आदिवासी कला वैज्ञानिक परंपरा ~डॉ रामानुज पाठक

भारत में आदिवासी समुदायों की एक विस्तृत श्रृंखला पाई जाती है, जिनकी अपनी अलग-अलग संस्कृति, रीति-रिवाज और जीवनशैली है। ये समुदाय भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। कुछ प्रमुख आदिवासी समूह हैं,
संथाल ,जो स्थान: मुख्यतः झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा में पाए जाते हैं।

इन आदिवासियों की जीवनशैली कृषि और वन उत्पादन पर आधारित हैं।तथा ये धनुषबाण, डमरु और मृदंग जैसे वाद्ययंत्रों का उपयोग करते हैं। उनकी लोककला में पौराणिक कथाओं और दैनिक जीवन के दृश्यों का चित्रण होता है। गोंड, मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश में पाए जाते हैं।इनकी जीवनशैली कृषि, शिकार और वन उत्पादन पर आधारित है।गोंड चित्रकला विश्व प्रसिद्ध है। उनकी कला में देवी-देवताओं, जानवरों और प्रकृति के दृश्यों का चित्रण होता है। मुंडा आदिवासी जनजाति झारखंड, ओडिशा, बिहार और पश्चिम बंगाल में पाई जाती है।

मुंडा आदिवासियों की जीवनशैली कृषि और वन उत्पादन पर निर्भर है।मुंडा लोग अपनी समृद्ध मौखिक परंपरा के लिए जाने जाते हैं। उनकी लोककथाओं में प्रकृति और मानव जीवन के बीच संबंधों को दर्शाया जाता है।भील, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं।इनकी जीवनशैली कृषि, पशुपालन और शिकार पर आधारित है। भील कला में ज्यामितीय आकृतियाँ और जानवरों के चित्रण प्रमुख होते हैं। वे धनुषबाण के निपुण धनुर्धर होते हैं। संताली आदिवासी समूह झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा में पाए जाते हैं।इनकी जीवनशैली कृषि, वन उत्पादन और हस्तशिल्प पर निर्भर करती है। संताली लोग अपनी समृद्ध संगीत और नृत्य परंपरा के लिए जाने जाते हैं।

धमाल और सोहराई उनके प्रमुख त्योहार हैं। उराव जनजाति झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में पाई जाती है।इनकी जीवनशैली कृषि और वन उत्पादन पर निर्भर करती है। उराव लोग अपनी धार्मिक मान्यताओं और रीति-रिवाजों के लिए जाने जाते हैं। वे प्रकृति को पूजते हैं और कई देवी-देवताओं में विश्वास रखते हैं। प्रत्येक आदिवासी समूह की अपनी अलग भाषा होती है।अधिकांश आदिवासी लोग प्रकृति पूजक होते हैं और कई देवी-देवताओं में विश्वास रखते हैं।

आदिवासी कला और शिल्प उनकी जीवनशैली और संस्कृति का प्रतिबिंब हैं। आदिवासी लोग मुख्य रूप से जंगली फल, सब्जियां, मांस और मछली खाते हैं।आदिवासी कला सिर्फ रंगों और आकृतियों का खेल नहीं है, बल्कि यह प्रकृति और मानव के बीच एक गहरा संबंध दर्शाती है। यह कला सिर्फ सौंदर्य बोध के लिए ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक ज्ञान, सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन दर्शन को भी व्यक्त करती है। आदिवासी कलाकारों ने प्रकृति के नियमों, खगोलीय घटनाओं और मानव शरीर के रहस्यों को अपनी कला में बड़ी सूक्ष्मता से उकेरा है।आदिवासी जीवन प्रकृति के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। वे प्रकृति को पूजते हैं, उसका सम्मान करते हैं और उससे जीवन यापन करते हैं। उनकी कला में भी यह संबंध स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। आदिवासी कलाकार प्रकृति के विभिन्न तत्वों जैसे पेड़-पौधे, जानवर, नदियां, पहाड़, सूर्य, चंद्रमा आदि को अपनी कला में प्रमुखता से चित्रित करते हैं।


पेड़-पौधे आदिवासी कला में जीवन और उर्वरता का प्रतीक होते हैं। वे पेड़ों की जड़ों को पृथ्वी से जोड़ते हुए और उनकी शाखाओं को आकाश की ओर उठाते हुए जीवन चक्र को दर्शाते हैं। जानवरों को आदिवासी कला में शक्ति, बुद्धि और साहस का प्रतीक माना जाता है। कई आदिवासी समाजों में जानवरों को कुल देवता माना जाता है। नदियां और पहाड़ आदिवासी संस्कृति में पवित्र माने जाते हैं। इन्हें जीवन का स्रोत और पोषक माना जाता है।सूर्य और चंद्रमा को आदिवासी कला में क्रमशः पुरुष और स्त्री तत्व का प्रतीक माना जाता है। ये खगोलीय पिंड आदिवासियों के लिए समय और मौसम के निर्धारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।आदिवासी कला में प्रकृति का चित्रण केवल सौंदर्य बोध के लिए नहीं होता, बल्कि इसमें वैज्ञानिक ज्ञान की भी झलक मिलती है।


आदिवासी कलाकारों ने चंद्रमा के चरणों, सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण जैसी खगोलीय घटनाओं को अपनी कला में बड़ी सटीकता से उकेरा है। यह दर्शाता है कि आदिवासी लोग खगोल विज्ञान के बारे में काफी कुछ जानते थे। आदिवासी कलाकारों ने विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों को अपनी कला में बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। यह दर्शाता है कि वे विभिन्न प्रकार के पौधों की पहचान और उनके गुणों के बारे में अच्छी तरह से जानते थे।आदिवासी कलाकारों ने विभिन्न प्रकार के जानवरों को उनकी शारीरिक विशेषताओं और व्यवहार के अनुसार चित्रित किया है। यह दर्शाता है कि वे जानवरों के बारे में गहन अध्ययन करते थे।
आदिवासी कला में कई ऐसे प्रतीक मिलते हैं जो विभिन्न प्रकार की बीमारियों और उनके उपचार से संबंधित हैं। यह दर्शाता है कि आदिवासी लोग चिकित्सा के क्षेत्र में भी काफी ज्ञानी थे।भारत के आदिवासी समाज सदियों से प्रकृति के साथ एक गहरा संबंध साझा करते आए हैं। इसी संबंध के चलते उन्होंने अपनी विशिष्ट चिकित्सा प्रथाएं विकसित की हैं। ये प्रथाएं स्थानीय वनस्पतियों, जानवरों और आध्यात्मिक विश्वासों पर आधारित होती हैं।


आदिवासी चिकित्सा में मुख्य रूप से जड़ी-बूटियों, पेड़ों की छाल, पत्तियों, फलों और जड़ों का उपयोग किया जाता है। बीमारियों को अक्सर आध्यात्मिक कारणों से जोड़ा जाता है और इलाज में मंत्र, पूजा और अनुष्ठान शामिल होते हैं।आदिवासी चिकित्सक समुदाय के सदस्यों के साथ गहरा संबंध रखते हैं और बीमारी को व्यक्तिगत नहीं बल्कि समुदाय की समस्या मानते हैं।जड़ी-बूटी चिकित्सा, सबसे आम पद्धति है जिसमें विभिन्न बीमारियों के लिए अलग-अलग जड़ी-बूटियों का उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, नीम का उपयोग त्वचा रोगों के लिए और तुलसी का उपयोग सर्दी-खांसी के लिए किया जाता है। कई आदिवासी समुदायों में बीमारी को बुरी शक्तियों के प्रभाव से जोड़ा जाता है। ऐसे में मंत्रों का जाप और पूजा-पाठ किया जाता है।अधिकतर आदिवासी दवाएं प्राकृतिक होती हैं और इनके दुष्प्रभाव कम होते हैं।आधुनिक दवाओं की तुलना में आदिवासी दवाएं अधिक सस्ती होती हैं।आदिवासी चिकित्सा स्थानीय पर्यावरण और बीमारियों के बारे में गहन ज्ञान पर आधारित होती है।

आदिवासी चिकित्सा पर्यटन भी एक उभरता हुआ क्षेत्र है।आदिवासी चिकित्सा, जो सदियों से प्रकृति और मानव शरीर के बीच एक गहरा संबंध दर्शाती है, आज एक नए मोड़ पर है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के युग में भी आदिवासी चिकित्सा की प्रासंगिकता बनी हुई है, और इसका भविष्य रोमांचक संभावनाओं से भरा है। आदिवासी चिकित्सा में उपयोग होने वाले औषधीय पौधों का वैज्ञानिक अध्ययन और उनके औषधीय गुणों की पुष्टि हो रही है। यह आधुनिक दवाओं के विकास में एक नई दिशा खोल सकता है। आदिवासी चिकित्सा को अब अधिक से अधिक मान्यता मिल रही है। सरकारें और गैर-सरकारी संगठन आदिवासी चिकित्सा के संरक्षण और प्रचार के लिए काम कर रहे हैं। आदिवासी चिकित्सा पर्यटन एक उभरता हुआ क्षेत्र है। लोग प्राकृतिक उपचार और आयुर्वेदिक पद्धतियों के लिए आदिवासी क्षेत्रों की यात्रा कर रहे हैं। आदिवासी चिकित्सा के ज्ञान को युवा पीढ़ी में फैलाने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं। स्कूलों और विश्वविद्यालयों में आदिवासी चिकित्सा पर पाठ्यक्रम शुरू किए जा रहे हैं।


आदिवासी चिकित्सा प्राकृतिक संसाधनों के सतत उपयोग पर जोर देती है। यह सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद कर सकती है।यद्यपि आधुनिक जीवनशैली और पश्चिमी चिकित्सा के प्रभाव के कारण आदिवासी चिकित्सा का ज्ञान कम होता जा रहा है। जंगलों के विनाश से औषधीय पौधों की उपलब्धता कम हो रही है। आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव आदिवासी चिकित्सा के विकास में बाधा डालता है।आदिवासी चिकित्सा का भविष्य उज्ज्वल है, लेकिन इसके लिए आदिवासी चिकित्सा पर अधिक से अधिक शोध किए जाने चाहिए। औषधीय पौधों और पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण करना आवश्यक है।आदिवासी चिकित्सा के बारे में जागरूकता फैलाना चाहिए। सरकार को आदिवासी चिकित्सा के विकास के लिए नीतियां बनानी चाहिए।


आदिवासी चिकित्सा न केवल स्वास्थ्य के लिए बल्कि सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह हमें प्रकृति के साथ एक नए सिरे से जुड़ने का अवसर प्रदान करती है।जनजातीय ज्ञान के साक्ष्य परंपरागत लोकगीत, नृत्य, चित्रकारी वगैरह में देखे जा सकते हैं।जनजातियों की ज्ञान परंपरा में सदियों से बीमारियों से लड़ने के लिए पौधों और पारंपरिक औषधियों का इस्तेमाल किया जाता है। जनजातियों के लिए प्रकृति, संस्कृति, और आस्था का विषय है। आदिवासी चिकित्सकों और औषधीय पौधों, आदिवासी भाषाओं, कृषि प्रणाली, नृत्य, और चित्रकारी वगैरह के ज़रिए स्वदेशी प्रथाओं का अनुसंधान और दस्तावेज़ीकरण किया जा सकता है। आदिवासी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित और बढ़ावा देने के लिए, एक खोज योग्य डिजिटल रिपॉज़िटरी(डिजिटल संचय) बनाई जा सकती है. संथाल पेंटिंग, झारखंड, पश्चिम बंगाल, और ओडिशा की संथाल जनजाति द्वारा प्रचलित एक पारंपरिक कला है। संथाल पेंटिंग अक्सर दैनिक जीवन, प्रकृति, और आदिवासी रीति-रिवाजों के दृश्यों को दर्शाती हैं।आदिवासी कला में खगोलीय ज्ञान की झलक स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। उनकी गुफा चित्रों, पत्थर की नक्काशी और पेंटिंग्स में अक्सर सूर्य, चंद्रमा, तारे और ग्रहों के चित्रण होते हैं।


सूर्य और चंद्रमा,ये दोनों खगोलीय पिंड आदिवासी कला में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सूर्य को जीवनदाता माना जाता है और चंद्रमा को स्त्रीत्व और प्रजनन क्षमता का प्रतीक। तारे और नक्षत्र, आदिवासी कई नक्षत्रों और तारामंडलों की पहचान करते थे। वे इनका उपयोग मौसम, खेती और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए करते थे।खगोलीय ज्ञान का उपयोग आदिवासियों ने अपने खगोलीय ज्ञान का उपयोग कई तरह से किया।वे तारों की स्थिति के आधार पर फसल बोने और काटने का समय निर्धारित करते थे। वे तारों की मदद से रास्ता ढूंढते थे और शिकार के लिए सही समय का अनुमान लगाते थे। कई आदिवासी समुदायों में खगोलीय पिंडों को देवता माना जाता था और उनके लिए विशेष अनुष्ठान किए जाते थे। आदिवासी चंद्रमा के चरणों और सूर्य की स्थिति के आधार पर समय का निर्धारण करते थे। आज, आधुनिक खगोल विज्ञान आदिवासी खगोलीय ज्ञान की पुष्टि करता है। कई आदिवासी समुदायों ने ऐसे तारामंडल और नक्षत्रों की पहचान की है जिनकी खोज आधुनिक खगोलविदों ने हाल ही में की है।


उदाहरण, ऑस्ट्रेलिया के अबोरीजिन लोगों ने 50,000 से अधिक वर्षों से आकाश का अध्ययन किया है। उनके पास आकाशगंगा के लिए 100 से अधिक नाम हैं और वे तारों के आधार पर मौसम और जलवायु परिवर्तन का पूर्वानुमान लगा सकते हैं। अमेरिका के इंडिजेंस लोगों ने भी आकाश का गहरा अध्ययन किया है। वे तारों की स्थिति के आधार पर शिकार, मछली पकड़ने और खेती के लिए सबसे अच्छे समय का निर्धारण करते थे।आदिवासी खगोलीय ज्ञान मानव इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह दर्शाता है कि मानव हमेशा से प्रकृति के साथ एक गहरा संबंध रखता रहा है और उसने अपनी समझ को बढ़ाने के लिए आकाश का अवलोकन किया है।आदिवासी कला प्रकृति और मानव के बीच एक अटूट बंधन को दर्शाती है। यह कला केवल सौंदर्य बोध के लिए ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक ज्ञान, सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन दर्शन को भी व्यक्त करती है। आदिवासी कला का अध्ययन हमें प्रकृति के साथ अपने संबंध को पुनः स्थापित करने और एक सतत विकास की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।

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