमा और उनके पर्यावरणीय प्रभाव अब मानव जाति को यह सोचने पर विवश कर रहे हैं कि अगला कदम क्या हो? क्या हम वैकल्पिक ऊर्जा की ओर गति से बढ़ रहे हैं? क्या सभी वर्गों और देशों के लिए यह संक्रमण न्यायसंगत होगा? यह आलेख इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करेगा। हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि “कोयले के बाद क्या?” और हम उसके लिए कितने तैयार हैं।
जीवाश्म ईंधनों की ऐतिहासिक भूमिका पर नजर डालें तो हम देखते हैं कि ,कोयला, कच्चा तेल और प्राकृतिक गैस ने बीते दो शताब्दियों में बिजली उत्पादन, परिवहन और उद्योगों के संचालन की आधारशिला रखी है। विशेषकर उन्नीसवीं सदी में कोयला ऊर्जा क्रांति का प्रमुख स्रोत बना, जिसने भारी उद्योगों और मशीनरी के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यही वह समय था जब दुनिया भर में रेलगाड़ियों और भाप इंजन के उपयोग की शुरुआत हुई, जो वैश्विक व्यापार को तेज करने और औद्योगिक समाज को आकार देने में सहायक बने।
तेल आधारित ईंधनों के बिना विमान, ट्रक, जलपोत आदि का संचालन संभव नहीं होता। वैश्वीकरण की प्रक्रिया, जिसमें माल और मनुष्य का वैश्विक स्तर पर आवागमन होता है, जीवाश्म ईंधनों की ही देन है। समुद्रों और आकाश में वाणिज्यिक मार्गों के विकास ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक नए युग में प्रवेश कराया, जो केवल जीवाश्म ईंधनों की उपलब्धता और उत्पादन पर निर्भर था।
आधुनिक कृषि प्रणाली में ट्रैक्टर, पंप, उर्वरक निर्माण आदि के लिए जीवाश्म ईंधनों का व्यापक उपयोग होता है। इसके बिना खाद्य उत्पादन की वर्तमान दर बनाए रखना संभव नहीं। इसके अलावा, खाद्य प्रसंस्करण और परिवहन के लिए भी जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता है, जिससे कृषि उत्पादों को बाजारों में पहुंचाना और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना संभव हो पाया है।
जीवाश्म ईंधनों की सीमाएँ और संकट भी अनेक हैं।
संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी समिति (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज – आई पी सी सी) की रपट के अनुसार, यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक नहीं लगी, तो पृथ्वी का औसत तापमान इस सदी के अंत तक 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ सकता है। यह समुद्र-स्तर में वृद्धि, सूखा, बाढ़, चक्रवात तथा खाद्य संकट उत्पन्न कर सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकती है, जिसका सामना गरीब और विकासशील देशों को ज्यादा करना होगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ( डब्लू एच ओ) के अनुसार, वायु प्रदूषण के कारण प्रतिवर्ष लगभग 70 लाख से अधिक लोगों की असामयिक मृत्यु होती है। कोयले और डीज़ल जैसे ईंधनों के दहन से उत्पन्न सूक्ष्म कण (पार्टीकुलेट मैटर- पी एम) फेफड़ों और हृदय को गंभीर क्षति पहुँचाते हैं। इसके परिणामस्वरूप अस्थमा, कैंसर, और अन्य गंभीर श्वसन और हृदय रोगों में वृद्धि हो रही है, जो मानव जीवन के लिए अभूतपूर्व खतरे की ओर इशारा करते हैं।
तेल और गैस संसाधनों के नियंत्रण हेतु कई बार युद्ध और अंतरराष्ट्रीय तनाव उत्पन्न होते हैं। ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता आर्थिक अस्थिरता का कारण भी बनती है, विशेषकर ऊर्जा आयातक देशों के लिए। हाल के वर्षों में, ऊर्जा की बढ़ती कीमतें और आपूर्ति में असंतुलन ने वैश्विक आर्थिक संकट को जन्म दिया है, जिससे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था और भी कमजोर हो रही है।
कोयला के विकल्पों की खोज अनादिकाल से हैं।
सूर्य से प्राप्त ऊर्जा अक्षय (नवीकरणीय) एवं प्रदूषण रहित होती है। सौर पैनलों की लागत में निरंतर गिरावट और उनकी क्षमता में वृद्धि के कारण अब इसे गाँवों से लेकर नगरों तक उपयोग में लाया जा रहा है। सौर ऊर्जा न केवल पर्यावरण को बचाती है, बल्कि यह बिजली की लागत को भी कम करती है। सौर ऊर्जा का उपयोग कृषि, पानी की आपूर्ति, और घरों में भी किया जा सकता है।
भूमि और समुद्री दोनों क्षेत्रों में पवन टर्बाइनों की स्थापना की जा रही है। विकसित देशों के साथ अब भारत भी पवन ऊर्जा के दोहन में अग्रणी बनता जा रहा है। पवन ऊर्जा की संभावना न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में, बल्कि तटीय क्षेत्रों में भी व्यापक रूप से पाई जाती है। पवन टर्बाइन तकनीक की प्रगति के साथ, यह ऊर्जा स्रोत अब पूरी दुनिया में तेजी से विस्तार कर रहा है।
बाँधों और जल प्रवाह से उत्पन्न ऊर्जा पारंपरिक होते हुए भी दीर्घकालिक समाधान हो सकती है, यदि उसका उपयोग पारिस्थितिक संतुलन के साथ किया जाए। जलविद्युत ऊर्जा का महत्व तब और बढ़ जाता है जब यह मौसम और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित नहीं होती है, और यह स्थिर ऊर्जा आपूर्ति प्रदान करती है।
नवीकरणीय स्रोतों की अनियमित आपूर्ति के कारण ऊर्जा को संग्रहित करने की तकनीक — जैसे लिथियम-आयन बैटरी आवश्यक हो गई है। टेस्ला सीएटीएल जैसी कंपनियाँ इस क्षेत्र में अग्रणी हैं। ऊर्जा भंडारण का विकास हमें यह सुनिश्चित करने की क्षमता देता है कि जब सूर्य या पवन की शक्ति उपलब्ध नहीं हो, तो भी ऊर्जा की आपूर्ति जारी रहे।
हरित हाइड्रोजन वह ईंधन है जो जल को विद्युत अपघटन (इलैक्ट्रोलिसिस) द्वारा तोड़कर प्राप्त किया जाता है, और यदि इसमें प्रयुक्त बिजली नवीकरणीय स्रोतों से ली गई हो, तो यह पूरी तरह स्वच्छ ऊर्जा बन जाती है। हरित हाइड्रोजन को परिवहन और भारी उद्योगों में उपयोग करने के लिए एक संभावित भविष्य के ईंधन के रूप में देखा जा रहा है।आज हाइड्रोजन ईंधन से रेलगाड़ियों तक का परिचालन सफलता पूर्वक संपन्न किया जा चुका है।
विश्व के अनेक विकासशील राष्ट्र अब भी ऊर्जा की बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित हैं। यदि वैश्विक ऊर्जा संक्रमण में इन्हें तकनीकी, वित्तीय और संस्थागत सहायता न दी गई, तो यह जलवायु अन्याय (क्लाइमेट इंजस्टिस) का रूप ले सकता है। जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा संकट के समाधान के लिए विकासशील देशों को वैश्विक सहायता की आवश्यकता है, ताकि वे भी इस परिवर्तन के हिस्सेदार बन सकें।
कोयला खनन, बिजली संयंत्र और उससे जुड़े लाखों श्रमिकों की आजीविका को सुरक्षित रखने के लिए वैकल्पिक प्रशिक्षण, नई नौकरियाँ और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था आवश्यक है। इससे न केवल श्रमिकों की आजीविका सुरक्षित रहेगी, बल्कि यह समग्र रूप से न्यायपूर्ण और सामूहिक प्रयास के रूप में परिवर्तित होगा।
ग्राम स्तर पर सौर माइक्रोग्रिड, बायोगैस संयंत्र, और समुदाय-आधारित ऊर्जा सहकारी समितियाँ आत्मनिर्भर ऊर्जा आपूर्ति का आधार बन सकती हैं। इससे विकेंद्रीकरण, स्वावलंबन और पर्यावरणीय जागरूकता को बल मिलेगा।
ऊर्जा संकट का समाधान केवल तकनीकी विकास से नहीं होगा, जब तक उपभोग की असंतुलित प्रवृत्ति पर अंकुश न लगाया जाए। ‘कम उपभोग, अधिक स्थिरता’ (लेस कंजंप्शन, मोर सस्टेनेबिलिटी) का सिद्धांत अपनाना होगा। शिक्षा, मीडिया और सामाजिक संवाद के माध्यम से ऊर्जा के विवेकपूर्ण उपयोग को संस्कृति का हिस्सा बनाना होगा। जीवनशैली में संयम, संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण और सतत विकास की भावना ही भावी पीढ़ियों को ऊर्जा संपन्न एवं स्वस्थ भविष्य दे सकती है।
भविष्य की ऊर्जा संरचना पर ध्यान केंद्रित करना ही होगा।अक्षय ऊर्जा का मिश्रण एक बेहतर विकल्प है।
सौर, पवन, जल, भू-तापीय और जैव ऊर्जा को संतुलित रूप में अपनाना होगा। इन सभी ऊर्जा स्रोतों का संयोजन न केवल ऊर्जा आपूर्ति को स्थिर बनाए रखेगा, बल्कि यह पर्यावरण के लिए भी अधिक सुरक्षित होगा।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता ,इंटरनेट ऑफ थिंग्स , और स्मार्ट ग्रिड जैसी तकनीकों का उपयोग ऊर्जा प्रबंधन में क्रांति ला सकता है। इन तकनीकों के माध्यम से ऊर्जा के वितरण और उपयोग को अधिक कुशल और वैकल्पिक रूप से संगठित किया जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य में ऊर्जा को विशेष स्थान दिया गया है। विशेष रूप से लक्ष्य संख्या 7 — सभी के लिए सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा — का पालन अनिवार्य है। यह सुनिश्चित करना कि सभी लोगों को समान और पर्याप्त ऊर्जा आपूर्ति मिले, ऊर्जा न्याय के प्रमुख स्तंभों में से एक है।
“कोयले के बाद क्या?” — यह प्रश्न केवल एक संसाधन के विकल्प का नहीं, बल्कि हमारी जीवनशैली, उत्पादन प्रणाली, सामाजिक न्याय और वैश्विक सहयोग की नई दिशा का संकेतक है। आज ऊर्जा संकट और जलवायु परिवर्तन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब और देर करना आत्मघाती होगा। विज्ञान हमें विकल्प दे रहा है, तकनीकें उपलब्ध हैं, परंतु उनकी सफलता समाज की मानसिकता, नीति निर्माण की दूरदर्शिता और वैश्विक सहयोग की भावना पर निर्भर करती है। हमें न केवल अक्षय ऊर्जा को अपनाना है, बल्कि ऐसी जीवनशैली भी विकसित करनी है जो प्रकृति के साथ सहअस्तित्व को महत्व देती हो। यह संक्रमण केवल सरकारों या कंपनियों की जिम्मेदारी नहीं है; हर व्यक्ति, हर संस्था और हर समुदाय को इसमें भागीदारी निभानी होगी। यदि हम ऊर्जा को केवल संसाधन नहीं, बल्कि मानवाधिकार और न्याय का विषय मानें, तो एक ऐसा भविष्य संभव है जहाँ ऊर्जा सुलभ, सतत और समावेशी हो। कोयले के बाद की दुनिया एक अवसर है — अधिक हरित, अधिक न्यायसंगत और अधिक मानवोचित भविष्य की दिशा में अग्रसर होने का।
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