Author Jayram Shukla | बीमारियों का अपना समाजवाद होता है। उनके वायरस यह नहीं देखते कि कौन छोटा है कौन बड़ा। एसी में रहने वालों को भी डेंगू हो सकता है, झुग्गी में रहने वाले भी बचे रह सकते हैं। गाँव में सुना था कि झाड़फूंक करने वाले भूत,प्रेत,जिन्नों को पटाए रहते हैं। पर ये इसी शर्त पर ओझा के पास रहते हैं कि उन्हें प्रापर खुराक मिलती रहेगी,कैसे भी। जब दूसरों से खुराक नहीं मिलती तो ये खुद ओझा के सिरे आ जाते हैं, उसे ही खाने लगते हैं। पता नहीं ऐसा होता भी है या नहीं। लेकिन सोशल मीडिया के वायरसों के मामले में ऐसा ही होता है।
सोशल मीडिया के जिन वायरसों के मत्थे पिछले लोकसभा चुनाव में साहबजी की लहर बनी थी अब वही वायरस बैकअटैक कर रहे हैं। ..विकास पागल हो गया है..सोशल मीडिया की यह टैग लाइन परेशान किए हुए है। इसकी काट को ढ़ूंढा जा रहा है। विदेशों में बैठे जो भारतीय लड़के बैठे-ठाले सोशल मीडिया के वायरस साहब की हवा बनाने के लिए छोड़ रहे थे वही अब ..विकास पागल हो गया है..जैसे जुमले गढ़कर वायरसों के जरिये भेज रहे हैं। कई ऐसों को मैं जानता हूँ जो एनआरआई का ग्रुप बनाकर काम कर रहे थे, वही अब पलटी मार गए हैं। सोशल मीडिया में एक तरफ महौल बनाने का काम होता है तो उसके समानांतर बिगाड़ने वाले भी सक्रिय हो जाते हैं। जैसे एक ने साफ्टवेयर बनाया, दूसरे ने उसमें वायरस छोड़ दिया,तीसरा एंटीवायरस लेकर हाजिर हो गया। चेक एन्ड बैलेंस। अभी तक दबे छुपे होता था,अब खुले आम ट्रोलर ग्रुप्स बन गए हैं। ट्रोलर वे कहलाते हैं जो किसी की इज्जत के पीछे पड़ जाते हैं और तड़ातड़ अपनी पोस्टों के जरिय धज्जियाँ उड़ाते हुए माँ,बहन से लेकर किसी भी हद तक पहुंच जाते हैं।
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सोशल मीडिया के वायरस किसी के सगे नहीं होते। वैसे भी मीडिया के बारे में आम धारणा है कि यह परपीडक होता है। यह पीडा़ में आनंद देखता है। कल एक चैनल राधे मां को रोते बिलखते दिखा रहा था। लगभग एक घंटे यही दिखाता रहा। किसी को रोते हुए दिखाने का सुख क्या होता है इसका रहस्य मीडिया के टीआरपी मैनेजर ही बता सकते हैं। सोशलमीडिया में भोपाल का एक और दृश्य देखा। एक महिला अपने पति के शव के साथ लिपटकर रो रही है,तमाशबीन मोबाइल में वीडियो बना रहे हैं। उसकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आता। उसकी व्यथा का रस लेता है। मेरे शहर में नया नया सिटी चैनल आया था। बाढ आई और शहर के बीच से गुजरने वाली नदी में एक शववाहन बह गया।
ये लोग मुंबई से बनारस जा रहे थे। जो साथ में थे वे तैर कर बाहर आ गए। चैनल का उत्साही रिपोर्टर उसके मुंह में माइक दंताते हुए पूछ रहा था आपके पिताजी की लाश बह गई, आपको कैसा लग रहा है। दिनभर से भूखे प्यासे बंदे से गुस्सा बर्दाश्त नहीं हुआ उसने जूते उतारे और कैमरे के सामने ही रिपोर्टर को खैंच के तड़ातड़ लगा दिए। रिपोर्टर के साथी उसे बचाने की बजाए मोबाइल में दृश्य शूट करने लगे। सूजे मुँह लिए हुए रिपोर्टर अपने साथियों से कुछ कहता तब तक व्हाट्सएप काम कर चुका था। रिपोर्टर का पिटने वाला फुटेज वायरल हो गया। इसीलिए कहता हूँ कि मीडिया के ये वायरस किसी के सगे नहीं समदर्शी होते हैं। इन्हें खुराक चाहिए, दूसरे से न मिला तो खुद पर ही सवार हो जाते हैं जिन्न की तरह। तहलका वाले तरुण तेजपाल का तो करियर ही खा गए। जेल भिजवाया वो अलग। खुपिया कैमरों से बड़े बड़े तुर्रमखांओं की चड्ढी ढीली करने वाले तेजपाल की चड्ढी उन्हीं खुफिया कैमरों ने उतार के रख दी।
सोशल मीडिया के वायरसों द्वारा बनी लहर पर सवार होकर केजरीवाल दिल्ली सरकार की कुरसी पर बैठे। इन्हीं वायरसों ने केजरी सरकार को खाना शुरू कर दिया। दिनभर सिर्फ बोलते ही रहने वाले केजरी की बोलती फिलहाल बंद है,वजह यही वायरस। अस्त्र का सही इस्तेमाल न हो तो वह खुद को जख्मी कर देता है। कल तक सोशल मीडिया के जरिये दूसरों की खिल्ली उड़ाने वालों की अब खुद खिल्ली उड़ रही है। सोशल मीडिया के बैकफायर का शायद अनुमान नहीं रहा होगा। पर एक बार जो रास्ता बन गया उसे ब्लाक करना आसान नहीं। राजस्थान सरकार यही करने की कोशिश में है। एक कानून बनने जा रहा है..उसी को लेकर हंगामा है। इस कानून के जरिये मंत्री, अफसरों के बारे में कुछ लिखने और दिखाने से पहले अनुमति को अनिवार्य बनाने की मंशा है। विरोध को देखते हुए नहीं लगता कि ऐसा कानून बन पाएगा।
जो सत्ता में हैं उन्हें वायरस का भय ज्यादा सता रहा है। परपीडक चरित्र होने के बावजूद आमतौर पर यह पीड़ितों के साथ होता है। संगठित मीडिया समूह तो साम-दाम-दंड-भेद से साधे जा सकते हैं। पर इन अस्सी करोड़ एन्ड्रॉयड में घुसे वायरसों को कौन साधेगा। अभिव्यक्ति का ऐसा कारगर खिलौना पहली बार हाथ लगा है। जिसका मन पड़े उसकी खबर ली..ऊपर से कमाल यह भी कि यह खबर लेने वालों की भी खबर ले लेता। मैं निजी तौरपर इस खुलेपन को लोकतंत्र के लिए उचित मानता हूँ क्योंकि ये खुद में ही अपना चेक एन्ड बैलेंस हैं। कुछ दिनों बाद ये स्वमर्यादित हो जाएंगे। अभी जवानी का जोश है,प्रौढ होने दीजिए। क्योंकि संगठित समूह के मीडिया की नीति और नीयति पर कोई ऐतबार नहीं। कहां पसर जाए, कहां संघर जाए भरोसा नहीं। इसलिए सोशल मीडिया के वायरसों को अपना काम करने दीजिए। यही सवा सौ करोड़ अवाम के असली संवाददाता हैं,लाख किंतु परंतु के बावजूद।