Lyricist Asad Ali Khan: अलवर के संगीतकार घराने में हुई थी, पैदाइश उनकी रुद्र वीणा वादकों की सातवीं पीढ़ी से है, पहचान उनकी पद्म भूषण से हुए अलंकृत, ऐसी थी वीणा की झंकार उनकी, जी हां आप हमारा इशारा समझ गए होंगे हम याद कर रहे हैं, असद अली खान को जो, रुद्र वीणा बजाने वाले कुछ सक्रिय संगीतकारों में से एक थे और ध्रुपद की चार शैलियों में से एक, खंडार शैली के अंतिम गुरु थे क्योंकि ये वाद्य बजाना भी मुश्किल था और शैली भी।
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आपका जन्म 1 दिसंबर 1937 को राजस्थान में हुआ था
आपके पूर्वज 18वीं शताब्दी में रामपुर, उत्तर प्रदेश और जयपुर, राजस्थान के दरबारों में शाही संगीतकार थे, दादा मुशर्रफ खान अलवर में दरबारी संगीतकार थे,उन्होंने 1886 में लंदन में अपनी कला का प्रदर्शन किया था। और परदादा रजब अली खान जयपुर में दरबारी संगीतकारों के मुखिया थे अब आपके वालिद सादिक अली खान की बात करते हैं जिन्होंने अलवर दरबार और रामपुर के नवाब के लिए 35 वर्षों तक बतौर संगीतकार काम किया और अपने बेटे असद साहब को संगीतमय वातावरण के साथ संगीत की तालीम दी जिससे न केवल उन्होंने हमारे देश में रुद्र वीणा के चलन को बढ़ावा देने की कोशिश की बल्कि ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, अफ़गानिस्तान और इटली समेत कई अन्य यूरोपीय देशों में भी अपनी कला के प्रदर्शन से इस वीणा को लोकप्रिय बनाने के प्रयास किए इसके अलावा उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में भी संगीत पाठ्यक्रम संचालित किए आपने ऑल इंडिया रेडियो में भी काम किया, 17 वर्षों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में संगीत और ललित कला संकाय में सितार पढ़ाया और सेवानिवृत्ति के बाद भी आराम नहीं किया, इस कला के विस्तार के लिए वो निरंतर प्रयास करते रहे और जो छात्र उनके पास आते उन्हें सिखाते रहे उनके शागिर्दों की फ़ेहरिस्त में बेटे ज़की हैदर के साथ ज्योति हेगड़े और गायिका मधुमिता रे भी शामिल हैं पर उन्हें एक अफसोस था कि रुद्र वीणा सीखने के लिए विदेशी छात्रों की तुलना में भारतीयों में इच्छा की कमी है ,उनका मानना था कि रुद्र वीणा भारतीय परंपरा में निहित है क्योंकि इसके जनक भगवान शिव हैं ।
पद्म भूषण से सम्मानित
आपको , 1977 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 2008 में नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया गया । अपनी प्रयासों की इस यात्रा को पूर्ण करके असद अली खान ने अपना नाम सदा के लिए रुद्र वीणा से जोड़ लिया है, मानो मजरूह सुल्तानपुरी का शेर दोहरा रहे हों, मैं अकेला ही चला था जानिब ए मंज़िल मगर लोग साथ आते गए कारवां बनता गया ,इस तरह अपनी मंज़िल ए मक़सूद पर पहुंच कर 14 जून 2011 को वो इस फानी दुनियां को अलविदा कह गए पर अपने पीछे छोड़ गए हैं रुद्र वीणा के प्रशंसक और शिष्य जो इसके विस्तार में जुटे हुए हैं,उनके ही पदचिन्हों पर चल कर ।
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