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सुपरस्टार बेताज बादशाह राज कुमार का जलवा, पर्दे के आगे और पीछे भी !

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Biography Of Great Actor Raaj Kumar :एक मुख़्तलिफ़ अंदाज़ उस पर पुर असर रौब का मिज़ाज न केवल फ़िल्मी पर्दे पर सब पर भारी पड़ता था बल्कि रियल लाइफ में भी सब उनसे डरते थे उस पर उर्दू अल्फ़ाज़ों से लबरेज़ उनका लहजा और आवाज़ कमाल करती थी लिबास की क्या बात करें सफ़ेद रंग में तो वो कहर ढाते थे चाहे वो सफेद कुरता पैजामा या जूती हो या कोट पेंट में सफ़ेद जूते ,हेयर स्टाइल भी सदा एक सी रही जी हाँ हम बात कर रहे हैं मशहूर अभिनेता राजकुमार की जिनका असली नाम तो था कुलभूषण पंडित लेकिन जब उन्होंने फिल्मों में आने का मन बनाया तो अपना नाम राज कुमार रख लिया।

फिल्मों में आए कैसे :-

8 अक्टूबर 1926 को बलूचिस्तान (पाकिस्तान) के लोरलाई में कश्मीरी पंडित परिवार में पैदा हुए राज कुमार साहब के अंदाज़ के जितने दीवाने हम आज हैं उतने ही दीवाने लोग उस वक़्त भी थे जब वो फिल्मों से नहीं जुड़े थे उनके दोस्त यार सभी उन्हें फिल्मों में जाने की सलाह देते थे लेकिन फिल्मों में दिलचस्पी होने के बावजूद भी वो सब इंस्पेक्टर बन गए ,पर उनके थाने में अक्सर फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग आ ही जाते थे कोई न कोई मसला लेकर ऐसे ही एक बार निर्देशक बलदेव दुबे आए और सुब इंस्पेक्टर कुलभूषण पंडित के हीरो वाले अंदाज़ के क़ायल हो गए ,कहने लगे सारी खूबियाँ हैं तुम्हारे पास हीरो बनने की तुम यहाँ क्या कर रहे हो और अपनी फिल्म ‘शाही बाज़ार’ में काम करने का न्योता भी दे दिया।

नौकरी छोड़ने से पड़ गए मुश्किल में :-

अपने साथियों की बात तो राज कुमार नज़र अंदाज़ कर देते थे पर डायरेक्टर बलदेव दुबे की बात न भूल सके और नौकरी से इस्तीफ़ा देकर पहुंच गए बलदेव दुबे के ऑफिस उनका ऑफर एक्सेप्ट करने पर ‘शाही बाज़ार’ को बनने में काफी समय लग गया और नौकरी भी छोड़ चुके थे इसलिए गुज़र बसर करना भी मुश्किल हो गया इसलिए वो दूसरी फिल्मों में काम तलाशने लगे और 1952 मे प्रदर्शित फ़िल्म ‘रंगीली’ में उन्हें एक छोटी सी भूमिका मिल गई ,उस वक़्त उनकी उम्र 26 साल थी ,इस लेहाज़ से उन्हें अपनी पहली फिल्म में कमाल तो दिखाना चाहिए था पर कहते हैं ये फ़िल्म सिनेमा घरों में कब लगी और कब चली गयी लोगों को पता ही नहीं चला फिर जब फ़िल्म ‘शाही बाजार’ प्रदर्शित हुई तो वो बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर गई अब जो लोग अभी तक राज कुमार साहब की हौसला अफ़ज़ाई कर रहे थे वो ही कहने लगे तुम फिल्मों के लिए नहीं बने हो ख़ैर साल 1952 से 1957 तक राजकुमार फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे और इस बीच उन्हें जो भी ऑफर मिले उन्हें वो स्वीकार करते चले गए। इस दौरान उन्होंने ‘अनमोल’ ‘सहारा’, ‘अवसर’, ‘घमंड’, ‘नीलमणि’ और ‘कृष्ण सुदामा’ जैसी कई फ़िल्मों में अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई। फिर साल 1957 में प्रदर्शित महबूब ख़ान की फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ में आपने गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका निभाई हालाँकि ये फिल्म महिला प्रधान थी इसलिए अभिनेत्री नरगिस पर केन्द्रित थी फिर भी राज कुमार अपनी छोटी सी भूमिका में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फ़िल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति भी मिली और फ़िल्म की सफलता के बाद राज कुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। साल 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘पैग़ाम’ में उनके सामने हिन्दी फ़िल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे लेकिन राज कुमार यहाँ भी अपनी सशक्त भूमिका के ज़रिये दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। इसके बाद राज कुमार ‘दिल अपना और प्रीत पराई-1960’, ‘घराना- 1961’, ‘गोदान- 1963’, ‘दिल एक मंदिर- 1964’ और ‘दूज का चांद- 1964’ जैसी फ़िल्मों में मिली कामयाबी के ज़रिये राज कुमार दर्शको के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुँच गये जहाँ वह फ़िल्म में अपनी भूमिका स्वयं चुन सकते थे फिर साल 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘काजल’ की ज़बर्दस्त कामयाबी के बाद राज कुमार बतौर अभिनेता अपनी अलग पहचान बना ली। वर्ष 1965 बी.आर.चोपड़ा की फ़िल्म ‘वक़्त’ में अपने लाजवाब अभिनय से वो एक बार फिर से अपनी ओर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे इस फिल्म में उनके बोले गए डायलॉग “चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते या फिर चिनाय सेठ ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं हाथ कट जाये तो ख़ून निकल आता है” दर्शकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुए। फ़िल्म वक़्त की कामयाबी से राज कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुँचे। राज कुमार कभी भी किसी ख़ास इमेज में नहीं बंधे हर चुनौती को स्वीकार किया और मुख़्तलिफ़ किरदारों के साथ ‘हमराज़- 1967’, ‘नीलकमल- 1968’, ‘मेरे हूजूर- 1968’, ‘हीर रांझा- 1970’ और ‘पाकीज़ा- 1971’ में रूमानी किरदार भी निभाए जो उनके रौब से मेल नहीं खाते थे इसके बावजूद भी राज कुमार अपने चाहने वालों के दिलों में जगह बनाने में कामियाब हुए आपके बेमिसाल अभिनय से सजी सुपरहिट फिल्में आईं ‘हमराज’ और ‘हीर रांझा’ .

साल 1978 में प्रदर्शित फ़िल्म कर्मयोगी में राज कुमार के अभिनय और विविधता के नए आयाम दर्शकों को देखने को मिले। इस फ़िल्म में उन्होंने दो अलग-अलग भूमिकाओं में अपने अभिनय की छाप छोड़ी। अभिनय में एकरुपता से बचने और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में भी स्थापित करने के लिए राज कुमार ने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इस क्रम में वर्ष 1980 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘बुलंदी’ में वो चरित्र भूमिका निभाने से भी नहीं हिचके और इस फ़िल्म के ज़रिए भी उन्होंने दर्शको का मन मोह लिया। इसके बाद राज कुमार ने ‘कुदरत- 1981’, ‘धर्मकांटा- 1982’, ‘शरारा- 1984’, ‘राजतिलक- 1984’, ‘एक नयी पहेली- 1984’, ‘मरते दम तक- 1987’, ‘सूर्या- 1989’, ‘जंगबाज़ – 1989’, ‘पुलिस पब्लिक- 1990’ जैसी कई सुपरहिट फ़िल्मों के ज़रिये दर्शको के दिल पर राज किया।

वर्ष 1991 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘सौदागर’ में राजकुमार के अभिनय के नए आयाम देखने को मिले। सुभाष घई की निर्मित इस फ़िल्म में राजकुमार 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘पैगाम’ के बाद दूसरी बार दिलीप कुमार के सामने थे और अभिनय की दुनिया के इन दोनों महारथियों का टकराव देखने लायक था।

कुछ दिलचस्प क़िस्से भी हैं :-

राजकुमार साहब जो दिल में आता था, वो बोल देते थे। ये सोचे बग़ैर कि सामने वाले को इसका बुरा लगेगा या नहीं। इसलिए उनसे जुड़े कई क़िस्से बॉलीवुड में बहुत मशहूर हैं। ये कितने सही हैं या ग़लत, ये तो नहीं पता , लेकिन इन्हें खूब चटखारे लेकर सुना सुनाया जाता है । तो पेश है , पहला क़िस्सा – राजकुमार और गोविंदा एक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। गोविंदा अपने नेचर के मुताबिक बड़ी चटक सी शर्ट पहने हुए राजकुमार के साथ शूटिंग खत्म होने के बाद बैठे थे तभी राजकुमार ने गोविंदा से कहा यार तुम्हारी शर्ट बहुत शानदार है। चीची इतने बड़े आर्टिस्ट की ये बात सुनकर बहुत खुश हो गए। उन्होंने कहा कि सर आपको शर्ट पसंद आ रही है तो आप रख लीजिए। राजकुमार ने गोविंदा से शर्ट ले ली। गोविंदा खुश हुए कि राजकुमार उनकी शर्ट पहनेंगे। दो दिन बाद चीची ने देखा कि राजकुमार ने उस शर्ट का एक रुमाल बनवाकर अपनी जेब में रखा हुआ है और गोविंदा हैरान रह गए।

ख़ैर चलते हैं अगले क़िस्से की तरफ जो कुछ ऐसा है कि – एक पार्टी में संगीतकार बप्पी लाहिरी ,राजकुमार से मिले। अपनी आदत के मुताबिक बप्पी ढेर सारे सोने से लदे हुए थे। बप्पी को राजकुमार ने ऊपर से नीचे देखा और फिर कहा वाह, शानदार। एक बढ़कर से एक गहने पहने हो, सिर्फ मंगलसूत्र की कमी रह गई है। बप्पी का मुंह खुला का खुला ही रह गया होगा।

अगला क़िस्सा उस वक़्त का है जब दम मारो दम गाने के बाद ज़ीनत अमान फिल्म इंडस्ट्री में बड़ी फेमस हो गई थी। फिल्म निर्माता अपनी फिल्म में ज़ीनत को साइन करने के लिए बेक़रार हो रहे थे। तभी एक पार्टी में ज़ीनत की मुलाक़ात राजकुमार साहब से हुई। ज़ीनत को लगा वो भी उनकी तारीफ करेंगे लेकिन ज़ीनत को देखते ही राजकुमार जी ने कहा कि तुम इतनी सुंदर हो, फिल्मों में कोशिश क्यों नहीं करती। ये सुनकर ज़ीनत को कैसा लगा होगा आप समझ सकते हैं।

ऐसे ही एक बार एक फिल्म रिलीज़ होने को थी और उसके बैनर में उनके नाम की स्पेलिंग में Raj Kumar लिखा गया था तो उन्होंने प्रोड्यूसर को फ़ोन किया और कहा की हम राज कुमार हैं हमारे नाम की स्पेलिंग में आर के बाद डबल ए आता है , इसके बाद उनके नाम की स्पेलिंग में राज में डबल आर लिखवाया गया यानी Raaj Kumar . ऐसे राज कुमार थे हमारे राजकुमार साहब।

आज भी होती है उनके डायलॉग की नक़ल :-

फिल्म में उनके बोले गए संवादों में उनकी आवाज़ की खरखराहट एक अलग ही अंदाज़ देती थी उनके साफ़ सुथरे अल्फ़ाज़ों से लबरेज़ बेबाक लहजे को , जिसे कॉपी करना बेहद मुश्किल होता था। डायलॉग की बात चली है तो कुछ और मशहूर डायलॉग हम आपको याद दिला दें जिनकी आज भी नक़ल की जाती है – फिल्म वक़्त से उनका मशहूर डायलॉग था ,”चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के बने होते हैं वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते।” ,फ़िल्म ‘पाकीज़ा से आपके पैर देखे बहुत खूबसूरत हैं। इन्हें ज़मीन पर मत उतारियेगा , मैले हो जाएंगे। फ़िल्म ‘सौदागर’ में उनका डायलॉग था – “हम तुम्हें मारेंगे और ज़रूर मारेंगे। लेकिन वो वक़्त भी हमारा होगा। बंदूक भी हमारी होगी और गोली भी हमारी होगी।” दूसरा था “काश कि तुमने हमे आवाज़ दी होती तो हम मौत की नींद से भी उठकर चले आते।” फ़िल्म ‘तिरंगा’ का डायलॉग हम कैसे भूल सकते हैं “हमारी ज़ुबान भी हमारी गोली की तरह है। दुश्मन से सीधी बात करती है।”  ,”हम आंखो से सुरमा नहीं चुराते, हम आंखें ही चुरा लेते हैं। “और “हम तुम्हें वो मौत देंगे जो न तो किसी क़ानून की किताब में लिखी होगी और न ही किसी मुजरिम ने सोची होगी।” अब बात करते हैं फ़िल्म ‘मरते दम तक’  की जिसमे उनका डायलॉग था “दादा तो इस दुनिया में दो ही हैं। एक ऊपर वाला और दूसरा मैं। “और तंज़ कसता हुआ “हम कुत्तों से बात नहीं करते। ” इस फिल्म के एक से बढ़कर एक डायलॉग में अगला था ,”बाज़ार के किसी सड़क छाप दर्जी को बुलाकर उसे अपने कफन का नाप दे दो। “और “हम तुम्हें ऐसी मौत मारेंगे कि तुम्हारी आने वाली नस्लों की नींद भी उस मौत को सोचकर उड़ जाएगी।” 

अपनी ज़िंदगी के और ज़िंदगी के बाद के भी फैसले खुद करके गए :-

उनके बारे में ये फेमस था कि यदि उन्हें फिल्म के डायलॉग पसंद नहीं आते तो वे कैमरे के सामने ही उसे बदल देते थे और डायरेक्टर सोचते ही रह जाते थे कैसे कोई संवाद बेहतर हो गया। नब्बे के दशक में राज कुमार ने फ़िल्मों मे काम करना काफ़ी कम कर दिया था। इस दौरान राज कुमार की ‘तिरंगा- 1992’, ‘पुलिस और मुजरिम इंसानियत के देवता- 1993’, ‘बेताज बादशाह- 1994’, ‘जवाब- 1995’, ‘गॉड और गन’ जैसी फ़िल्में प्रदर्शित हुई। अक्सर तन्हाई में ज़िंदगी को ग़ौर से समझने वाले राज कुमार साहब ने शायद ये महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफ़ी क़रीब है इसीलिए अपने बेटे पुरू राज कुमार को उन्होंने अपने पास बुला कर कहा, “देखो मौत और ज़िंदगी इंसान का निजी मामला होता है। मेरी मौत के बारे में मेरे दोस्त चेतन आनंद के अलावा और किसी को नहीं बताना। मुझे दफ़नाने के बाद ही फ़िल्म उद्योग को सूचित करना।

“राज कुमार के तंज़ भी “जानी” कहे बिना पूरे नहीं होते थे ख़ास पुरस्कारों की बात करें तो उन्हें फिल्म , ‘दिल एक मंदिर’ और ‘वक़्त’ के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला था और फिल्म उद्योग का नोबेल, कहे जाने वाले फिल्म जगत के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से भी आपको 1996 में नवाज़ा गया था। यूँ तो अपना वक़्त इस जहाँ को देकर राजकुमार 3 जुलाई 1996 को इस दुनिया से चले गए लेकिन उनका अंदाज़ और आवाज़ का तालमेल सदा फिल्म जगत में उन्हें सरताज का ओहदा दिलाए रखेगा और जब भी उनके चाहने वाले “जानी “बोलेंगे तो राजकुमार को ही कॉपी करने की कोशिश में मुस्कुराएँगे।

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