एक ओंकार जिसका अर्थ है ईश्वर एक ही है.अद्वैत वेदांत भी नॉन डुअलिटी की बात करता है.सूफी संतों ने भी हर तरह की संकीर्णता और धार्मिक कट्टरता को नकारते हुए ईश्वर के साथ एकात्म की बात कही है.एक ओंकार, सिख धर्म के मूल दर्शन का प्रतीक है.सिख धर्म के संस्थापक थे.गुरु नानक देव जी.गुरु नानक जी ने जिस धर्म की स्थापना की उसमे जात पात,धार्मिक संकीर्णता और हर तरह के भेदभाव को नकार कर ईश्वर की भक्ति का अनुसरण किया गया है.इसमें निर्गुण ईश्वर की उपासना निहित है।इसी सिख धर्म के पांचवे गुरु और पहले शहीद सिख थे,गुरु अर्जन देव जिन्होंने मरते दम तक अपने धर्म को न त्यागने का फैसला लिया और उसके लिए यातनाओं की पराकाष्ठा को भी पार किया।कैसे सत्य समर्पण और शांत धर्म मजबूर हुआ शस्त्र उठाने को,राजनीती,सत्ता,सत्ता के लोभ,धोखे और इन सब में हर रूप में सत्य को समर्पित एक अजेय कहानी सुनाने जा रहे हैं हम आपको। कहानी है गुरु अर्जन देव की..
गुरु अर्जन देव का जन्म 15 अप्रैल,1563 को आज के पंजाब में हुआ था.इन्होंने सिख धर्म के पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहब के पहले संस्करण का संकलन किया था.इसमें देश भर के कई हिन्दू,मुस्लिम और सिख सम्प्रदाय के संतों की वाणियां थीं.इसमें कबीर साहब जैसे संत भी शामिल थे.गुरु अर्जन देव अपने शांत व्यक्तित्व के लिए जाने जाते थे.इन्होने हरमंदर साहिब जिसे गोल्डन टेम्पल कहते हैं उसका निर्माण करवाया था.ये चौथे सिख गुरु, गुरु रामदास के बेटे थे.गुरु रामदास ने अमृतसर शहर बसाया था.अर्जन देव इनके सबसे छोटे बेटे थे.दो और बेटे थे महादेव और सबसे बड़ा बेटा पृथ्वी चंद.पृथ्वी चंद ईर्ष्यालु था और उसे गद्दी का लालच था.लेकिन सिखों में गुरु की ये गद्दी कोई राजसी ठाट बाट का प्रतीक नहीं थी,इसकी जिम्मेदारियां अलग थीं और काम बेहद ऊंचा।गुरु रामदास इस बात को भांप गए थे और इसलिए गुरु अर्जन देव को इन्होने गद्दी की जिम्मेदारी सौंपी।लेकिन पृथ्वी चंद ईर्ष्या की आग में जल रहा था और इस सब में वो इतना गिर गया कि उसने गुरु अर्जन देव के बेटे को मरवाने तक के प्रयास किये। इधर इन सब के बीच मुग़लिया शासन में भी उथल पुथल चल रही थी. गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित गुरु ग्रन्थ साहिब को लेकर अकबर के कान भरे गए,मामला बढ़ा तो निपटारे के लिए अकबर ने खुद इस टेक्स्ट को पढ़ा और पहला पन्ना पढ़ते ही अकबर ने सर्रेंडर कर दिया।वो इसका कायल हो गया। वो अर्जन देव से कई बार मिले भी थे.अकबर की धर्म के प्रति उदारवादी निति और कुशल शासन की क्षमताओं ने एक सामंजस्य की स्थिति बना कर रखी थी लेकिन ये सब ढहने वाला था.षड्यंत्र रचने वाले पाँव पसार रहे थे और ये पाँव गद्दी की ओर कदम बढ़ा रहे थे.बस जरुरत थी एक कमज़ोर कड़ी की और वो भी हुआ.साल था 1605.अकबर की लम्बी बीमारी से मौत हो गयी.अकबर के बाद गद्दी पर बैठा जहांगीर या सलीम।दरअसल,अकबर के तीन बेटे थे सलीम, दानियाल और शाह मुराद लेकिन अकबर की तीनों संतानें अय्याश निकलीं।अफीम के नशे से लेकर हर तरह के भोग विलास ने दानियाल और शाह मुराद की जान ले ली,बचा सलीम।इन सब के बीच नीव पड़ रही थी दो बड़े बदलावों की.सिख धर्म के सौम्य और सहज रूप से शस्त्रीकरण और उधर मुग़लिया सल्तनत के अंत की.अंत और आंरभ की इस कहानी में और भी बहुत सी कहानियां हैं,और भी बहुत सी घटनाएं हैं.
अकबर अपनी मौत के वक्त इस उधेड़बुन में था कि अपना उत्तराधिकारी किसे चुना जाये,वो भलीभांति सलीम के चरित्र से परिचित था,यहीं से एक और नाम सामने आता है.ख़ुसरो मिर्ज़ा ख़ुसरो मिर्ज़ा जहांगीर और उसकी पहली पत्नी शाह बेगम का सबसे बड़ा बेटा था और जहांगीर के अय्याश रवैये से बेहद ख़फ़ा रहता था.अकबर के दरबार में उसकी एक अच्छी जगह थी.अकबर ने बातों ही बातों में कई बार अपने बाद ख़ुसरो को गद्दी पर बैठाने की बात भी कही थी.ख़ुसरो कई बार अकबर के साथ गुरु अर्जन देव से मिला भी था,लेकिन छल से अकबर की मरणासन हालत में सलीम को गद्दी देने की स्वीकृति ले ली गई और अकबर के बाद गद्दी पर बैठा सलीम,कान का कच्चा,चरित्रहीन और अय्याश।
खुसरो जहांगीर का विरोध कर गया और लाहौर में युद्ध के लिए गया,जाते वक्त को गुरु अर्जन देव से मिला।कहते हैं कि जब खुसरो की अर्जन देव से मुलाकात हुई तब अर्जन देव ने सहानुभूति दिखाते हुई खुसरो के माथे पर केसरी टीका लगा दिया था.इधर जहांगीर नै खुसरो से लड़ने के लिए दिलावर खान को भेजा था.लड़ाई हुई खुसरो की हार हुई उसके बाद खुसरो की आँखों को तारों की मदद से फोड़ दिया गया ताकि वो गद्दी पर नज़र न डाले और उसे कालकोठरी में बंद कर दिया गया.यहीं से कई लोगों ने जहांगीर के कान भरे गुरु अर्जन देव के विरुद्ध।उनकी और खुसरो की मुलाकात को लेकर।बात और भी ज्यादा इसलिए बढ़ी क्योंकि उस वक्त सिख धर्म तेज़ी से पाँव पसार रहा था,उसकी उदारवादी नीतियों को लेकर कई मुस्लिम और यहाँ तक कि हिन्दुओं ने भी उसका अनुसरण करना शुरू कर दिया था.अर्जन देव ने अपने बनवाये मंदिर में चार द्वार बनवाए थे.जिसका सन्देश ये था कि कोई भी,किसी भी धर्म,जाति और बिरादरी का हो अपनी इच्छानुसार आ सकता है,सबके लिए लंगर लगते थे.समभाव की भावना थी.ये सब जहांगीर से बर्दाश्त नहीं हुआ. उसने अर्जन देव को गिरफ्तार कर लिया और असीमित प्रताड़नाएं दी गईं.इस्लाम क़ुबूल करने का दबाव बनाया गया.
इन सब के बाद भी अर्जन देव टस से मस नहीं हुए.कहते हैं अंत में जब सारी यातनाओं के बाद उनका शरीर पूरी तरह से चोटिल हो गया उन्होंने रावी नदी में समाधी ले ली. इसके बाद सिख सम्प्रदाय में बदलाव हुए.गुरु हरगोबिंद सिंह ने मुग़लों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ शस्त्र उठा लिया और दसवें गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की. गुरु नानक के 554वें प्रकाश पर्व में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक गुरूद्वारे के कार्यक्रम में कहा था कि जब बड़े बड़े शासकों ने मुग़ल साम्राज्य के आगे घुटने टेक दिए थे तब सिख गुरुओं ने धर्म और देश की रक्षा अपने स्तर पर की थी.उन्होंने ये भी कहा था कोई भी देश जिसमे लड़ने का जज़्बा है उसकी संस्कृति को मिटाना असंभव है.
image-Sutej Pannu
नानक नाम जहाज है, चढ़ै सो उतरे पार, जो श्रद्धा कर सेंवदे, गुर पार उतारणहार’