Third battle of Panipat: मकर संक्रांति के दिन जब पूरा देश यह पर्व मना रहा था तब भूख और प्यास से जूझ रहे मराठे, अफगानों के विरुद्ध भारतीय इतिहास के सर्वाधिक बड़ा और घातक युद्ध लड़ रहे थे। 18 वीं शताब्दी भारत के पूर्वी क्षेत्र बंगाल में जब ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी लगातार स्थिति को मजबूत बना रही थी। तो उत्तर भारत में वर्चस्व की लड़ाई के लिए के मराठों और अफगानों का लगातार टकराव हो रहा था। दोनों पक्ष ही अपनी राजनीतिक बिसातें बिछा रहे थे, चालें चल रहे थे। अंततः 14 जनवरी 1761 बुधवार मकर संक्राति के दिन पानीपत के मैदान में भारतीय इतिहास का एक बहुत ही बड़ा और निर्णायक युद्ध हुआ। जिसमें दुर्भाग्यवश मराठे पराजित हुए और ‘अटक से कटक’ तक शासन करने का उनका सपना अधूरा ही रहा। पानीपत का मैदान इतिहास में सबसे प्रमुख निर्णायक युद्धों के लिए जाना जाता है। इससे पहले वहाँ पूर्व में दो निर्णायक युद्ध हो चुके थे, जिसके कारण इस युद्ध को पानीपत का तीसरा युद्ध कहते हैं। लेकिन यह युद्ध क्यों हुआ और मराठों की हार के क्या कारण थे आइये आज हम जानते हैं।
1707ईस्वी में मुग़ल बादशाह औरंगजेब के निधन के बाद, मुग़ल सत्ता कमजोर हो गई। बादशाहत के लिए मुग़ल शहजादों के मध्य लगातार टकराव होने लगे। जिसके कारण देश में अस्थिरता और अराजकता उत्पन्न हो गई। जिसके कारण में कई क्षेत्रीय शक्तियों का उदय होने लगा। मुग़ल सूबेदार अपने शासित प्रांतों में लगभग स्वतंत्र हो चुके थे। जिनमें अवध, बंगाल और हैदराबाद प्रमुख थे। मुग़ल सत्ता के वजह से हिंदू शक्तियों का भी उभार होने लगा। जहाँ उत्तर में जयपुर, जोधपुर और उदयपुर इत्यादि स्वतंत्र हो गए। तो वहीं दक्कन में उदय हुआ मराठों का। मराठे जो शिवाजी महाराज के समय से ही मुग़लों से लगातार संघर्ष कर रहे थे। बाजीराव जैसे सुयोग्य नेतृत्व के कारण उनका बड़ी तेजी से राजनैतिक उदय हुआ। 1728 में मराठों ने मालवा को जीत लिया, बुंदेलखंड में बुंदेलों से मैत्री कर ली और 1736 तक सम्पूर्ण राजपूताना पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया। 1737 में पेशवा बाजिराव ने मुग़लों की राजधानी दिल्ली पर हमला कर बादशाह को आतंकित किया और 1739 में भोपाल के युद्ध में निज़ाम के नेतृत्व में लड़ रहे मुग़लों को करारी शिकस्त देकर दौराहे की संधि के अनुसार नर्मदा से यमुना के बीच चौथ वसूलने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया।
इधर भारत में जब ये सब हो रहा था। तो कोई यह सब बड़े ध्यान आकलन कर रहा था, वह था ईरान का शासक नादिरशाह। वह हिंदुस्तान में आक्रमण के बहाने खोजने लगा, और अफगान विद्रोहियों के भारत में प्रवेश का बहाना करके, 1738 में हिन्दुस्तान पर आक्रमण के लिए निकला। उसका प्रमुख उद्देश्य मुग़ल बादशाह को आतंकित करके ज्यादा से ज्यादा धन प्राप्त करना था। कहते हैं जब मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह को इस आक्रमण की जानकारी दी जाती, तो वह कहता ‘हनूज दिल्ली दूर अस्त’ अर्थात अभी दिल्ली दूर है। मुहम्मद शाह ‘सदारंगीला’ के नाम से लिखता था, और बड़ी रंगीन तबीयत का था, इसीलिए वह रंगीला के नाम से भी मशहूर था। 24 फ़रवरी 1739 को हिंदुस्तानी और ईरानी फौजों के मध्य करनाल का युद्ध हुआ। दिल्ली की दरबारी राजनीति में तब निजाम और अवध के नवाब के मध्य राजनैतिक प्रतिद्वंदिता भी चल रही थी, परिणामस्वरूप मुग़ल यह युद्ध हार गए, नादिरशाह दिल्ली आ गया, और लगभग 57 दिन तक दिल्ली को आतंकित करते हुए उसने वहां भारी नरसंहार और लूटपाट की। कोह-ए-नूर हीरा, शाही मयूर तख़्त सहित वह अनुमानतः सत्तर करोड़ की संपत्ति भारत से लूट ले गया। इस कहानी पर हम फिर कभी विस्तार से बात करेंगे।
जाते-जाते नादिरशाह ने अपने छोटे बेटे नसरुल्लाह मिर्ज़ा से एक मुग़ल शहजादी इफ्फत-उन-निशा बेगम का निकाह करवा कर सिंधु नदी के पश्चिम का सारा क्षेत्र भी मुग़लों से प्राप्त कर लिया। 20 जून 1747 में नादिरशाह की हत्या कर दी गई। उसकी हत्या के बाद उसका एक गुलाम अहमद शाह अब्दाली अफगानी क्षेत्रों में शासक बन बैठा। अब्दाली भी नादिरशाह की तरह ही आक्रामक और साम्राज्यवादी प्रकृति का था। इधर 1748 में बादशाह रंगीला की मृत्यु हो गई और उसका 22 वर्षीय पुत्र अहमद शाह बहादुर नया शासक बना। इतिहासकार ताराचंद के अनुसार नया सम्राट बुद्धू था, उसने शासन-प्रशासन और युद्ध की कोई भी शिक्षा नहीं ली थी। अतः राजकीय सत्ता अवध के नवाब वजीर सफदरजंग के हांथ आ गई। सफदरजंग ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति अवध के पश्चिम में रुहेलखंड के रुहेलों के दमन में लगा दी। रुहेले मूलतः रोह अफगानिस्तान से सुल्तान बहलोल लोदी के समय में भारत आये थे और कटेहर के राजपूतों का दमन कर यह वहीं बस गए, उनके बसने के कारण यह क्षेत्र रुहेलखंड कहलाने लगा। चूँकि अफगानों की विद्रोही प्रवृत्ति का अकेले वजीर दमन नहीं कर पाया, तो उसने मराठों से सहयोग लिया। मध्यभारत के मराठा सरदार होल्कर और सिंधिया और नवाब की मिली-जुली फौजों ने 19 अप्रैल 1751 में हुसैनपुर के युद्ध में रुहेलों को पराजित कर दिया। जी. एम. सरदेसाई के अनुसार रुहेलों ने वजीर की शक्ति का दमन करने के लिए अब्दाली को बुलाया।
नादिरशाह की मृत्यु के बाद अब्दाली ने उसके भारतीय क्षेत्रों अर्थात सिंधु के पश्चिम के क्षेत्रों पर अपने अधिकार के दावे किए, लाहौर और मुल्तान के सूबेदार जकरियाँ खान के पुत्रों के मध्य संघर्ष और छोटे भाई शाहबाज़ खान के विद्रोह के कारण, अब्दाली के आक्रमण की एक पृष्ठिभूमि भी तैयार हुई। 1748 में उसने भारत पर आक्रमण किया, लाहौर पर अधिकार कर वह सरहिंद की तरफ बढ़ा, लेकिन मानुपुर में मुग़ल फौजों ने उसे वापस लौट जाने के लिए विवश कर दिया। वह इस हार को भूल नहीं पाया और 1752 फिर से भारत पर आक्रमण कर मुल्तान और लाहौर पर कब्ज़ा कर लिया और मीर मन्नू को सूबेदार स्वीकार कर वह लौट गया। इस घटना के बाद नया वजीर इमाद-उल-मुल्क चौकन्ना हो गया और उसने मराठों से संधि करना श्रेयस्कर समझा। 12 अप्रैल 1752 मुग़लों और पेशवा के प्रतिनिधि के तौर पर होल्कर और सिंधिया के मध्य एक समझौता हुआ। इस संधि के अनुसार पेशवा ने बाह्य आक्रमणकारियों अफगानी, ईरानी इत्यादि और आंतरिक शत्रुओं जैसे राजपूतों और जाटों से मुग़ल साम्राज्य की रक्षा का वचन दिया। पेशवा द्वारा आपातकाल में स्वयं उपस्थित न होने की स्थिति में अन्य मराठा सरदारों के रहने का वचन दिया गया। मुग़ल बादशाह ने भी मराठों को इस रक्षा के बदले 50 लाख रूपये और पेशवा को आगरा और अजमेर की सूबेदारी देने का वचन दिया। 23 अप्रैल 1752 को मुग़ल बादशाह द्वारा इस संधि की पुष्टि की गई। इन राजनैतिक स्थितियों ने भविष्य में मराठों और अफगानों के मध्य टकराव को अवश्यंभावी बना दिया। जिसका आखिरी निर्णय पानीपत के तीसरे युद्ध के साथ हुआ।
इधर पंजाब के सूबेदार मीर मन्नू की 3 नवंबर 1753 को मृत्यु हो जाने के बाद वहां अव्यवस्था फ़ैल गई। इस परिस्थिति में तत्कालीन मुग़ल वजीर फिरोज जंग शहाबुद्दीन ने पंजाब पर कब्ज़ा करने का निश्चय किया। 1755 में दोआब के सूबेदार अदीना बेग को साथ लेकर वजीर ने पंजाब पर अधिकार कर अदीना बेग को वहां का सूबेदार नियुक्त कर दिया और मीर मन्नू की विधवा स्त्री मुगलानी बेगम और अल्पायु लड़की उम्दा बेगम को लेकर दिल्ली आ गया। चूंकि मीर मन्नू को अहमदशाह अब्दाली का भी समर्थन प्राप्त था। इसीलिए उसकी स्त्री ने मुग़ल हरम की पादशाह बेगम मलिका जमानी और रुहेला सरदार नजीबुद्दौला के साथ मिलकर 1756 में एक पत्र लिखकर अफगान बादशाह अहमद शाह से सहायता की याचना की।
सम्भवतः टकराव से बचने के लिए अब्दाली ने 1756 को एक दूत कलंदर खां को मामला सुलझाने के लिए भेजा, लेकिन मुग़ल वजीर ने इस ओर ध्यान नहीं दिया, परिणामस्वरूप अब्दाली ने लाहौर पर अधिकार कर लिया और वजीर को दण्डित करने के दिल्ली की ओर बढ़ा। जनवरी 1757 में अफगानी फौजों ने दिल्ली और मथुरा में भारी लूटपाट और नरसंहार किए और रुहेला सरदार नजीब को वजीर नियुक्त कर दिया। जब पूना में पेशवा बालाजी बाजीराव को अफगानों के इस अभियान का पता चला तो उसने संधि अनुसार अपने भाई रघुनाथ राव को उत्तर अभियान पर भेजा। जब तक राघोबा उत्तरभारत पहुँचता अब्दाली अपने बेटे तैमूरशाह को पंजाब का सूबेदार बना अफगानिस्तान लौट गया। 1758 मार्च से जुलाई के बीच में राघोबा के नेतृत्व में मराठों ने सरहिंद, लाहौर और सिंधु नदी के पार अटक पर अधिकार कर लिया। तैमूरशाह भागने में सफल रहा। रघुनाथराव ने लाहौर के सूबेदार अदीना बेग को, पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया। अदीना बेग ने भी बदले में पेशवा को 75 लाख वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया। इसके अलावा पेशवा के आदेशानुसार रघुनाथराव ने, दत्ताजी शिंदे को इन क्षेत्रों का प्रभार देकर जल्दबाजी में पूना वापस लौट गया।
दत्ताजी भी पंजाब में नहीं रहना चाहता था, इसीलिए उसने पेशवा से इसके लिए अनुमति प्राप्त कर ली थी अपनी जगह सबाजी शिंदे को अटक में तैनात कर खुद दोआब में रहेगा। उसका मुख्य उद्देश्य वजीर नजीबुद्दौला का दमन करना और दोआब से ज्यादा से ज्यादा कर वसूलना था। रघुनाथराव के इस अभियान से मराठों को यश तो मिला, लेकिन जिसकी उन्हें सर्वाधिक जरूरत थी धन, वह प्राप्त नहीं हुआ, ऊपर से 80 लाख का कर्ज भी साम्राज्य पर हो गया, पेशवा को ज्यादा से ज्यादा धन की आवश्यकता थी, इसीलिए उन्होंने दत्ताजी शिंदे को उत्तरभारत में प्रमुख नियुक्त करवाया था, इससे पहले मल्हारराव होल्कर उत्तर में मराठों के सर्वेसर्वा थे।
इधर सूबेदार नियुक्त होने के कुछ माह बाद ही अदीना बेग की आकस्मिक मृत्यु हो गई, उसके मृत्यु के बाद अव्यवस्था फ़ैल गई, परिणामस्वरूप अफगानों ने रोहतास के किले पर अपना अधिकार जमा लिया, अदीना बेग की मृत्यु की खबर, मराठों को मालवा में मिली, सबाजी पाटिल के नेतृत्व में मराठे पंजाब गए, दिल्ली की मुग़ल टुकड़ियों और स्थानीय सिख सरदारों के साथ मिलकर सबाजी ने लाहौर, पेशावर इत्यादि पर अधिकार कर अपनी चौकी लगा दी। इन ख़बरों को सुनकर अहमद शाह अब्दाली हिंदुस्तान की तरफ तेजी से बढ़ा। इधर दत्ताजी ने कर वसूलने को लेकर बादशाह और दिल्ली की जनता को अत्यधिक त्रस्त किया, उसने दिल्ली के कई व्यापारियों को भी लूटा। नजीबुद्दौला के रुहेलखंड से भी उसने भारी जुर्माना वसूला, दत्ता जी शिंदे के इस व्यवहार से मुग़ल सम्राट काफी खफा था, इधर नजीब भी अब आर या पार की लड़ाई चाहता था।
अहमद शाह अब्दाली अब्दाली 1759 के मध्य में अर्थात जुलाई अगस्त में भारत के लिए बढ़ा, उसने अटक, पेशावर, मुल्तान, रोहतास और सरहिंद इत्यादि को मराठों से छीनता हुआ आगे बढ़ा, उसके आगे बढ़ने की खबर सुनकर दत्ताजी शिंदे भी तेजी से पंजाब की ओर बढ़ा, इसके अलावा वजीर इमाद-उल-मुल्क भी आगे बढ़ा दोनों सेनाएं तरोरी में मिली, मुगलों और मराठों की संयुक्त सेना और अफगान सेना का युद्ध हुआ। जहाँ मराठों को हार का सामना करना पड़ा। जिसके बाद दत्ता जी पीछे हट गए और वजीर को दिल्ली की सुरक्षा का प्रबंध करने के लिए, लेकिन ऐन वक़्त पर वजीर ने मराठों का साथ छोड़ दिया। अफगानों और मराठों का एक और टकराव दिल्ली के निकट बुराड़ी में हुआ, जिसमें मराठों को बड़ी भारी शिकस्त खानी पड़ी, मराठा सरदार दत्ताजी शिंदे भी इसी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। जबकि मल्हारराव होल्कर और जनकोजी शिंदे पराजित होकर पीछे लौट गए।अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली पहुंचकर नजीबुद्दौला को वजीर नियुक्त किया, कई रुहेला सरदारों से मिला और कुंजपुरा के क़िले में अपनी सेना को छोड़ वह दोआब की तरफ चला गया।
इधर पूना में जब पेशवा को जब दत्ताजी जी के मृत्यु और वहाँ के हालातों का पता चला, पिछली बार जब पेशवा के भाई, रघुनाथराव ने उत्तर अभियान किया था, तब पेशवाई पर बहुत कर्ज हो गया था, इसीलिए पेशवा ने रघुनाथराव की जगह अपने चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में एक सेना अफगानों के विरुद्ध भेजने की योजना बनाई, हालांकि पेशवा का बेटा विश्वासराव इस अभियान का नेतृत्वकर्ता बना, लेकिन वास्तविक नायक तो सदाशिव भाऊ था। सदाशिव भाऊ ने कुछ समय पहले ही उदगिर की लड़ाई में निज़ाम की सेना को शिकस्त दिया था। इसी अभियान में उसे इब्राहीमखान गार्दी मिला, जो फ्रेंच सेना में कार्य कर चुका था, और तोपखाने इत्यादि की यूरोपियन तकनीकी से परिचित था। भाऊ 14 मार्च 1760 को उत्तरभारत की तरफ बढ़े। उनके साथ पेशवा के हुज़ूरात दल के लगभग 10 हजार सैनिक थे, 12 हजार सैनिक सरदारों के साथ, यूरोपियन ढंग से प्रशिक्षित लगभग 8 हजार सैनिक इब्राहिम गार्दी के साथ, और लगभग 20 हजार अनियमित सैनिक थे।चूंकि सेना के साथ चलना सुरक्षित होता था, इसीलिए बहुत से तीर्थयात्री भी उनके साथ हो लिए, इनमें मराठा सैनिकों के स्त्री-बच्चे इत्यादि भी थे। पेशवा परिवार की स्त्रियां भी इस अभियान में इसीलिए आईं थीं, उनके साथ उनके नौकर, चाकर और दासियाँ भी थीं। जहाँ सैनिकों की संख्या केवल 45 हजार थी, वहीं उनके साथ चलने वाले लगभग 50 हजार आश्रित लोग थे। कुल मिलकर बहुत बड़ा कुनबा था, यह दल बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था, इन्होने लगभग एक महीने में नर्मदा नदी पार की थी। मराठों के पास पैसे की दिक्क्त थी, इस अभियान का अनुमानित खर्च लगभग बीस लाख रूपये था, लेकिन मराठों के पास केवल छःलाख रुपए थे, 6 लाख रूपये भी पूरे नहीं दिए गए थे, 2 लाख नगद और बाकि के चार लाख उज्जैन और इंदौर के व्यापारियों से हुंडियों के रूप में प्राप्त थे, हुंडी एक तरह से वचन पत्र की तरह थे, एक तरह के आज के बैंकों के अनुबंध रूप की तरह। बाकी के खर्च का इंतजाम उत्तर से उनके सरदारों को करना था, जिसमें गोविंदपंत बुंदेले प्रमुख था जो बुंदेलखंड और इटावा इत्यादि क्षेत्रों में सक्रिय था। सदाशिव भाऊ ने गोविंदपंत को पत्र लिखकर यह निर्देशित किया था वह दोआब से ज्यादा से ज्यादा धन वसूले, अवध के नवाब शुजाउद्दौला से मैत्री करने का प्रयास करे, उसे वजीर बनाने का लालच भी दे। उत्तरभारत से बुंदेला और दूसरे राजपूत सैनिकों की नई भर्ती करे। हालांकि गोविंदपंत हर दफा धन की कमी का हवाला देता था। भाऊ ने बुंदेलखंड के राजा हिंदूपत तथा जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बूंदी और कोटा के राजपूत राजाओं को पत्र लिखकर समर्थन भी माँगा। पेशवा के आदेश से लगभग सभी मराठा सरदार इस अभियान पर गए थे, इनमें से प्रमुख थे बलवंतराव, गणपत मेंदेले, शमशेर बहादुर, नरो शंकर, विट्ठल शिवदेव और त्रिंबक सदाशिव पुरंदरे जबकि मल्हारराव होल्कर, जनकोजी सिंधिया, दमाजी गायकवाड़, जसवंतराव पंवार, अप्पाजी अतोले, अंताजी मानकेश्वर रास्ते में मिले थे।
14 मार्च को चला यह दल 25 मार्च को सिंदखेड़ पहुंचा, 4 अप्रैल को इसने ताप्ती नदी पार की और लगभग एक महीने बाद एक दल 12 अप्रैल को नर्मदा नदी पार की। ये बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे अनुमानतः 8 से 10 किलोमीटर ये प्रतिदिन चला करते थे। 6 मई को ये मालवा के सिरोंज पहुंचे, यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उनके पास खाने-पीने की कमी हो गई, इसीलिए मराठा सैनिक बीच-बीच में लूटपाट भी किया करते थे। ये 30 मई को ग्वालियर पहुंचे और धौलपुर से 16 किलोमीटर नीचे के ओर स्थित चंबल और सहायक नदी को उन्होंने 8 जून को पार किया, यह दल यहाँ लगभग एक महीने रहा, यह भरतपुर के जाट राजा सूरजमल का क्षेत्र थे, सूरजमल ने मराठों को सहयोग का वचन दिया था जिसके कारण मराठा दल की सभी जरूरतें भी पूरी की गईं, पास में मराठों मुचुकुंद नाम के पवित्र स्थल पर स्नान भी किया।
मराठों का यह दल दिल्ली की तरफ बढ़ रहा था, इधर अब्दाली और अफगान अनूपशहर में थे, भरतपुर के जाट राजा सूरजमल के अतिरिक्त मराठे किसी भी राजपूताना के राजा का सहयोग लेने में असमर्थ रहे। जबकि अहमदशाह अब्दाली अवध के नवाब शुजाउद्दौला को इस्लाम का हवाला देकर अपनी तरफ मिलाने में सफल रहा। रुहेलखंड के रुहेला सरदार पहले से उसके साथ थे, अब हो यह गया मराठा जहाँ दिल्ली की तरफ बढ़ रहे हैं और अफगान दोआब में हैं। राजा सूरजमल ने भाऊ को सलाह दी, स्त्रियों-बच्चों और भारी सामान को झाँसी-ग्वालियर में छोड़ दिया जाए फिर आगे बढ़ा जाए। लेकिन भाउ ने इस सलाह को अस्वीकार कर दिया। मराठा दल के साथ भाऊ, राजा सूरजमल, इमाद-उल-मुल्क, मल्हारराव होल्कर और जनकोजी शिंदे के साथ 14 जुलाई को आगरा पहुंचा। बरसात का मौसम था, और यमुना नदी पूरी उफान पर थी, उसकी योजना गोविंदपंत से मुलाक़ात के लिए थी, लेकिन ऐसे संभव था नहीं इसीलिए मराठे यमुना के उत्तर की तरफ ऊपर की ओर बढ़ने लगे। बरसात का मौसम था, और यमुना नदी पूरी उफान पर थी, उसकी योजना गोविंदपंत से मुलाक़ात के लिए थी, लेकिन ऐसे संभव था नहीं इसीलिए मराठे यमुना के उत्तर की तरफ ऊपर की ओर बढ़ने लगे। अर्थात दिल्ली उनका लक्ष्य था, 22 जुलाई को मराठों ने दिल्ली के बाहर अपना डेरा लगाया और 1 अगस्त को दिल्ली नगर और क़िले पर अधिकार कर लिया।
चूंकि अब स्थिति ऐसी आ गई थी, मराठे उत्तर की तरफ थे, उन्होंने अफगानों का रास्ता रोक रखा है और, और अफगानों ने मराठों के दक्षिण का रास्ता रोक रखा है। इस स्थिति में युद्ध अब आवश्यवम्भावी था। मराठों ने अवध के नवाब शुजा के माध्यम से संधि का प्रयास भी किया गया। लेकिन नजीब की वजह से यह सफल नहीं हुआ।
मराठों को पानीपत में बहुत मुश्किलों को सामना करना पड़ रहा था। उनके पास खाने की कमी थी, उस समय इस क्षेत्र में अकाल भी चल रहे थे, अनाज बहुत महंगा था, घोड़ों के लिए चारे भी ढंग से नहीं मिल रहे थे, जानवरों के मरने के कारण उनके कैंप में हैजा भी फ़ैल रहा था, भूख-प्यास और बिमारी से लड़ रहे मराठों के लिए अब बहुत जरूरी था, वह इस क्षेत्र से निकले, लेकिन उनका मार्ग अवरुद्ध कर रखा था अब्दाली ने। यानि मराठों के लिए अब करो या मारो की स्थिति थी। संधि प्रयास के विफलताओं के बाद मराठों ने जंग में जूझने का फैसला किया।
14 जनवरी 1761 को सुबह मराठे युद्ध के निकले, शुरुआत के कुछ घंटों तक मराठे अफगानों पर भारी पड़ रहे थे, लेकिन मराठा सरदारों की रणनैतिक भूलों और अपने भतीजे विश्वासराव की मृत्यु से बौखलाए भाऊ अपनी हाथी से उतर घोड़े पर सवार हो गए, अपने सेनानायक को हाथी पर ना देख मराठा सेना में भगदड़ मच गई। अफगानों ने मराठा सेना को लगभग 20 मील तक खदेड़ा, इतिहासकारों के अनुसार उस दिन पानीपत में भीषण नरसंहार हुआ, स्त्रियों-बच्चों और वृद्धों को भी नहीं बक्शा गया।
अहमदशाह अब्दाली भी जल्दी से भारत से निकलना चाहता था, उसने पेशवा को एक पत्र लिखकर उनके भाई और पुत्र के निधन पर खेद प्रकट किया, युद्ध के लिए भाउ को जिम्मेदार बताया, मुग़ल बादशाह को पहले की ही तरह मराठों द्वारा संरक्षण दिया जाये और सिंधु नदी को दोनों साम्राज्यों की सीमा मान ली जाए। उसने जयपुर के राजा सवाई माधोसिंह को लिखे गए एक पत्र में मराठों की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
मराठों के पराजय के कारण –
पानीपत में मराठों की हार के कई कारण इतिहासकार द्वारों बताए जाते हैं, लेकिन उनमें सर्वप्रमुख कारण है मराठों द्वारा उत्तर में अपने लिए कोई सहयोगी ना बना पाना। राजपूत, सिख और जाट सब की अपनी-अपनी राजनैतिक मजबूरियां थी। पेशवा बाजीराव ने अपने समय उत्तर के राजपूत राजाओं से बड़े अच्छे संबंध बना कर रखे थें, लेकिन बाद में मल्हार राव होल्कर उत्तर में पेशवा का प्रतिनिधि बना, उसने मुग़ल बादशाह और वजीरों से तो बड़े बेहतर संबंध बनाए थे, लेकिन राजपूत और जाट राजाओं के विरुध्द उसने सख्ती की नीति अपना रखी थी, जिस वक़्त अफगान बार-बार भारत पर आक्रमण कर रहे थे, मल्हारराव होल्कर जयपुर और जोधपुर के विरुद्ध अपनी शक्ति और ऊर्जा नष्ट कर रहे थे,1757-1758 उत्तरभारत अभियान पर आए पेशवा के भाई रघुनाथराव ने उसकी जगह दत्ता जी शिंदे को प्रमुखता दी, दत्ताजी मुग़ल बादशाह और वजीर नजीब के प्रति बहुत सख्त था। नजीबुद्दौला के रुहेलखंड से कर वसूलने को लेकर उसने रुहेलखंड पर बहुत आक्रमण किए, इसी तरह उसने दिल्ली में बादशाह को भी त्रस्त किया।
बादशाह जो अभी तक मराठों के पक्ष में था, अब मराठों के विरुद्ध हो गया, नजीब अब आर-पार की लड़ाई चाहता था, इसीलिए उसने अपने धुर प्रतिद्वंदी अवध के नवाब शुजाउद्दौला से भी संबंध सुधारने की पहल की। अवध का नवाब उत्तरभारत में उस समय सर्वाधिक शक्ति संपन्न था, रुहेलों से उसके संबंध भी सही नहीं थे, मराठों से उसके संबंध उसके वालिद सफदरजंग के समय से बहुत बढ़िया था, इसीलिए उसकी माँ चाहती थी वह मराठों का सहयोग करे, और सबसे बड़ी बात वह शिया मुस्लिम था। अगर वह मराठों का सक्रिय सहयोग ना भी करता, तो वह अफगानों के पक्ष में भी नहीं होता, लेकिन अहमद शाह अब्दाली ने उसे इस्लाम की दुहाई दे अपनी तरफ मिला लिया।
मराठों के पास धन की कमी भी थी, जब सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में, मराठादल उत्तर की तरफ चला, तो उनके पास महज 20 लाख रूपये थे, जबकि जरुरत उन्हें 60 लाख रुपये की थी। मराठों के साथ उनका परिवार भी उत्तर आया था, सदाशिव भाऊ की पत्नी पार्वतीबाई उनमें प्रमुख था, यह दल उत्तर में तीर्थयात्रा करने के लिए आया था, उनके साथ उनके नौकर-चाकर, और दासियाँ भी थीं, तीर्थयात्रियों के अलावा छोटे छोटे व्यापारी भी साथ थे, हुआ यह की मराठा सेना को इनके दाना-पानी और और सुरक्षा का प्रबंध भी करना था।
चूंकि युद्ध के पहले स्थिति ऐसी बनी थी, की मराठे पंजाब की तरफ और अफगान दिल्ली की तरफ, मराठों ने अफगानों का रास्ता ब्लॉक कर रखा था और और अफगानों ने मराठों का, लेकिन यहाँ दिक्कत क्या हो गई, मराठों को अनाज और खाने-पीने की दिक्कतें हो गईं, क्योंकि उनको आपूर्ति नहीं हो रही थी, पूर्व में दिल्ली और रुहेलखंड था जहाँ अब्दाली और उसकी सेना थी, यहाँ से कुछ भी मिलना संभव ही नहीं था, इसी प्रयास में गोविंदपंत बुंदेले नाम का एक मराठा सरदार अफगानों के हाथों मारा गया। जबकि अब्दाली की सेनाओं को इन्हीं क्षेत्रों से आपूर्ति हो रही थी, कोई भी सेना भूखे पेट तो लड़ नहीं सकती थी, मराठों का जो भी खाद्यान रिज़र्व था जाहिर है वह पहली प्राथमिकता स्त्री-बच्चों को ही देंगे, इसीलिए मराठा सेना केवल शत्रुओं से नहीं भूख से भी लड़ रही थी।
इसके अलावा मराठे चूंकि अपने परिवार को भी साथ लाए थे, इसीलिए उनकी सुरक्षा के लिए भी सेना को छोड़ना पड़ा, इसीलिए मैदान पर लड़ने वाली मराठा सेना संख्या में भी कम थी। 18वीं शताब्दी के एक फ़ारसी ग्रंथ सियार-उल-मुतखारिन के अनुसार अफगान सेना ने हजारों स्त्री और बच्चों को पकड़ कर गुलाम बनाया था, आप अंदाज़ा लगा सकते हैं, संख्या कितनी रही होगी, यह मराठों की सबसे बड़ी भूल थी।
मराठा सरदारों में एकता नहीं थी, रणनीति बनाने को लेकर भी उनमें साम्य नहीं था, अब्दाली ने रुहेलों को इब्राहिम खान गार्दी के दल के ऊपर आक्रमण करने का आदेश दिया, क्योंकि उनके गोला-बारूद इत्यादि लगभग ख़त्म हो चुके थे, उनको कवर देने के लिए भाऊ ने विट्ठल विंचूरकर और दमाजी गायकवाड़ को भेजा, यहाँ इन मराठा सेनानियों ने होश से नहीं बल्कि जोश से काम लिया, वह गार्दियों को कवर देने की जगह खुद रुहेलाओं से भिड़ गए, यह मराठा दल तलवार से युद्ध करने वाला था, जबकि रुहेलाओं के पास बंदूकें थीं, उन्होंने इस आते हुए मराठादल को दूर से ही अपनी बंदूकों से निशाना बनाया और ढेर कर दिया, दूसरी तरफ रक्षाविहीन हो चुके गार्दियों पर शाहवली खान के नेतृत्व में जोरदार हमला किया। कुछ इतिहासकारों ने मल्हारराव होल्कर की भूमिका पर भी सवाल उठाए हैं, इस जंग की सबसे बड़ी वजह था रुहेला सरदार नज़ीब, एकबार तो अवध के नवाब के प्रयासों से अफगानों और मराठों में संधि लगभग हो ही चुकी थी, लेकिन नजीब के कारण यह संभव नहीं हो सका। नजीब मल्हारराव होल्कर को अपने पिता सदृश्य कहता था, मल्हारराव होल्कर समेत कई मराठा सरदार मैदान से भाग भी गए थे। कई इतिहासकार मानते हैं अफगान सेनाओं से कई बार हार चुके इन मराठा सरदारों का मनोबल भी टूटा हुआ था।
इस युद्ध में मराठों के नायक थे पेशवा के चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ, उन्हें उत्तर के अभियानों का कोई भी अनुभव नहीं था, वह यहाँ के राजनीति और भूगोल से कुछ खास परिचित नहीं थे, इसीलिए उन्होंने कई रणनीतिक भूलें की, उन्होंने अनुभवी मराठा सरदारों की जगह इब्राहिम खान गार्दी के यूरोपियन ढंग से लैस तोपखाने पर ज्यादा भरोसा किया, लेकिन अब्दाली के पास शुतरनाल अर्थात छोटी तोपें थे, जिन्हें ऊंट पर भी रख कर चलाया जा सकता था, ये शुतरनाल मराठों के लिए कुछ अत्यधिक ही घातक साबित हुए। पेशवा का पुत्र विश्वासराव हाथी पर बैठ कर युद्ध कर रहा था, तभी एक गोली उसके सर पर लगी और विश्वासराव जमीन पर गया, अपने भतीजे के ऐसे हालत देखकर सदाशिव भाऊ विचलित होकर अपने होश खो बैठा, वह भी हाथी से उतर कर घोड़े में बैठकर युद्ध करने लगा, अपने सेनानायक को हाथी पर ना देखकर मराठा सेना में भगदड़ मच गई, अभी तक जो सेना अफगानो पर 21 साबित हो रही थी वह भागने लगी, घोड़े पर बैठे सदाशिव भाउ को अफगानों ने घेर कर मार डाला।
कई इतिहासकारों सर्दी को भी एक वजह माना है, चूंकि मराठे इतनी ठंड से न परिचित था और ना ही अभ्यस्त थे, जबकि अफगान सर्द इलाकों से ही थे, इसीलिए उनकी तैयारी भी उस हिसाब से थी।
जो भी यह युद्ध भारतीय इतिहास के सबसे घातक युद्धों में से एक था, जब एक दिन में ही इतने लोगों की मृत्यु हुई, उत्तर की तरफ बढ़ रहे पेशवा को मालवा में नर्मदा के किनारे इस युद्ध और विनाश की सूचना एक पत्र द्वारा मिली, जिसमें लिखा था दो मुहरें खो गईं, 27 सोने की मुहरें लुप्त हो गईं और चांदी और तांबे की कोई गिनती ही नहीं है। दो मोती सदाशिव भाऊ और विश्वासराव थे, 27 सोने की मुहरें अर्थात बड़े मराठा सरदार थे और सैनिकों की कोई गिनती ही नहीं थी। इस खबर से पेशवा कभी उबर ही नहीं पाए, कहते हैं मराठों में शायद ही कोई घर ऐसा रहा होगा जिससे कोई न को कोई इस युद्ध में न गया हो।
इस युद्ध से यह तय हो गया था, मराठे अब देश पर शासन नहीं करेंगे, हालांकि कुछ वर्षों बाद उन्होंने पेशवा माधवराव और महादजी शिंदे के नेतृत्व में फिर से अपनी राजनैतिक महत्ता प्राप्त कर ली। लेकिन अटक से कटक तक शासन करने का उनका सपना अधूरा ही रहा। अफगान भी सिखों से संघर्ष में उलझ गए थे। लेकिन इस युद्ध ने भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के लिए एक मार्ग प्रशस्त कर दिया। जैसा कि इतिहास में हम देखते हैं आगे चलकर उसने सम्पूर्ण भारत शासन किया।