आइए आज बात करते हैं लालजी पांडे की ,जी हां वही जिन्हें हम अनजान के नाम से जानते हैं या कहलें कि जो गीतों की पहचान अनजान नाम से बन गये और क़रीब
300 से ज़्यादा फ़िल्मों के लिए 1,500 से ज़्यादा नग़्मों को कलमबद्ध किया अब ये आलम है कि अनजान के गीत को हर संगीत प्रेमी के दिल की धड़कन पहचानती है पर ये सिलसिला शुरू कैसे हुआ तो,
हुआ यूं की उन्हें कविताएं लखने का शौक था और उनकी मुलाकात रुद्र काशिकेय से हो गई और उसके बाद वो काव्य गोष्ठियों में शामिल होने लगे ,अपनी शायरी को तरन्नुम में पढ़ते पढ़ते काफ़ी मशहूर भी हुए लेकिन फिल्मों के बारे में तब सोचा जब गायक मुकेश का बनारस आना हुआ और अनजान के दोस्त शशि बाबू ने मुकेश से फिल्म निर्माताओं से उनकी सिफ़ारिश करने को कहा फिर भी अंजान मुंबई नहीं जा पा रहे थे फिर कुछ ऐसे बीमार पड़े कि डॉक्टर ने उन्हें सलाह दी कि वो कहीं सागर किनारे जाकर रहें और जब वो मुंबई पहुंचे तो मुकेश ने अपना वादा निभाया इस तरह
अंजान को पहला ब्रेक 1953 में प्रेमनाथ प्रोडक्शन की फिल्म प्रिज़नर ऑफ गोलकुंडा से मिला , जिसमें उन्होंने “लहर ये डोले कोयल बोले” और “शहीदों अमर है तुम्हारी कहानी” गीत लिखे थे।
उनका बेहद मशहूर नग़्मा “मत पूछ मेरा है मेरा कौन वतन” फिल्म लंबे हाथ से था, जिसमें जीएस कोहली का संगीत था, जिनके साथ उन्होंने कई फिल्में कीं
पर उन्हें राज कुमार की फिल्म गोदान से वो कमियाबी मिली जिसके वो हकदार थे ये प्रेमचंद की कहानी पर आधारित क्लासिक फिल्म थी, जिसमें रविशंकर का संगीत था, इसका एक गीत तो हर किसी कि ज़ुबान पर चढ़ गया ,”पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा “।
इस फिल्म के बाद उन्होंने 1960 के दशक के मध्य में बड़े संगीतकारों के साथ काम किया ,कुछ यादगार फिल्में रहीं गुरु दत्त की बहारें फिर भी आएंगी और जीपी सिप्पी की बंधन , जिसके “बिना बदरा के बिजुरिया कैसे बरसे” और “आपके हसीन रुख पे ” जैसे गीतों ने आपको फिल्म संगीत में बतौर गीतकार स्थापित कर दिया ,कल्याणजी-आनंदजी के संगीत निर्देशन में आपके लिखे बोलों का ताना बाना आज भी एक अलग छाप छोड़ता है हमारे दिलों में ,
1960 के दशक में, अंजान ने श्याम सागर द्वारा रचित और मोहम्मद रफ़ी , मन्ना डे और सुमन कल्याणपुर के गाए गए कई गैर-फ़िल्मी एल्बम के भी गाने लिखे। रफ़ी का गाना “मैं कब गाता” उस समय काफ़ी हिट हुआ था। अंजान ने 1970 के दशक के अंत में बलम परदेसिया जैसी हिट फ़िल्म के साथ भोजपुरी फ़िल्मों की दुनिया में भी प्रवेश किया जिनमें”गौरकी पतरकी रे” गाना काफ़ी चर्चित हुआ और यहीं से उनके बेटे समीर और आनंद-मिलिंद भी एक साथ फिल्मों में जुड़े, उन्हें अपनी मातृभाषा भोजपुरी से बहोत लगाव था और बनारस से भी ,दूसरी तरफ,
अंजान लगभग 20 साल तक हिंदी फिल्मों को अपने गीतों से पुर असर अंदाज़ देते रहे उनकी कविताओं में भोजपुरी भाषा और हिंदी के गढ़ उत्तर प्रदेश के लोकाचार और संस्कृति का रंग था। समीर कहते हैं वो “खइके पान”, “बिना बदरा के बिजुरिया” और इसी तरह के और गीतों को बड़ी कुशलता से लिख सकते थे, उनके अपने पसंदीदा गानों में, अपने रंग हज़ार ,बदलते रिश्ते के गीत और गंगा की सौगंध के “मानो तो मैं गंगा मां हूं मानो तो बहता पानी” और “चल मुसाफ़िर” थे।
अनजान के गीतों को ग़ौर से सुनने पे लगता है मानों उनकी कविता लय में बंध कर और आकर्षक हो गई हो , अमिताभ बच्चन पे फिल्माए गए कुछ गाने तो ऐसे हैं जैसे हर शब्द एक अनमोल मोती की तरह पिरोया गया हो जैसे
1976 में दो अनजाने फिल्म गीत (“लुक छिप लुक छिप जाओ ना”) को सुनकर आप भी ये महसूस कर सकते हैं या फिर हेरा फेरी फिल्म का गीत (“बरसों पुराना ये याराना”), या खून पसीना का (“शीर्षक गीत” और “बानी रहे जोड़ी राजा रानी की”), कुछ और आगे बढ़े तो मुकद्दर का सिकंदर में (“रोते हुए आते हैं सब”, “ओ साथी रे”, “प्यार जिंदगी है”, “दिल तो है दिल”), और फिल्म डॉन के गाने तो उनके लिए मील का वो पत्थर बन गए जिसे भुलाया ही नहीं जा सकता ये सबसे ज़्यादा हिट हुए जो आपको भी याद होंगे जी हां “खइके पान बनारस वाला”, (“ई है बंबई नगरिया”, “जिसका मुझे था इंतजार”) इसके बाद उनकी कमियाबी में और चार चांद लगा दिया लावारिस के गीतों ने जैसे (“जिसका कोई नहीं”) , “कब के बिछड़े”) उनके गीतों से सजी कुछ और फिल्मों को हम याद करें तो हमारे जहन में दस्तक देती हैं
दो और दो पांच , याराना, नमक हलाल और शराबी ।
1980 का दशक उनके लिए कुछ और खास था क्योंकि इस वक्त वो मिथुन चक्रवर्ती की डिस्को डांसर और डांस डांस जैसी फिल्मों के गाने लिखने लिए पसंदीदा लेखक के रूप में उभरे और बप्पी लाहिड़ी, शिबू मित्रा और बी. सुभाष की फिल्मों में भी उन्हें खूब सफलता मिली, इनफिल्मों में आंधी तूफान, इल्जाम, आग ही आग, पाप की दुनिया और टार्जन के गाने आज भी याद किए जाते हैं।
1990 के दशक की शुरुआत से ही उनकी तबियत खराब रहने लगी थी इसके बावजूद उन्होंने जिंदगी एक जुआ , दलाल , घायल और 1990 के चार्टबस्टर गाना “गोरी हैं कलाइयां” फिल्म ( आज का अर्जुन ) के लिए और अपनी इस दिलनशी नग्मों की फेहरिस्त को पूरा करते हुए आखिरी हिट फिल्म दी ,शोला और शबनम ।
1990 के दशक में उनके गीतों से सजी कुछ और फिल्में हैं जिन्होंने अपने गीत संगीत से उनकी अमित छाप छोड़ी है जैसे इंसानियत , पुलिस और मुजरिम , फर्स्ट लव लेटर , आंधियां , फूल बने अंगारे ।
यूं तो 1997 को वो इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए पर अपने चाहने वालों के दिलों में हमेशा गीतों में बस कर ज़िदा रहेंगे ।
यहां आपको ये भी बताते चलें कि उनकी कविताओं की किताब , गंगा तट का बंजारा (गंगा के किनारे से एक जिप्सी) अमिताभ बच्चन के हाथों रिलीज़ हुई है।
आखिर में याराना का एक गीत गुनगुना के देखिए और महसूस करिए कलम के इस जादूगर का जादू :-
” छूकर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा “