दीवानावार मोहब्बत का अरमान

meena

Hindi Kahani: मैंने उनसे इज़हार ए मोहब्बत न किया था न उन्होंने मुझसे पर हमारी शादी घरवालों की मर्ज़ी से हो गई ,फिर भी मुझे इंतज़ार था कि वो कभी तो मुझसे मोहब्बत करेंगे और इज़हार भी, हर दफा जब उन्होंने मेरी तारीफ की तो मुझे लगा कि अब कई तकल्लुफ़ की गिरहें खुल जाएंगी और वो मुझसे दीवाना वार इश्क़ की डोर से बंध जाएंगे पर जाने क्यों उनका ये बेज़ुबान इश्क़ एहतराम के आगे न बढ़ सका और मै इंतज़ार ,बस इंतज़ार करती रही। बस यही एक ग़म था मेरी ज़िंदगी में इसके अलावा उन्होंने मुझे कोई ग़म न दिया था ,हर काम मेरी मर्ज़ी मेरी पसंद से करते ,दर ओ दीवार पर रंग रोग़न भी मेरी ही पसंद से करवाते, खाना भी मेरी मर्ज़ी का खाते ,मै कोई भी फरमाइश कर लूँ कभी उफ़्फ़ न करते और हाँ कभी मुझपर भी हक़ न जताते ,सारी दुनिया कहती कितना अच्छा शौहर मिला है तुझे नसीबा ,तू तो सच में नसीब वाली है, मै भी मुस्कुराके हामी भर देती पर दिल में एक ख़लिश कसक बन के उभर आती कि काश वो बस इतना समझ पाते कि मै क्या चाहती हूँ, तो शायद मै सच में नसीब वाली होती हालाँकि मैंने भी कभी नाफरमानी नहीं कि उनकी हर बात ख़ामोशी से मानती आयी ,अपनी मोहब्बत को उनकी तरह इज़्ज़त और एहतराम का गिलाफ भी पहना दिया लेकिन ये चाहत न गई के उनके साथ चंद लम्हे बेतकल्लुफ़ी के मिल जाएँ हर दायरा भूलके जी भर के उनसे बात कर लूँ, खूब हँस लूँ ,झूम लूँ उनकी मोहब्बत की आग़ोश में।

पर वो दिन न आया दो बरस बीत गए और मेरी गोद में उनके एहतराम ए इश्क़ की निशानी, हमारी बेटी खिलखिलाई ,मैं उसकी किलकारी में सारे ग़म भूल जाना चाहती थी पर भूल न सकी क्योंकि इस बेपनाह मोहब्बत में भी पाबंदियां थीं वक़्त की ,परवरिश के दायरे थे ,नईम साहब को डर था कि कहीं मै उसे बद्तमीज़ या अपने जैसे चंचल न बना दूँ जो कभी मै थी ,इसलिए उसकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उसकी धाय माँ को दे दी गई मै तब भी ख़ामोश रही , मै भी नईम साहब की तरह मसरूफ रहना चाहती थी इसलिए मुलाज़िमों के होते हुए भी घर के थोड़े बहोत काम देख लेती थी ,थोड़ी बहोत कशीदाकारी भी कर लेती पर दिल न बहलता तो अपनी डायरी लिखने बैठ जाती ,धीरे -धीरे वक़्त गुज़रता गया और मै बूढी होने चली और मेरी लख्ते जिगर मेरे जीने की वजह मेरी बेटी ज़ीनत बड़ी हो गई और उसकी शादी के पैग़ाम आने लगे मैंने ज़ीनत को पूरी आज़ादी दी, अपना हमसफ़र चुनने के लिए ताकि उसे मेरे और नईम जैसे , मुख़्तलिफ़ सोच का दर्द न झेलना पड़े और ख़ुदा ने मेरी ये दुआ क़ुबूल कर ली। मुझे बिलकुल मेरी बेटी के मिज़ाज से मेल खाता ही दामाद मिला। दोनों शादी के बाद बहोत खुश थे खुलके एक दुसरे से बात करते हँसते मुस्कुराते और रूठते मनाते भी। कुछ दिनों बाद वो विदेश में ही सेटल हो गए और मै फिर तन्हाइयों से खेलने लगी, मेरी हवेली मेरे लिए वो जेल थी जहाँ मै उम्र क़ैद की सज़ा भुगत रही थी और इस जेल के जेलर थे नईम साहब जिनके सामने मै अपना अच्छा व्यवहार दिखाकर अपनी सज़ा काम करा सकती थी लेकिन ऐसा भी न हो सका क्योंकि मेरा जेलर जज़्बातों को नहीं सिर्फ क़ानून को समझता था। उसे ही तवज्जो देता था ख़ैर मैंने अपनी कहानी का अंजाम अपने ही हाँथों से लिख लिया ये सोचकर कि आज जब नईम साहब घर लौटेंगे तो मै उनकी तीमारदारी में दरवाज़े पे नहीं खड़ी रहूंगी शायद तब वो मेरी कुछ ख़बर लें, मुझे आवाज़ दें और कहें “बेगम साहिबा ,मेरे घर की मलिका कहाँ हो तुम” फिर यही पुकारते हुए मेरी ख़्वाबगाह तक आ जाएं और मेरा बेजान ठंढा पड़ा जिस्म, आज बिना मेरी इजाज़त के अपनी बाँहों में उठाकर ज़ार-ज़ार रोएं , और मै खुदा से कहूं कि अगर ऐसी आरज़ू मरने के बाद ही पूरी होती है तो ये मौत मुझे बार – बार आए।

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