तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर पर्दे के पीछे बर्बरीयत है नवाबी है
लगी है होड़-सी देखो अमीरी और ग़रीबी में
ये पूँजीवाद के ढाँचे की बुनियादी ख़राबी है
तुम्हारी मेज़ चाँदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ ज़ुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
ये कविता अदम गोंडवी की है.आज बात अदम गोंडवी की नहीं कविता की करते हैं.करना क्या जीना है और वैसे भी एक लेखक का परिचायक उसकी लेखनी हो ही जाती है.उसमे कोई साज श्रृंगार बनावट काम नहीं आता.फिर चाहे आप कितना ही सोफस्टिकेटेड ही क्यों न हो लें.गांव पर बहुत सुन्दर कविताएं कही गयी हैं,कही जा रही हैं और कही जाएंगी और अब तो और भी ज्यादा क्योंकि आदमी थक रहा है शहर से. गांव के भीतर जीवन है, वो जीवन मात्र पेड़ पौधों,चूल्हे की रोटी,सिल की चटनी और छत पर चाँद के ताकने तक सीमित नहीं है.हाँ ये सब सुन्दर है,बेहद सुन्दर।शायद एक कवि की कल्पनाओं में तैर कर कलम से कागज़ में सिमट जाने के बाद और भी ज्यादा लेकिन ये सब थोड़ा ज्यादा रोमांटिक है और जनाब दुनिया रोमांस के बाहर है.इसे एक परदा कहा जा सकता है जिसके पीछे की फूहड़ता हमे पसंद नहीं।वो अलग बात है कि वो सब हमारी बनाई हुई हैं और बनाई क्या लम्बे समय तक वाकायदा पोषित की गयी हैं.अब जब जीना उसमे है तो बेहतर तो ये है कि वो पर्दा हटाया जाए,गंदगी में घुसा जाए और ज़रा सफाई की जाए क्योंकि थकान होगी तो आराम तो यहाँ जरूर मिलेगा और फिर जो रचना सिल की चटनी,छत के चाँद पर होगी वो उसी छत के नीचे बैठ कर होगी और मुझे पूरा विश्वास है कि वो बंद कांच के भीतर एसी रूम की कविता से ज्यादा प्रासंगिक और मौलिक होगी।