Aakhri Khat Film Ki Kahani Hindi Mein: न्याज़िया बेगम: ख़तों का सिलसिला वैसे भी बड़ा आस और उम्मीदों भरा होता है और वो ख़त अगर आखिरी हो तो सोचिए उससे कितनी उम्मीदें कितनी आरज़ूएं जुड़ी होंगी फिर कहने को तो ये भी कह सकते हैं कि “तेरी ख़बर न थी तो ख़ैरियत की तसल्ली थी, जब से हाल जाना है बेक़रार हो गए हैं।”
आज हम आपके लिए लाए हैं मोहब्बत, दर्द, मां की ममता और बाप की शफ़क़त का क़िस्सा बयां करती फिल्म “आखिरी ख़त” जिसे अपनी बेहतरीन अदाकारी से रौशन किया है- राजेश खन्ना, इंद्राणी मुखर्जी और छोटे से बच्चे मास्टर बंटी ने इनके अलावा मानवेंद्र चिटनिस, नकी जेहान और मोहन चोटी ने भी।
कलाकारों के जबरजस्त अभिनय से सजी फिल्म
राजेश खन्ना की तो ये पहली ही फिल्म थी जिसमें उन्होंने 23 साल की उम्र में काम किया हालांकि 1966 के बाद वो बहारों के सपने और राज़ जैसी हिट फिल्मों में भी लगातार नज़र आए। इंद्राणी अपने चेहरे की मासूमियत के साथ लाजो के किरदार में दर्शकों को खूब भाईं और मास्टर बंटी के क्या कहने इनकी मासूम अदाओं ने तो सबका दिल ही लूट लिया। क्योंकि फिल्म में ज्यादा कमाल इन्होंने ही किया है कैसे? तो आइए एक नज़र डालते हैं कहानी पर जो शुरू होती है, पागलों सी भटकती हुई लाजो की बदहाली के साथ, जिसमें मां का आंचल थामे प्यारे से बच्चे बंटू की भोली सी मुस्कान ने खुशी भर दी है। ये फिल्म अपनी शुरुआत से ही हमें मजबूर कर देती है फटे पुराने कपड़े पहने मां के साफ सुथरे बच्चे को देखने के लिए, क्योंकि बीच बीच में नायिका की आंखों में फ्लैश बैक की कहानी दिखाई जाती है।
आखिरी खत फिल्म की कहानी
जिसमें नायक यानी गोविंद पढ़ाई के दौरान हुई छुट्टियों में कुल्लू की हसीन वादियों में जाता है और लाजो से मिलता है। गोविंद एक मूर्तिकार भी है इसलिए लाजो के मनमोहक रूप से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता, वो लाजो की मूरत अपने दिल में बसा लेता है। लाजो भी जल्द ही उसकी भावनाओं को समझ जाती है और उसके प्रेम की क़द्र करते हुए अपने कुल देवता के मंदिर ले जाती है जहां दोनों अपने प्रेम को व्यक्त करते हुए विवाह बंधन में बंध जाते हैं। दिलों की रीत निभाते हैं पर इस विवाह की मान्यता में ज़माने की मोहर लगना बाक़ी थी। तभी गोविंद की छुट्टियां खत्म हो जाती हैं जिसके बाद वो लाजो को अपना पता देता है और फिर मिलने आने का वादा करके शहर लौट आता है। लेकिन दोनों के प्यार की निशानी जब लाजो के जिस्म में आई तो उसकी सौतेली मां ने उसका जीना मुश्किल कर दिया और एक सेठ से शादी करा दी। जिसके बाद लाजो सेठ के पास से भाग आई कई ख़त लिखे गोविंद को पर उसने जवाब नहीं दिया, तो वो गोविंद के पास शहर पहुंच गई उसको ये ख़बर देने कि उनके प्यार की अनमोल निशानी है उसके पास है पर गोविंद ने भी उसे किसी और की ब्याहता समझ कर पराया समझ लिया।
तो वो लौट आई फिर एक ख़त छोड़कर, यहां एक साथी होती है गोविंद के साथ जो उसे लाजो की बातों का यक़ीन दिलाती है, एक औरत होने के नाते उसकी पैरवी करती है। जिसके बाद गोविंद उसकी तलाश में निकलता है लेकिन वो कहीं नहीं मिली ख़ैर लाजो की गोद में जब प्यार सा बेटा आता है तो वो उसे बंटू बुलाती है कुछ दिन उसे अपने कलेजे से लगा के रखती है। उसकी मुस्कुराहट में दुनिया भूल जाती है। फिर उसे एहसास होता है कि अब वो ज़्यादा ज़िंदा नहीं रह पाएगी तो गोविंद के दरवाज़े पर बंटू को लेकर खत के साथ उसे छोड़ने के लिए पहुंचती है, खत तो लेटर बॉक्स में डाल देती है पर बंटू मां के जाते हुए क़दमों की आहट से यूं रोया कि लाजो ये भी भूल गई कि अब उसकी सांसें कम बची हैं और वो उसे फिर अपने साथ गलियों में भटकने के लिए ले आई। इधर गोविंद को आख़री ख़त मिला जिसमें लिखा था, आख़री बार लिख रही हूं फिर नहीं लिखूंगी क्योंकि मुझे वही दौरे पड़ते हैं जिससे मेरी मां की मौत हुई थी, अब मैं नहीं बचूंगी अपने बच्चे को अपना लो, नए कपड़े भी उसे पहना के लाई हूं ताकि तुम्हें शर्मिंदगी न हो, मेरा यक़ीन करो मैं सिर्फ तुम्हारी थी और तुम्हारी ही रहूंगी। ये पढ़कर गोविंद उसकी तलाश में अब पुलिस का साथ लेकर निकल पड़ा हालांकि उसके पास लाजो की तस्वीर भी नहीं थी। लेकिन उसने लाजो और अपने खुशनुमा साथ की दास्तां कहती लाज में सिमटी लाजो की एक ऐसी मूरत बना रखी थी, जिसको उसने दुनिया से भी छुपा रखा था पर उसी की फोटो खींच कर पुलिस ने मां और बच्चे की खोजबीन शुरू की, और जल्द ही पुलिस को लाजो की चौराहे पर पड़ी लावारिस लाश के बारे में पता चल गया और गोविंद ने लाजो को पहचान भी लिया। अब बच्चे की तलाश ज़ोर शोर से शुरू हुई लेकिन कहीं उसका सुराग नहीं लग रहा था जहां खबर मिलती वो वहां से नन्हें क़दमों से आगे निकल जाता है, अपनी मां को पुकारता हुआ मानों मां ने उसे ज़िम्मा दे दिया था अपने पिता को खुद ढूंढने का, इस बात को कहते हुए फिल्म में लता मंगेशकर की गाई बहुत प्यारी लोरी भी है ….”मेरे चंदा मेरे नन्हे”।
इस मार्मिक दृश्य में मां का लाडला बंटू कभी सुनसान राहों में डरता है, रोता बिलखता है कभी भूख से तड़पता है। बेहोश हो जाता है तो कभी अपनी मां को याद करके खुश होता है ये सीन हमें रुला देने के लिए काफी है। आखिर कार बंटू को इन राहों में भटकते हुए सुबह-सुबह दरवाज़े पर रखी दूध की बोतल दिखती है जिसे देखकर वो खुश हो जाता है और मम्मा दुद्दू करता हुए घर के अंदर चला जाता है। जहां उसे उसकी मां की मूरत मिलती है जिसके आंचल की छांव तले वो खूब खेलता है, मां को प्यार करता है और अपने बेटे को लाख ढूंढने के बाद थक हार कर सामने बैठा गोविंद अपने उसी बेटे को अपने ही हाथों गढ़ी लाजो की मूरत की गोदी में खेलता देख आंसुओं से भीग जाता है। ये नज़ारा देख आंसुओं के बीच गोविंद की साथी दोस्त भी मुस्कुराती है और इंस्पेक्टर साहब भी कि अब उनकी तलाश खत्म हुई। बच्चे ने अपने पिता को आख़िरकार ढूंढ ही लिया।
चेतन आनंद ने बनाई थी फिल्म
ये मर्म स्पर्शी फिल्म बनाई है चेतन आनंद ने उन्होंने 15 महीने के मास्टर बंटी के अच्छे अच्छे शॉट लेने के लिए उन्हें शहर में यूं छोड़ा कि इस नन्हें से बच्चे को भी ये महसूस नहीं हुआ कि कोई उसके पीछे कैमरा लेके दौड़ रहा है चेतन जी की ये मेहनत रंग लाई और बच्चे का स्वाभाविक तौर पर हंसना रोना, गिरना, जानवरों को देखकर खुश होना, यहां तक कि किसी दुकानदार से खुद कुछ सामान मांगना हमें बहुत भावुक कर गया। शहर की चकाचौंध और शोर के बीच इस बच्चे पर हमारी नज़रों का ठहरना, इतने शोर में उस बच्चे की आवाज़ सुनाई देना इस बात का सबूत है कि ये फिल्म एक यादगार फिल्म के रूप में अपनी छवि बनाने में सफल होती है।
कई भाषाओं में बनी थी फिल्म
जाल मिस्त्री के सिनेमाई निर्देशन में फिल्म को 1967 में 40वें अकादमी पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए भारतीय प्रविष्टि के रूप में चुना गया था, हालांकि ये नामांकित नहीं हो पाई। इस फ़िल्म को तमिल में 1979 में शिवकुमार और सुजाता अभिनीत पून्थलिर के नाम से 1981 में तेलुगु में चिन्नारी चिट्टी बाबू के नाम से और 1974 में तुर्की में गरिप कुस के नाम से बनाया गया था।
फिल्म का संगीत
साउंडट्रैक की बात करें तो दिलनशीं नग़्में लिखे हैं कैफ़ी आज़मी ने और उन्हें दिलकश धुनों में ढाला है खय्याम ने। इन गानों को अपने अपने मुख्तलिफ अंदाज़ में गाकर सदाबहार बनाया है “और कुछ देर ठहर “को आवाज़ देकर मोहम्मद रफी ने। “बहारों मेरा जीवन भी संवारो” और वो “मेरे चंदा मेरे नन्हे” को लता मंगेशकर ने, “हे मेरी जान” को मन्ना डे ने और “रुत जवान जवान रात मेहरबान” को भूपिंदर सिंह ने अपनी आवाज दी है।
राजेश खन्ना की पहली फिल्म
राजेश खन्ना का एक इंटरव्यू याद आता है जिसमें इस फिल्म को उन्होंने शुरुआती फिल्मों में यादगार फिल्म इसलिए भी बताया था कि उन्हें चेतन आनंद ने तीन दिनों तक सोने नहीं दिया था किसी से मिलने नहीं दिया था, ज़्यादा खुश नहीं होने दिया था ताकि मायूसी उनके चेहरे पे दिखाई दे सके और वो पिता का संजीदा किरदार अच्छे से निभा सकें। मास्टर बंटी के बारे में भी बताते चले कि वो फिर हमें बढ़ती उम्र के साथ कई फिल्मों में नज़र आए जैसे रूप की रानी चोरों का राजा और हम किसी से कम नहीं। तो ये थी फिल्म “आख़री ख़त” हमारी नज़र से, उम्मीद है आप भी इसे ज़रूर देखेंगे और आपके दिल में भी कुछ ऐसे ही जज़्बात अंगड़ाइयां लेंगे।