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ठुमरी की रानी, शोभा गुर्टू

न्याज़िया बेग़म \”रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे, मोहे मारे नजरिया संवारिया रे” यह गीत तो आपने सुना ही होगा, यह गीत राग पहाड़ी संगीत में सजी हुई एक ठुमरी है, जब भी ठुमरी का ज़िक्र होता है तो सबसे पहले एक आवाज़ जो कानों में रस घोलती हुई याद आती है, वो है ठुमरी की रानी कही जाने वाली शोभा गुर्टू की, जिन्होंने उस वक्त अपनी गायन शैली का लोहा मनवाया, जब औरतों का घर से बाहर निकलना मुश्किल था, फिर पहचान बनाना तो बड़े दूर की बात थी, जी हां हम बात कर रहे हैं शोभा गुर्टू जी की जिन्होंने उप शास्त्रीय संगीत में ठुमरी को एक अलग पहचान दिलाई।
कर्नाटक में जन्मीं शोभा जी का मूल नाम भानुमति शिरोडकर था, उन्हें बचपन से संगीत से बड़ा लगाव था, वो इस लिए भी कि मां मेनकाबाई शिरोडकर एक नृत्यांगना थीं, और जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्ला दिया खान से संगीत भी सीखती थीं, और नन्हीं शोभा इन सुर लहरियों को सुनकर आनंदित होती रहती थीं, फिर कब वो खिलौनों से खेलने की बजाय स्वरों से खेलने लगीं पता ही नहीं चला, मां ने जब उनके सीखने की ललक और हुनर को परखा तो उन्होंने भी शोभा को सीखने में कोई कसर नहीं छोड़ी।


जब वो बड़ी हुई तो उनकी शादी एक कश्मीरी पंडित विश्वनाथ गुर्टू से हुई, जिनके परिवार में भी संगीत का माहौल था, वो ऐसे कि विश्वनाथ जी के पिता पंडित नारायणनाथ पेशे से तो पुलिस अधिकारी थे, लेकिन संगीत के ज्ञाता और सितारवादक भी थे, इसलिए ससुराल आकर भी उनकी संगीत की तालीम जारी रही, और बाद में उन्होंने उस्ताद अल्ला दिया खां साहब के बेटे भुर्जी खान से संगीत सीखा, इसके अलावा उनकी मां के गुरु उस्ताद घम्मन खां, जो उनकी मां के साथ, बचपन में शोभा को भी उनकी मनभायी ठुमरी सिखा देते थे, वो उनके घर पर ही रहकर उन्हें शास्त्रीय संगीत पे पारंगत करने लगे थे।
संगीत के प्रति उनकी लगन ऐसी थी कि वो हर शैली को बड़ी बारीकी और निपुणता से गाती थीं, जैसे- दादरा, कजरी, होरी
पर ठुमरी की तो बात ही अलग थी क्योंकि वो उसे केवल गाती नहीं थी, उनका चेहरा, हाव भाव रेखांकित करता था, तो आंखें अनकहे बोलों को समझा देती थीं, ये एक सुरीला अभिनय था इसलिए उन्हें गाते हुए देखना संगीत प्रेमियों के लिए एक ऐसा आकर्षण, ऐसा रोमांच पैदा करता था जिसकी डोर में बंधे संगीत प्रेमी खींचे चले आते, पर वो खुद उस्ताद बड़े गुलाम अली खां से मुतासिर थीं।


स्टेज प्रोग्राम के बाद आई फिल्मों की बारी और शोभा जी ने मराठी और हिंदी सिनेमा के लिए कई बेशकीमती गीत गाए
इसकी शुरुआत हुई कमाल अमरोही की 1972 की फिल्म पाकीज़ा के गीत,” बंधन बांधों ..”से, फिर आई फागुन जिसमें आपका गाया गीत था ” मेरे सैयां बेदर्दी बन गए कोई जाओ मनाओ ..”, एक गीत और प्यारा सा याद आ रहा है फिल्म ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ जिसके बोल थे, “सैयां रूठ गए ..” इस गीत के लिए उन्होंने फिल्म फेयर में सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका का पुरस्कार भी जीता था।

अपने गायन में अभिनय अंग की प्रधानता लिए उन्होंने संगीत रसिकों को कई सौगा़तें दी हैं, जो आज भी हमारी जुबां पर रवाँ हैं, जिसमें उनका मेंहदी हसन के साथ आया एल्बम “तर्ज़” खूब पसंद किया गया था, और भी कई संगीत पुरोधाओं के साथ उन्होंने गाया।अपना पूरा जीवन संगीत को समर्पित करके वो एक मिसाल बन गईं। उन्हें 1978 में संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार मिला तो सन 2002 में पद्मभूषण से नवाज़ा गया इसके अलावा महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार और लता मंगेशकर पुरस्कार भी हासिल किया।

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