रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है….. FT. न्याज़िया बेगम

रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है
ये कूचा मेरा जाना पहचाना है
क्या जाने क्यूं उड़ गए पंक्षी पेड़ों से
भरी बहारों में गुलशन वीराना है
ये अशआर हैं मशहूर मौसिकार नौशाद के जिन्हें पढ़कर ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उन्हें अपने शहर लखनऊ से कितनी मोहब्बत थी , और ये शेर यूं ही उनकी कलम से नहीं निकले बल्कि वो एक अज़ीम शायर थे उनका दीवान ‘आठवां सुर’ नाम से प्रकाशित हुआ जो काफी मकबूल भी हुआ,इसके सभी गाने नौशाद द्वारा रचित थे और हरिहरन और प्रीति उत्तम सिंह द्वारा गाए गए थे
पर मौसिकी हो या शायरी दोनों में वो इस बात की मिसाल बन गए कि गुणवता संख्याबल से ज़्यादा भारी होती है यानी क्वालिटी इज ग्रेटर देन क्वांटिटी।
एक स्वतंत्र संगीत निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म 1940 में प्रेम नगर थी लेकिन उनके संगीत को यादगार बनाने वाली फिल्म हम 1944 को रुपहले पर्दे पर आई रतन को कह सकते हैं, जिसके बाद उनके संगीत से सजी 35 रजत जयंती हिट, 12 स्वर्ण जयंती और 3 हीरक जयंती मानने वाली मेगा हिट फिल्में आईं।

नौशाद को हिंदी फिल्म उद्योग में उनके योगदान के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार और पद्म भूषण से सम्मानित किया गया इसके अलावा भी कई अन्य पुरस्कार आपके नाम रहे।
नौशाद अली का जन्म दिसंबर 1919 को भारतीय मुस्लिम संस्कृति के केंद्र वाले,तहज़ीब-ओ-अदब के शहर लखनऊ में हुआ। उनके पिता, वाहिद अली, अदालत में क्लर्क थे। बचपन से ही नौशाद लखनऊ से 25 किमी दूर बाराबंकी के देवा शरीफ में वार्षिक मेले में जाते थे , जहाँ उस दौर के सभी महान कव्वाल और संगीतकार अपनी कला के प्रदर्शन के लिए आते थे जिससे नौशाद साहब को उस्ताद घुर्बत अली, उस्ताद यूसुफ अली, उस्ताद बब्बन साहब के अलावा कुछ और उस्तादों से मौसिकी की तालीम हासिल करने का मौका मिल गया ,उन्होंने हारमोनियम की मरम्मत भी की।
इसके बाद बतौर मौसिकी उस्ताद वो
एक जूनियर थिएटर क्लब में शामिल हो गए और हर शाम को जब शो शुरू होता था तो वे स्क्रीन के सामने बैठ जाते थे और दृश्यों के लिए संगीत बजाते थे उनके लिए ये मनोरंजन करने और साथ ही संगीत सीखने का एक शानदार तरीका था।

जिसने उनकी फिल्म की पृष्ठभूमि पर संगीत की रचना के लिए आवश्यक बारीकियों को समझने में मदद की।
समय के साथ नौशाद ने अपना खुद का विंडसर म्यूजिक एंटरटेनर्स बनाया, यह नाम इसलिए रखा क्योंकि उन्होंने लखनऊ के आसपास “विंडसर” शब्द देखा था इसमें उन्होंने लड्डन खान से भी संगीत सीखा और पंजाब , राजस्थान , गुजरात और सौराष्ट्र में कंपनी के प्रवास के दौरान वहां की लोक परंपरा से दुर्लभ संगीत रत्न चुनने की समझ भी विकसित की पर जल्द ही उन्हें नाटकीय रंगमंच और संगीत वाद्ययंत्र बेचने के बाद भी गरीबी का सामना करना पड़ा और कंपनी टूट कर धीरे-धीरे लखनऊ वापस आ गई।


नौशाद मूक युग में ही सिनेमा के प्रशंसक बन चुके थे और फिर 1931 में जब भारतीय सिनेमा को आवाज और संगीत मिला ,तो इसने 13 साल के लड़के को और अधिक आकर्षित किया। उन्होंने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध शास्त्रीय और लोक संगीत सीखा। वह संगीतकार के रूप में करियर के लिए 1937 के अंत में मुंबई चले गए।
जहां ब्रॉडवे थिएटर के सामने दादर में , वो फुटपाथ पे भी सोए। फिर उन्हे 40 रुपये के मासिक वेतन पर संगीत निर्देशक उस्ताद झंडे खान के सहायक का काम मिला , जो उन दिनों अपनी सफलता के शिखर पर थे,
इसके कुछ वक्त बाद चेंबूर स्थित स्टूडियो में एक रूसी निर्माता के साथ एक फिल्म में पियानो वादक का काम किया पर यहां भी बात न बनी , आख़िर कार संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने उन्हें 60 रुपये प्रति माह के वेतन पर रंजीत स्टूडियो में फिल्म कंचन में अपने सहायक के रूप में काम दिया , जिसके लिए नौशाद बेहद आभारी रहे और साक्षात्कारों में उन्होंने खेमचंद को अपना गुरु भी कहा ।


उनके मित्र, गीतकार डीएन मधोक ने संगीत रचना में नौशाद की असामान्य प्रतिभा पर भरोसा किया और उन्हें विभिन्न फिल्म निर्माताओं से मिलवाया।
उन्होंने 1940 में अपनी पहली स्वतंत्र फिल्म प्रेम नगर के लिए रचना की , जिसकी कहानी कच्छ पर आधारित थी , जिसके लिए उन्होंने क्षेत्र के लोक संगीत पर काफी शोध किया। एआर कारदार की फिल्म नई दुनिया (1942) से उन्हें “संगीत निर्देशक” के रूप में पहला श्रेय मिला और उन्होंने कई जगह काम करते हुए कारदार प्रोडक्शंस के लिए नियमित रूप से काम करना शुरू कर दिया जिसमें पहली बार उन्हें एआर कारदार की फिल्म ‘ शारदा ‘ (1942) से देखा गया, जिसमें 13 वर्षीय सुरैया ने नायिका मेहताब के लिए पार्श्वगायन के लिए “पंछी जा” गीत से शुरुआत की ।
पर जिसने नौशाद को शीर्ष पर पहुंचा दिया और उन दिनों उन्हें प्रति फिल्म 25,000 रुपये चार्ज करने में सक्षम बनाया वो फिल्म थी सन 1944 की रतन ।


नौशाद साहब का संगीत इतना ज़बरदस्त हिट हुआ कि कंपनी ने पहले साल में ग्रामोफोन की बिक्री से रॉयल्टी के रूप में 3 लाख रुपये कमाए।
लेकिन उनका लखनऊ स्थित परिवार संगीत के ख़िलाफ़ रहा और नौशाद को अपने परिवार से यह बात छुपानी पड़ी कि वो संगीत रचना करते हैं। जब नौशाद की शादी हुई तो एक तरफ बैंड पर नौशाद की फिल्म ‘रतन’ के सुपरहिट गानों की धुनें बज रही थीं और दूसरी तरफ नौशाद के पिता और ससुर उस संगीतकार पर ज़माने भर की लानतें भेज रहे थे,” बेड़ा ग़र्क हो उस संगीतकार का जिसने ऐसा वाहियात गाना बनाया है और तरह-तरह की लखनवी गालियों से नवाज़ रहे थे”, ये सब देखकर नौशाद ने उन्हें यह बताने की हिम्मत नहीं की कि वो संगीतकार वही हैं।
नौशाद कई संस्कृतियों और उनकी भाषाओं को समझते थे।


1942 से 1960 के दशक के अंत तक, वह हिंदी फिल्मों के शीर्ष संगीत निर्देशकों में से एक थे हालांकि अपने जीवनकाल में उन्होंने 65 फ़िल्में ही कीं।
मदर इंडिया (1957), जिसके लिए उन्होंने संगीत तैयार किया था, पहली भारतीय फिल्म थी जिसे ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था ।
उन्होंने 86 वर्ष की उम्र में ताज महल: एन इटरनल लव स्टोरी (2005) की धुनें तैयार की को संगीत प्रेमियों के लिए एक सौगात है, ये अलग बात है कि फिल्म नहीं चली।
1988 की मलयालम फिल्म ध्वनि के लिए नौशाद द्वारा रचित गाने, जिन्हें पी. सुशीला और केजे येसुदास ने गाया था,ऐसे सदाबहार सुपरहिट साबित हुए कि 3 दशकों के बाद भी लोग उन्हें पसंद करते हैं।
उनके जीवन और काम पर पांच कृतियां बन चुकी हैं, प्रकाशित जीवनी संबंधी पुस्तकें शशिकांत किनिकर द्वारा लिखित दास्तान-ए-नौशाद (मराठी) हैं; आज गावत मन मेरो (गुजराती); शमा और सुषमा पत्रिकाओं में रही”नौशाद की कहानी, नौशाद की ज़ुबानी” शीर्षक से हिंदी और उर्दू जीवनी रेखाचित्र; हैं ,अंतिम का मराठी में अनुवाद शशिकांत किनिकर ने किया था। किनिकर ने “नोट्स ऑफ नौशाद” नामक एक किताब भी लिखी, जिसमें नौशाद के जीवन के कुछ दिलचस्प किस्सों को एक साथ रखा गया है।
नौशाद ने 1988 में प्रसारित टीवी धारावाहिक “अकबर द ग्रेट” के लिए पृष्ठभूमि संगीत भी तैयार किया को काफी पसंद किया गया।


नौशाद ने अपनी धुनों को शास्त्रीय संगीत रागों और लोक संगीत पर आधारित करके लोकप्रिय फिल्म संगीत को एक नया चलन दिया। भैरवी उनका पसंदीदा राग रहा नौशाद फिल्मी गीतों के लिए शास्त्रीय संगीत परंपरा के कुशल अनुकूलन के लिए जाने जाते थे। सभी समकालीन गायकों में नौशाद अली ने मोहम्मद रफ़ी को कई गाने दिये। नौशाद अली के अधिकांश लोकप्रिय गीत मोहम्मद रफी द्वारा गाए गए हैं। बैजू बावरा जैसी कुछ फिल्मों के लिए , उन्होंने शास्त्रीय राग विधाओं में संगीत तैयार किए । नौशाद शहनाई, मैंडोलिन और अकॉर्डियन सहित पश्चिमी वाद्ययंत्रों के साथ आसानी से काम कर सकते थे। वो इतने माहिर थे कि पश्चिमी शैली के ऑर्केस्ट्रा के लिए रचना कर सकते थे।
1940 के दशक की शुरुआत में, आधी रात के बाद शांत पार्कों और बगीचों में रिकॉर्डिंग की जाती थी क्योंकि स्टूडियो में ध्वनि-रोधी रिकॉर्डिंग कक्ष नहीं होते थे। बगीचों में, स्टूडियो के विपरीत, जहां टिन की छतों के कारण ध्वनि गूंजती थी ।’ उड़न खटोला’ और ‘अमर’ जैसी फिल्मों के लिए, उन्होंने आवाज़ को 90 के पैमाने पर रिकॉर्ड किया, फिर इसे 70 पर रिकॉर्ड किया, फिर 50 पर और इसी तरह। पूरी रिकॉर्डिंग के बाद, इसे सीन के लिए चलाया गया और इससे जो प्रभाव पैदा हुआ, वह जबरदस्त था।
वो पार्श्व गायन में ध्वनि मिश्रण और आवाज और संगीत ट्रैक की अलग-अलग रिकॉर्डिंग शुरू करने वाले लोगों में से एक थे। वह बांसुरी और शहनाई, सितार और मैंडोलिन को संयोजित करने वाले भी पहले व्यक्ति थे। उन्होंने हिंदी फिल्म संगीत में अकॉर्डियन की भी शुरुआत की और संगीत के माध्यम से पात्रों के मूड और संवाद को बढ़ाने के लिए पृष्ठभूमि संगीत पर ध्यान केंद्रित करने वाले पहले लोगों में से एक थे। लेकिन शायद उनका सबसे बड़ा योगदान भारतीय शास्त्रीय संगीत को फिल्म माध्यम में लाना था । उनकी कई रचनाएँ रागों से प्रेरित थीं और उन्होंने बैजू बावरा (1952) में अमीर खान और डीवी पलुस्कर और मुगल-ए-आज़म (1960) में बड़े गुलाम अली खान जैसे प्रतिष्ठित शास्त्रीय कलाकारों को भी लाने का श्रेय जाता है। बैजू बावरा (1952) ने नौशाद की शास्त्रीय संगीत पर पकड़ और उसे जन-जन तक पहुंचाने की उनकी क्षमता को प्रदर्शित किया, जिसके लिए उन्होंने 1954 में पहला फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक पुरस्कार जीता ।
नौशाद ने “बैजू बावरा” के बारे में एक पूर्व-रिलीज़ बैठक में टिप्पणी की: कि फिल्म का संगीत शास्त्रीय रागों पर आधारित है जिसके बाद सबने कहा कि फिल्म शास्त्रीय संगीत और रागों से भरी होगी, तो ‘लोगों को सिरदर्द होगा और वे भाग जाएंगे।’ पर वो अडिग रहे और कहा मैं जनता का स्वाद बदलना चाहता था। लोगों को हर समय वही खिलाया जाना चाहिए जो उन्हें पसंद है?
हमने अपनी संस्कृति का ही संगीत पेश किया है,जो हमारी रगों में बसता है,” उनका ये विश्वास रंग लाया और फिल्म सफल रही अपने गीत संगीत के साथ।
और कुछ खासियत हम आपको बता दें कि
फिल्म आन (1952) के लिए , वो 100-टुकड़ों वाले ऑर्केस्ट्रा का उपयोग करने वाले पहले व्यक्ति थे। वह पहले संगीतकार थे जिन्होंने भारत में पश्चिमी संकेतन प्रणाली विकसित की यही नहीं फ़िल्म ‘आन’ के संगीत का नोटेशन लंदन में पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ।
फिल्म उड़ान खटोला (1955) में , उन्होंने ऑर्केस्ट्रा के उपयोग के बिना एक पूरा गाना रिकॉर्ड किया, जिसमें संगीत वाद्ययंत्रों की ध्वनि को गुनगुनाहट की कोरल ध्वनि से बदल दिया गया।
फिल्म मुग़ल-ए-आज़म (1960) के गीत ऐ मोहब्बत जिंदाबाद के लिए , उन्होंने 100 व्यक्तियों के कोरस का उपयोग किया तो फिल्म गंगा जमुना (1961) के लिए , क्षेत्रीय बोली के गीतों में लोक धुनों से प्रेरित खनकती हुई धुन का इस्तेमाल किया।
फिल्म मेरे मेहबूब (1963) के शीर्षक गीत में उन्होंने केवल छह वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया।
2004 में, क्लासिक मुग़ल-ए-आज़म (1960) का एक रंगीन संस्करण जारी किया गया था, जिसके लिए नौशाद ने आर्केस्ट्रा संगीत को विशेष रूप से आज के उद्योग संगीतकारों द्वारा (डॉल्बी डिजिटल में) फिर से बनाया था,
नौशाद के बारे में कहा जा सकता है कि तीस और चालीस के दशक में लोकप्रिय सिनेमा संगीत के शुरुआती दिनों में उन्होंने शास्त्रीय और लोक संगीत के लिए ऐसे मानक स्थापित किए जो भारत के विचार से मेल खाते थे। संक्षेप में कहें तो , उन्होंने कुछ मिनटों के एक लघु फिल्मी गीत में भारतीय संगीत की सुंदरता को सामने ला दिया जो कोई आसान उपलब्धि नहीं थी। उनके बाद आने वाले संगीतकार उनकी रचनाओं के इस पहलू से प्रेरित रहे ।
वो अपने आख़री वक्त तक मौसिकी को शिद्दत से संवारते रहे,उसको समर्पित रहे और एक वक्त वो भी आया जब अपने बेश कीमती नक्श ए क़दम छोड़कर
नौशाद 5 मई 2006 को 86 वर्ष की उम्र में इस फानी दुनियां को अलविदा कह गए।
2008: को उनकी स्मृति में बांद्रा स्थित कार्टर रोड का नाम बदलकर संगीत सम्राट नौशाद अली मार्ग कर दिया गया
नौशाद एकेडमी ऑफ हिंदुस्तानी संगीत’ का गठन किया गया जो आने वाली पीढ़ी को उनके संगीत से वाकिफ कराती रहेगी।

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