खुद की ज़िंदगी ग़मों से भरी थी पर हमारी ज़िंदगी को खुशियों से भरने के लिए वो हंसाती रही गुनगुनाती रहीं

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न्याजिया बेग़म
Uma devi death anniversary: खुद की ज़िंदगी ग़मों से भरी थी पर हमारी ज़िंदगी को खुशियों से भरने के लिए वो हंसाती रही गुनगुनाती रहीं, अपने मां बाप कैसे होते हैं,ये भी न जान पाईं ज़मीनी विवाद में जब वो गुज़रे तो ये दो ढाई साल की थी , नाम था उमा देवी पर जब दुनियां को हंसाने आईं तो मोटी थी शायद इसलिए नाम पड़ गया टुन टुन ,वो उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले के अलीपुर गांव में रहती थी एक भाई था हरी 8,9 साल का उसे भी एक दिन किसी ने मार डाला ,दो वक्त की रोटी के लिए उन्हें नौकरानी के तौर पर किसी रिश्तेदार के यहां छोड़ दिया गया किसी तरह बचपन बीता तो उनकी मुलाक़ात आबकारी ड्यूटी इंस्पेक्टर अख्तर अब्बास काज़ी से हुई, जिन्होंने उन्हें हांसला दिया।

ऐसे जगी गायिका बनने की तमन्ना
उमा बचपन से बहोत अच्छा गाती थीं और रेडियो में गाने सुनते हुए उनके अंदर गायिका बनने की तमन्ना जगी थी इसलिए उन्हें अब्बास जी ने अपनी खूबी पहचानने को कहा पर भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय, काज़ी लाहौर, पाकिस्तान चले गए और उमा हालात से तंग आकर,अपनी क़ाबिलियत को साबित करने के लिए 23 साल की उम्र में फिल्मों में गाने का ख्वाब सजाए , बॉम्बे (मुंबई) पहुंच गईं जहां बेझिझक संगीतकार नौशाद अली के दरवाजे पर दस्तक दी और उनसे कहा कि वो गा सकती है और अगर वो उन्हें मौका नहीं देंगे तो वह खुद को ख़त्म कर लेंगी ये सुनकर नौशाद साहब ने फौरन उनका ऑडिशन लिया जिसमें वो पास हो गईं तो उसी वक्त उन्हें काम पर रख लिया इस तरह उन्हें नज़ीर की (1946) की फिल्म ,वामिक अज़रा में एक एकल पार्श्व गायिका के रूप में मौक़ा मिला फिर उनके अंदाज़ को देखकर जल्द ही निर्माता-निर्देशक एआर कारदार ने उन्हें साइन कर लिया बतौर संगीत निर्देशक नौशाद भी साथ थे और नूरजहाँ , राजकुमारी , खुर्शीद बानो और ज़ोहराबाई अंबालेवाली जैसे संगीत दिग्गजों के बीच उमा देवी ने अपनी जगह बना ली और देखते ही देखते “अफ़साना लिख ​​रही हूँ दिल-ए-बेक़रार का”, “ये कौन चला मेरी आँखों में समा कर” और “आज मची है धूम झूम ख़ुशी से झूम” जैसे कई बड़े हिट गाने गाए, एआर कारदार की(1947) की फिल्म दर्द में, फिर से नौशाद के संगीत निर्देशन में ही , उन्होंने एक युगल गीत गाया; “बेताब है दिल दर्द-ए-मोहब्बत के असर से”, सुरैया के साथ , बस फिर क्या था ये गीत इतने लोकप्रिय हुए कि उनका गीत “अफ़साना लिख ​​रही हूँ” सुनकर अख्तर अब्बास काज़ी दीवाने होकर उनके पास बॉम्बे आ गए और ज़ाहिर है।

संगीत की बकायदा कोई तालीम हासिल नहीं की
ज़िंदगी में पहली बार मिली इस मोहब्बत को उमा जी ने क़ुबूल कर लिया और आप दोनों की शादी हो गई, आपकी दो बेटियाँ और दो बेटे हैं; आपने संगीत की बकायदा कोई तालीम नहीं हासिल की थी पर उनकी आवाज़ और सुरों की परिपक्वता कहीं से ये ज़ाहिर नहीं होने देती थी कि उन्होंने किसी से संगीत नहीं सीखा , शादी तक वो क़रीब 45 गाने गा चुकी थीं फिर घर परिवार में व्यस्त हो गईं और कुछ वक्त बाद 1950 में जब उन्होंने गायन में वापसी करने की सोची तो नौशाद साहब ने उनकी हाज़िर जवाबी और हर दिल अज़ीज़ होने की वजह से उन्हें अभिनय में जाने को कहा जिसे सुनकर उमा जी ने शर्त रख दी कि मैं एक्टिंग करूंगी मगर जब दिलीप कुमार साहब मेरे साथ स्क्रीन शेयर करेंगे फिर क्या था उनकी ये शर्त मान ली गई और दिलीप कुमार के साथ उनकी फिल्म आई बाबुल ।

बेमिसाल थी कॉमिक टाइमिंग
उनकी कॉमिक टाइमिंग बेमिसाल थी जिससे दिलीप साहब भी इतने मुतासिर हुए कि उन्होंने ही एक हास्य कलाकार के रूप में उन्हें नाम दिया टुनटुन जो उनकी शख्सियत के साथ ऐसे मेल खाया की वो भारतीय सिनेमा की पहली महिला हास्य कलाकार बन गईं । और ये सिलसिला जब चल पड़ा तो उन्होंने क़रीब 200 फिल्मों में हास्य भूमिकाएं निभाई। अपने पांच दशक के करियर में उन्होंने हिंदी उर्दू पंजाबी के अलावा भी कई भाषाओं की फिल्मों में उस वक्त के सभी शीर्ष कलाकारों के साथ अभिनय किया और मिस्टर एंड मिसेज 55, आवारा और प्यासा जैसी फिल्मों में अपनी अमित छाप छोड़ी , आपकी आखरी फिल्म 1990 की क़सम धंधे की थी ,इस तरह जब तक अपनी फिल्मों के ज़रिए वो हमें खुश कर सकी उन्होंने किया फिर
अपनी मंज़िल ए मक़सूद पर पहुंच कर 24 नवंबर 2003 को वो इस फानी दुनिया को अलविदा कह गई पर हमारे दिलों में वो हमेशा जावेदा रहेंगी अपनी दुनिया से जुदा आवाज़ उस पर हमें गुदगुदा देने वाली हंसी और अनूठी अदा की अनूठी मिसाल बनकर।

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