पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में ,आज हम आपके लिए लेकर आए हैं, कृषि आश्रित समाज के बाँस शिल्पी द्वारा निर्मित बर्तन. बिगत दिनों हम बाँस शिल्पियों द्वारा निर्मित कई बर्तनों की जानकारी दे चुके हैं। आज उसी श्रंखला में कुछ अन्य बर्तनों की जानकारी भी प्रस्तुत कर रहे हैं।
कुड़वारा की टुकनी
यू तो यह टुकनी कुड़वारा के रूप में हलषष्ठी के दिन पूजा के हेतु बनती है। पर बाद में कजलियां आदि भी इसी में बोई जातीं हैं एवं कुठली डहरी से अनाज निकालने के काम भी आती है। धार्मिक संस्कार से जुड़े होने के कारण आज भी यह प्रचलन में है।
EPISODE 17: कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे मिट्टी की वस्तुएं या बर्तन FT. पद्मश्री बाबूलाल दाहिया
झलिया
यह मुख्यतः सिर में सब्जी रखकर बाजार लेजाने का एक टोकना था जो अन्य टोकनों से थोड़ा भिन्न तरह का बनता था। एक झलिया का उपयोग मिट्टी शिल्पी घोड़े की लीद और कंडे बीनने एवं बाद में उसी में घड़े आदि बर्तन रख कर बेचने का काम भी करते थे। पर वह सब्जी वाली झलिया से बहुत बड़े आकार की होती है। यह अब लगभग चलन से बाहर होती जा रही है।
झाला
यह बांस का बड़ा साइज का एक टोकना होता था जिसमें प्राचीन समय में यज्ञ आदि के भंडारे में परोसने के लिए पूड़ी रखी जाती थी। इस बड़े टोकने में रखने से पूड़ियाँ देर तक गर्म रही आती थीं पर अब चलन से बाहर है।
गोबर उठाने की टोकनी
अमूमन खरीफ की फसलों में ऊपर भूसी होती है तो उसके ऊपर गोबर का उस तरह सीधे असर नही पड़ता। किन्तु रवी के अनाज गेहूं चने में उसका सीधे असर होता है अस्तु बैल चलाने वाला एक हाथ में लाठी और दूसरे में एक छोटी सी टोकनी भी लिए रहता था ताकि बैल के गोबर करते समय वह टोकनी में ही लेकर उस गोबर को बाहर फेंक सके। यह टोकनी कुड़वारा की टोकनी से कुछ बड़ी एवं छन्नी टोकनी से छोटी होती थी।
बिजना (बेनमा)
प्राचीन समय में जब बिजली और बिजली के पंखे नही थे तो गर्मी में ठंडी हवा लेने के लिए बांस की पतली चपटी खपच्चियों से बुने पंखे ही उपयोगी हुआ करते थे। आज भी जब बिजली के चलेजाने से बिजली के पंखे बन्द हो जाते हैं तो बिजना ही उस संकट के समय का साथी होता है। आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में।