ठुमके की लोच और होंठों को मुस्कान का जोश…ठुमकती हुई ठुमरी…कहां से आई

न्याज़िया
ठुमरी। रस रंग और भाव का मिला जुला गायकी में ठुमके की लोच और होंठों को मुस्कान का जोश देता अंदाज़ है ठुमरी में ,जिसके ताने भरे चपल बोल भी मिठास का रस घोल देते हैं कानों में, ठुमरी भारतीय शास्त्रीय संगीत की ऐसी गायन शैली है जिसमें राग की शुद्धता की तुलना में भाव सौंदर्य को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है।

रागों का भी मिश्रण है ठुमरी

यूं तो ये विविध भावों को प्रकट करने वाली शैली है लेकिन इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है साथ ही ये रागों के मिश्रण की शैली भी है, जिसमें एक राग से दूसरे राग में गमन की भी छूट होती है और रंजकता तथा भावाभिव्यक्ति इसका मूल मंतव्य होता है। इसी वज़ह से इसे अर्ध-शास्त्रीय गायन के अंतर्गत रखा जाता है।

कहां से आई ठुमरी

इसकी उत्पत्ति के विषय में थोड़ा मतभेद है ,कुछ लोग कहते हैं ,ठुमरी की उत्पत्ति लखनऊ के नवाब वाज़िद अली शाह के दरबार में हुई जबकि कुछ लोगों का मानना है कि उन्होंने इसे मात्र प्रश्रय दिया और उनके दरबार में ठुमरी गायन नई ऊँचाइयों तक पहुँचा क्योंकि वे खुद अख्तर पियाश् के नाम से ठुमरियों की रचना करते और गाते थे। यह हम वाजिद अली शाह की एक खास बात बताते चलें कि वे अपने दरबार में ठुमरी को कत्थक नृत्य के साथ प्रस्तुत करते थे और उन्होंने कई बेहतरीन ठुमरियों की रचना की, जिनमें ष्बाबुल मोरा नैहर छूटा जाएष् सबसे प्रसिद्ध हुई ।

रचना के आधार पर प्रस्तुति

ठुमरी को मूलतः ब्रज शैली की रचना माना जाता है और इसकी अदाकारी के आधार पर पुनः पूरबी अंग की ठुमरी और पंजाबी अंग की ठुमरी में बाँटा जाता है, हालांकि पूरबी अंग की ठुमरी के भी दो रूप, लखनऊ और बनारस की ठुमरी के रूप में प्रचलित हैं।

बंदिश का प्रारूप

ठुमरी की बंदिश छोटी होती है और श्रृंगार रस प्रधान होती है। भक्ति भाव से अनुस्यूत ठुमरियों में भी बहुधा राधा-कृष्ण के प्रेमाख्यान से विषय उठाये जाते हैं। ठुमरी में प्रयुक्त होने वाले राग भी चपल प्रवृत्ति के होते हैं जैसेरू खमाज, भैरवी, तिलक कामोद, तिलंग, पीलू, काफी, झिंझोटी, जोगिया इत्यादि।

तालों का चलन और आज़ादी

ठुमरी सामान्यतः छोटी लम्बाई वाले यानी कम मात्रा वाले तालों में गाई जाती हैं जिनमें कहरवा, दादरा, और झपताल प्रमुख हैं। इसके आलावा दीपचंदी और झपताल का ठुमरी में काफ़ी प्रचलन है। राग की तरह ही इस विधा में एक ताल से दूसरे ताल में जाने की छूट भी होती है।

आज ठुमरी की स्थिति

गाने में इतना आनंद देने वाली ठुमरी की तरफ अब लोगों की रुचि कम होने लगी है,शायद इसलिए कि इसे उपशास्त्रीय के अंतर्गत रखा जाता है ,और गायक शास्त्रीय संगीत को बहुत कठिन मानते हुए इससे और इससे जुड़ी शैली से दूर रहना पसंद करते हैं। बनारस के जाने-माने ठुमरी गायक पं॰ छन्नूलाल मिश्र की मानें तो अब ठुमरी गाने वाले कम हो गए हैं और बनारस घराने की गायकी की इस विधा को सीखने-सिखाने का दौर मंद पड़ गया है।

अब नए रूप में ढल रही है ठुमरी

ठुमरी को भी नए वाद्यों के साथ मिलाकर नया रूप देने की कोशिश की जा रही है जिसमें प्रयोग के तौर कुछ लोग ठुमरी को पश्चिमी संगीत के साथ जोड़ कर ठुमरी के पारंपरिक वाद्यों, तबला, हारमोनियम, सारंगी और ढोलक के अलावा इसमें ड्रम्स, वॉयलिन, की-बोर्ड और गिटार के साथ अफ्रीकी ड्रम जेम्बे, चीनी बांसुरी और ऑर्गेनिक की-बोर्ड पियानिका का इस्तेमाल भी कर रहे हैं और इसे फिर लोकप्रिय बनाने के भरपूर प्रयास हो रहे हैं ।

क्या है ठुमरी की खासियत

इसकी पहली खूबी है, ठुमरी काव्य रसिकों को बहुत भाती है क्योंकि ये भाव प्रधान तथा चपल चाल वाला गीत है। इसमें शब्द कम होते हैं,किन्तु शब्दों को हाव-भाव द्वारा प्रदर्शित करके गीत का अर्थ प्रकट किया जाता है। जिससे गायक और श्रोता दोनों को आनंद की अनुभूति होती है। दूसरा है ये संगीत प्रेमियों के दिल में उतर जाती है ,शब्दों के अर्थ भी आसानी से समझ में आ जाते हैं क्योंकि इसकी गति अति द्रुत नही होतीताल भी जाने पहचाने से होते हैं जैसे – दीपचन्दी अथवा जात्तताल और पंजाबी त्रिताल ।

चंचल प्रवृत्ति के राग आकर्षण उत्पन्न करते हैं

जोशीले रागों का चयन ठुमरी को आकर्षक बनाता है ,जैसे – खमाज, देश, तिलक कमोद, तिलंग, पीलू , काफी , भैरवी, झिंझोटी तथा जोगिया आदि ।

प्रेम की सशक्त अनुभूति है इसमें

ठुमरी श्रृंगार रस प्रधान गायकी है, जिसमें श्रृंगार रस के संयोग व वियोग दोंनो पक्षों को ,बोल बनाव की गायकी के ज़रिए बखूबी प्रस्तुत किया जाता है जो बहुत मार्मिक हो जाता है और अपनी रौ में बहा ले जाने का माद्दा रखता है। तो आप भी आज आनंद के देखिए ,कुछ बेमिसाल ठुमरी गायकों की ठुमरी का और बह जाइए आनंद के सागर में ,हमरी अटारिया पे आओ सवारियां….रंगी सारी गुलाबी चुनरिया हो मोहे मरे नजरिया सांवरिया हो …।

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