उस्ताद अल्ला रक्खा: काश्मीर की वादियों से निकलकर कैलोफोर्निया तक गूँजी जिनके तबले की आवाज

न्याज़िया बेगम| वाद्य यंत्रों में तबले का कोई मुकाबला नहीं, वो अकेला ही काफी है अपनी थाप से हमे मंत्रमुग्ध कर देने के लिए, तो वहीं बतौर संगत वाद्य उसके बिना कोई भी संगीत प्रस्तुति अधूरी भी है, वो है तो साज़ों में खनक, सुरों में झंकार है और इसे पूरे विश्व में एक अलग पहचान दिलाने के लिए चुना उस्ताद अल्ला रक्खा जी ने।
सितार और तबले की जुगलबंदी की बात करें तो सबसे पहले हमें उस्ताद अल्ला रक्खा और पंडित रविशंकर का नाम याद आता है और तबले की जुगलबंदी में दो उस्तादों का ज़िक्र हो तो अल्ला रक्खा जी ने अपने बेटे उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के साथ जो जोड़ी बनाई उसका कोई सानी नहीं है, उन्होंने आदित्य कल्याणपुर के साथ भी अपने मंच पर कमाल दिखाया।


आप ऐसे माहिर फनकार थे जिन्होंने पश्चिमी संगीत प्रेमियों को भी भारतीय संगीत के अहम वाद्य तबले की थाप से जोड़ा।
फगवाल गांव यानी आज के ज़िला सांबा में जम्मू और कश्मीर की वादियों से ताल्लुक रखने वाले उस्ताद अल्ला रक्खा जी की मातृभाषा डोगरी थी और आसपास ज़्यादातर हिंदू डोगरा परिवार थे, जिनके बीच वो पले बढ़े, संगीत को सुना या कहना चाहिए कि संगीत को पूजा, उनकी दीवानगी इस क़दर थी कि प्रकृति में विद्यमान हर ध्वनि में वो संगीत ढूंढ लेते थे, पिताजी सैनिक थे और उन्हें ड्रामा देखने का शौक था, जिससे अल्ला रक्खा भी उनके साथ हो लेते थे, उन्हें तो हर ध्वनि का सूत्रधार तबला ही लगता, जब वो 12 साल के हुए तो ये दीवानगी जुनून बन गई और वो भागकर गुरदासपुर शहर में रहने वाले अपने चाचा के पास चले गए।
मुस्लिम परिवार में पैदा हुए अल्ला रक्खा जी को न कोई संगीत सिखाने वाला था न उनकी काबिलियत पर कोई दाद देने वाला था फिर भी वो बड़ी पुर जोशी से आगे बढ़ते रहे। एक बार तबला वादकों के पंजाब घराने के मियां कादर बख्श की फोटो अखबार में देखी तो उनके पास पहुंच गए और उनसे तबला सीखना शुरू किया। मियां कादिर बख्श की कोई औलाद नहीं थी, जिसकी वजह से उन्होंने अल्ला रक्खा जी को गोद ले लिया, यही नहीं उन्हें अपने घराने का प्रमुख भी घोषित कर दिया।
ये ज़िम्मेदारी मिलते ही अल्ला रक्खा ने पटियाला घराने के उस्ताद आशिक अली ख़ान से शास्त्रीय संगीत और राग विद्या की शिक्षा भी ली। उनके रियाज़ की शिद्दत उनका समर्पण इतना अनुशासित था कि उसने उन्हें उस्ताद अल्ला रक्खा बना दिया।


उन्होंने 1936 में अपना करियर लाहौर में बतौर स्टाफ आर्टिस्ट शुरू किया और फिर 1940 में बॉम्बे आ गए और ऑल इंडिया रेडियो में काम करने लगे, कहते हैं यहां उन्होंने स्टेशन पर पहली बार तबला बजाया और अपने तबले से सबका ध्यान आकर्षित कर लिया था, शायद इस तरह से उन्होंने अपना इम्तेहान लिया था, इसके बाद ही उन्हें अपनी काबिलियत पर यक़ीन हो गया और वो फिल्म उद्योग में शामिल हुए यहां उन्होंने एआर कुरैशी के नाम से हिंदी फिल्मों के लिए संगीत रचना शुरू कर दी। फिल्मों के लिए संगीत देते हुए वो कई बड़े कलाकारों से जुड़े जिनमें बड़े ग़ुलाम अली ख़ान, अलाउद्दीन खान , विलायत ख़ाँ , वसंत राय, अली अकबर खान और रवि शंकर का नाम भी शामिल है। इस दौरान उन्होंने उर्दू, हिंदी, पंजाबी ज़बान की तकरीबन दो दर्जन से ज़्यादा फिल्मों में अपना जौहर दिखाया। पर बॉलीवुड की चका चौंध उन्हें ज़्यादा रास नहीं आई और 60 के दशक तक वो शास्त्रीय संगीत की सुकून भरी आग़ोश में लौट आए।
उनकी तबले की थाप और जुगलबंदी इतनी बेमिसाल होती थी कि हर कोई कह उठता, वाह उस्ताद वाह !
और हम आप में से कई लोगों ने ये महसूस भी किया होगा टी. वी .पर प्रसारित होने वाले चाय के ऐड में जिसमें वो अपने बेटे के साथ तबले पर ताल से ताल मिला ते नज़र आते हैं। तबले के माहिर उस्ताद अल्ला रक्खा जी ने बीटल्स के साथ भी परफॉर्म किया था जो दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित बैंड माना जाता है।
एक वाकया याद आ रहा है, साल था 1967 का, कैलिफोर्निया के मोंटेरे में काउंटी फेयर ग्राउंड में हजारों लोगों की भीड़ जमा थी, स्टेज पर दिग्गज सितार वादक पंडित रविशंकर भीमपलासी राग बजा रहे थे, और उनके साथ पूरी पुरजोशी से तबला बजा रहे थे हमारे चहीते अल्ला रक्खा जी, ये मोंटेरे पाप फेस्टिवल का आखरी दिन था, इस बीच पंडित रविशंकर ने जाने क्या सोचा फिर और उस्ताद अल्ला रक्खा की तरफ देखते हुए अपने सितार की स्वर लहरियों को आहिस्ता से रोक दिया जिससे राग भीम पलासी के बाद तबले से उठ रही तालों ने मानो सबको अपने वश में कर लिया और तबले की ताल पर सब झूम उठे। आप दोनों की जोड़ी ने कई अंतरराष्ट्रीय संगीत समारोहों में भारत का प्रतिनिधित्व किया।


तबला और पखावज वादन से संगीत प्रेमियों को झूमने पर मजबूर कर देने वाले उस्ताद अल्ला रक्खा खान को 1977 में पद्मश्री और 1982 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आपने 1985 में मुंबई में ‘अल्ला रक्खा संगीत संस्थान’ की स्थापना की।
उनके शागिर्द उन्हें प्यार से”अब्बाजी” बुलाते थे,उन्होंने संगीत की संगत में हर बंधन को तोड़ दिया था जिसकी वजह से कर्नाटक संगीतकारों और कई मशहूर हिंदुस्तानी दिग्गजों के साथ भी तबला बजाया और कर्नाटक संगीत व हिंदुस्तानी संगीत के बीच की खाई को भी पाट दिया, 29 अप्रैल 1919 को पैदा हुए उस्ताद अल्ला रक्खा जी ने ताउम्र संगीत के सुर साधे अपने तबले की थाप से हमे लुत्फ़ अंदोज़ किया और अपनी मंज़िल ए मकसूद पर पहुंच कर 3 फरवरी 2000 को आखिरी सांस ली।
ये तो आप जानते ही हैं कि उनके नक्श ए क़दम पर चलकर ज़ाकिर हुसैन ने भी खूब नाम कमाया, पर हम आपको बता दें कि उस्ताद अल्लाह रक्खा जी की बेटी रूही बानो ने भी पाकिस्तान में टेलीविजन और फिल्म अभिनय में एक “दिग्गज” कलाकार का दर्जा हासिल किया था।

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