“मुझे चिंता या भीख की आवश्यकता नहीं धनानंद, मैं शिक्षक हूँ।
यदि मेरी शिक्षा में सामर्थ्य है तो अपना पोषण करने वाले सम्राटों का निर्माण मैं स्वयं कर लूँगा।”
“आचार्य चाणक्य” के कहे गए इन शब्दों की सार्थकता क्या आज बची है? क्या वाकई आज का अधिकांश शिक्षक वर्ग इन्ही गुणों, विचारों और उच्च आत्मविश्वास से पोषित होकर अपना कर्तव्य निर्वहन कर रहा है? ऐसे कई सवाल आज उन तमाम बुद्धिजीवियों के मन मे उठते हैं जो आज भी ”राष्ट्र प्रथम” की भावना को अपने अंतर्मन में लिए हैं। आज के दिन का महत्व अधिकांश लोगों/छात्रों या फिर उनके लिए भी जो आज शिक्षक की पदवी को लेकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं।
क्या देश के प्रथम राष्ट्रपति की तस्वीर पर माल्यार्पण मात्र करते हुए विभिन्न आयोजनों में शिरकत करना ही ‘शिक्षक दिवस’ रह गया है! विभिन्न शिक्षा के मंदिरों में होने वाले आयोजनों में बड़ी-बड़ी बातें की जाकर गीत संगीत या किसी होटल में सह भोज से आज का दिन खत्म हो जाता है। और फिर अगले ही दिन से शुरू हो जाता है शिक्षा के घोर व्यवसायिक रथ का दौड़ना। इस रथ के चलते ही छात्र, शिक्षक और अभिभावक यह भूल जाते हैं कि कल ही हमने रात भर इंटरनेट से खंगाली हुई उक्तियों और प्रसंगों को उदृत करते हुए डॉ साहब को याद किया था और मंच से बड़ी बड़ी-बातें की थीं।
भूल जाते हैं देश के तमाम हुक्मरान, मुख्य अतिथि की आसंदी से शिक्षा के व्यवसायीकरण को समाप्त करने एवं सबको शिक्षा का अधिकार देने संबंधी अपने भाषण। आज का अधिकांश शिक्षक वर्ग यह भूल चुका है कि शिक्षक होना एक पेशा नहीं एक ज़िम्मेदारी है। अधिकांश छात्र यह भूल चुके हैं कि शिक्षा के मंदिर में आना और डिग्री लेना, अपने जीवनयापन की आधारशिला तैयार करना नहीं वरन अपने सामाजिक और नैतिक दायित्वों के सही तरह से निर्वाहन करने की शिक्षा ग्रहण करना है। अभिभावक यह भूल गया है कि यदि कोई शिक्षक उसके बच्चे को डांटता या सज़ा देता है तो वह उसके बच्चे को सही मार्ग पर चलाने का प्रयास मात्र कर रहा है। ऐसी तमाम बातें हैं जिनको लेकर आज व्यापक बहस और चिंतन की आवश्यकता है।
ऐसा भी नहीं है कि आज का हर शिक्षक हर छात्र और हर अभिभावक ऐसा ही है। आज के युग मे भी तमाम ऐसे शिक्षक हैं जो विद्यार्थियों के समग्र विकास की चिंता करते हैं। तमाम छात्र हैं जो अपने शिक्षक से केवल किताबी ज्ञान ही नहीं वरन जीवन दर्शन को भी समझते हैं और तमाम ऐसे अभिभावक भी हैं जो अपने बच्चे को शिक्षक को भगवान मानने की समझाइश देते हैं। और यही वे लोग हैं जिनकी वजह से आज हमारे देश मे कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है। बस ज़रूरत है तो इन चंद लोगों का हौसला बढ़ाने की, ताकि ये ‘चंद’ न होकर ‘बहुत’ हो जाएं और भारत को पुनः ‘विश्व गुरु’ की पदवी पर आसीन कर सकें।
ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब तलाशने के लिए ‘शब्द साँची’ की टीम पहुंची, विंध्य क्षेत्र के प्रख्यात शिक्षाविद, इतिहासकार और साइकोलॉजी के प्राद्यापक प्रो पीके सरकार के पास. हमने देखा रीवा शहर के पुष्पराज लॉज में लगभग तीन दशक से 6×10 के एक छोटे से कमरे में, टूटी हुई चारपाई पर बैठे उस महान शिक्षक को जिन्होंने दुनिया-दारी छोड़ दी लेकिन उनके छात्रों ने अपने गुरु को नहीं छोड़ा। जर्जर इमारत, दीवारों पर जाले, बोरियों में भरी हुई किताबें, दराजों में रखे हुए अवार्ड्स और बिस्तर में बिखरे पड़े अखबारों के गड्ड के बीच हमनें ‘फक्कड़ गुरु’ प्रो पीके सरकार को बैठा हुआ पाया। 79 वर्ष के प्रो सरकार अपने पुराने स्टूडेंट के साथ बैठकर पुरानी यादें ताजा कर रहे थे. इस बीच कभी वो गांधी जी की चर्चा करते तो कभी पीएम मोदी के जिक्र छेड़ देते, कभी अफ्रीका में गोरे-काले के भेद पर बताते तो एक पल में जातिवाद की चर्चा करने लगते और अचानक से पूछते ‘मैं कहां था?’ कुछ देर तक इतिहास की बातें करने के बाद उन्होंने हमारी तरफ देखा और कहा ‘पूछो क्या प्रश्न है?’ यहीं से सवालों का सिलसिला शुरू हुआ और प्रो सरकार ने प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान परिवेश तक अध्यन’अध्यापन, गुरु-शिष्य और शिक्षक दिवस की अहमियत के जुड़े जवाब दिए. आपके सामने पेश है उनके साक्षात्कार के कुछ अंश….
प्रो पीके सरकार का साक्षात्कार
प्रश्न- प्राचीनकाल के गुरुकुल और आज के स्कूल के अध्यन-अध्यापन में क्या कुछ समानताएं बाकी रह गई हैं? क्या आज के स्कूलों में गुरुकुल संस्कृति की आवश्यकता है?
उत्तर- निश्चित आवश्यकता है. प्राचीनकाल में सम्राट का लड़का हो या एक गरीब लकड़हारे का लड़का हो, दोनों को समान शिक्षा मिलती थी. सबसे बड़ी बात है कि वहां चरित्र का निर्माण होता था. गुरु का आचरण अनुकरणीय होता था. गुरुकुल में क्या था? छात्र का आचरण, शिक्षक का आचरण इनसे ही सारी चीज़ों का निर्माण होता था. आज गुरु-शिष्य के आचरण में बदलाव हुआ है.
प्रश्न- ‘गुरू ब्रह्मा गुरू विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः’ स्कन्द पुराण से लिया गया यह श्लोक आज के मॉर्डन शिक्षकों पर कितना फिट बैठता है?
उत्तर- ये मॉर्डन टीचर्स जो हैं, आज के ज़माने में अपनी जरूरतों के हिसाब से काम करते हैं. इसी लिए यह आज के समय में संभव नहीं है.
प्रश्न- भारत में 60 के दशक से शिक्षक दिवस मनाया जा रहा है, आप जब अध्यन करते थे तब शिक्षक दिवस कैसे मनाया जाता था? और जब आप अध्यापन में आए तब आपने शिक्षक दिवस मानाने के तरीके में क्या बदलाव देखा?
उत्तर- डॉ राधाकृष्णन बहुत अच्छे शिक्षक थे, उनके राष्ट्रपति बनने के बाद शिक्षक दिवस मनाना शुरू हुआ. वो बहुत बड़े शिक्षाविद थे और आज उनकी तरह विद्वान नहीं रह गए. एक समय था जब ऐसे-ऐसे विद्वान थे जिनकी कदर राष्ट्रपति और सम्राट भी करते थे. वो जो कहते थे उनकी सरकारें सुनती थीं. अब वो विद्वान् रहे नहीं और जिनके नाम पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है उनके आदर्शों में कौन शिक्षक चलता है? जबतक इस तरह के लोग थे, तबतक ही शिक्षक दिवस का महत्त्व था. डॉ राधाकृष्णन बनारस हिंदू विश्वविधालय के वाइस चांसलर थे तब प्रधान मंत्री पंडित नहरू बनारस गए और उन्होंने डॉ राधाकृष्णन के असिस्टेंट से सम्पर्क कर पुछा था- ‘अगर आज डॉ राधाकृष्णन के पास समय है तो मैं उनसे मिलना चाहता हूं‘ तब डॉ राधाकृष्णन ने संदेश भेजा था कि ‘प्रधान मंत्री को मेरे पास आने की जरूरत नहीं मैं आज शाम उनसे मिलने के लिए जाऊंगा’ एक पीएम और एक वीसी और दोनों ने एक दूसरे का सम्मान किया था आज तो शिक्षक/कुलपति मंत्री-विधायक के आगे नमन करते हैं, विधायक कुलपति को फटकार देता है.
प्रश्न- अब शिक्षक बनना यानी प्रतियोगी परीक्षा पास करना है, लेकिन शिक्षक कहलाने के लिए किसी व्यक्ति के अंदर क्या गुण होने चाहिए?
उत्तर- शिक्षक के अंदर उसके विषय का ज्ञान होना चाहिए। शिक्षक समाज का सबसे प्रतिष्ठित वर्ग होता है. इसी लिए उसे अपने आचरण पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए। अगर उसमे अच्छा आचरण, अच्छा व्यव्हार और ज्ञान है तो वह शिक्षक है.
प्रश्न- एक गुरु का धर्म क्या है? क्या आज के टीचर्स गुरुधर्म का पालन करते हैं? यदि नहीं करते तो उन्हें ऐसा करने से कौन रोकता है?
उत्तर- कौन रोक रहा है! पैसा। पैसा ही सब कुछ हो गया है. टीचर्स कॉलेज में 25-30 लाख की गाड़ी से आते हैं. पैसा ही रोक रहा है.
प्रश्न- एक छात्र नर्सरी क्लास से लेकर पोस्ट ग्रेजुएशन तक अपने जीवन में कई शिक्षकों से मिलता है, लेकिन वो अपने परम गुरु की पहचान कैसे करे? उन्हें कैसे खोजे?
उत्तर- बच्चा जिससे प्रभावित होता है वही उसका परम गुरु होता है.
प्रश्न- क्या टीचर-स्टूडेंट में फेवरेटिज्म होना अच्छी बात है?
उत्तर- बिलकुल सही नहीं है, शिक्षक को कभी पक्षपाती नहीं होना चाहिए। बच्चों के तो फेवरेट टीचर होते हैं मगर शिक्षक को सिर्फ चुनिंदा छात्रों के प्रति पक्षपाती नहीं होना चाहिए। हमने भी 38 साल पढ़ाया है लेकिन सभी स्टूडेंट्स को एक बराबर समझा। आज भी मुझे इसके लिए लोग याद करते हैं. बच्चे को स्नेह-प्रेम दिया तो वह जिंदगीभर आपकी इज्जत करता है.
प्रश्न- अक्सर यह सुनने को मिलता है कि युवा भटक गया है. युवा का भटकना क्या है? अगर भटक गया है तो उसे वापस सही मार्ग में कौन ला सकता है और कैसे?
उत्तर- देश के प्रति कोई लगाव न होना ही भटकना है. आज देशभक्ति यानी हाथ में झंडा लेकर फ़िल्मी गाना गा दिया। सलमान खान की तरह मटक लिया, ये देशभक्ति है! आज सबसे बड़े आदर्श फिल्म वाले हैं यही दिक्क्त है, यही भटकाव का कारण है. अरे आइकॉन बनाना है तो उन्हें बनाओ जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपने जीवन की परवाह नहीं की.
प्रश्न- आपको भारत का एजुकेशन सिस्टम कैसा लगता है, आप इसमें क्या बदलाव होते देखना चाहेंगे?
उत्तर- आजादी के बाद जितने गलत-सलत प्रयोग हुए वो सभी शिक्षा के साथ हुए. एक IAS अफसर को तैयार करने में करोड़ों रुपए ख़र्च होते हैं लेकिन वही अफसर 30 लाख रुपए की रिश्वत लेता है. लेकिन सिस्टम ऐसा है कि उसे सज़ा ही नहीं हो पाती। एजुकेशन सिस्टम में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है. शिक्षा देश को जोड़ने के लिए होती है, देशभक्ति के भाव को प्रोत्साहित करने के लिए है.
प्रो. सरकार के जीवन से जुड़े प्रश्न
प्रश्न- अपने जीवन के बारे में कुछ बताएं
उत्तर- अब लाइफ के बारे में क्या बताऊ, मैं 79 वर्ष का हूं, सन 67 में बंगाल से लेक्चरर के रूप में टीआरएस कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया। भगवान की कृपा रही कि मैं पूरे टाइम रीवा में रह गया. मैंने तीन पुश्तों को पढ़ाया। पहले दादाओं, फिर उनके बच्चों और फिर उनके नातियों को पढ़ाया। कई बार मेरे स्टूडेंट्स ने मुझे बताया कि ‘सर आपने मेरे पिता जी को भी पढ़ाया है. रीवा सांसद जनार्दन मिश्रा मेरे सामने पढ़ते थे, सीधी सांसद रीती पाठक और उनके पिता भी हमारे सामने पढ़ते थे.
प्रश्न- आपने शिक्षक बनाना ही क्यों चुना?
उत्तर- मुझे हमेशा से ही शिक्षक बनना था, क्योंकि यह समाज में सबसे प्रतिष्ठित वर्ग था. जब मैं पढता था तब कॉलेज के शिक्षक भले साइकल में आते थे लेकिन उनका सम्मान था. इसी लिए मैंने शिक्षक बनना चुना और भगवान की कृपा रही कि मुझे अच्छे बच्चों को पढ़ाने का मौका मिला। मेरे पढ़ाए छात्र कमिश्नर, कलेक्टर, आईजी, जज बने और वो आज भी मुझे मिलते हैं तो सम्मान देते हैं.
प्रश्न- अध्यापन के वक़्त आप अपनी तनख्वाह का एक चौथाई हिस्सा ही अपने लिए रखते थे?, ऐसा क्यों?
उत्तर- अरे ये सब गप्प है, मैं इतना बड़ा भी धर्मात्मा नहीं था. लेकिन बच्चों की मदद कर देते थे, करते थे खर्चा, आज भी कोई लड़का आ जाता है तो उसकी मदद कर देते हैं. (प्रो पीके सरकार भले ही आज इस बात को गप्प कहते हैं लेकिन उनके छात्र बताते हैं कि वे अपनी सैलरी का अधिकतर हिस्सा गरीब स्टूडेंट्स की पढाई में खर्च करते थे और आज भी मदद करते हैं)
प्रश्न- क्या आपको किसी ऐसी किसी चीज़ का मलाल है जो बतौर शिक्षक हासिल/पूरा नहीं कर पाए?
उत्तर- मलाल ये है कि हम चाहते थे कि हमारे बच्चे देशभक्त बने, मेरे बच्चे बड़े पद में भी गए लेकिन उनमे वो भाव नहीं जगा पाए जो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद में थे. मेरे बच्चे नेता बने, मंत्री-संत्री बने लेकिन जो देश के लिए उन्हें करना चाहिए वो नहीं कर पाए. यही मलाल है. करते भी हैं बेचारे मगर उन्हें और आगे जाना चाहिए।
प्रश्न- आप प्रोफेसर थे, आपको अच्छी-खासी सैलरी मिलती थी, फिर भी आप सेटल नहीं हुए, शादी नहीं की? क्या इसका कुछ मलाल है?
उत्तर- कोई मलाल नहीं है. उस ज़माने में जीवन को अच्छे रास्ते में चलाने के लिए मैंने अध्यात्म की तरफ रुख किया और मुझे वो मिल गया जो चाहिए था. अध्यात्म न होता तो मैं भी बाकियों की तरह मांस-मदिरा का सेवन करता था, बड़ी गाड़ी में घूमता, लेकिन क्या मुझे वैसा सम्मान मिलता? ये सब प्रलोभन है जिनके चक्कर में मैं नहीं पड़ा.
प्रश्न- आप आज के छात्रों और शिक्षकों को क्या सलाह देना चाहेंगे।
उत्तर- यही सलाह देना चाहेंगे कि शिक्षक अपने छात्रों को भाई-बहन की तरह मानें जब शिक्षक अपने स्टूडेंट्स के सामने अच्छा व्यव्हार करेंगे तो वे अपने आप उनके आगे नतमस्तक हो जाएंगे। शिक्षक विनम्र रहें और छात्र आदर करें। समस्या यही है कि शिक्षक अपने छात्रों को स्नेह-प्रेम नहीं देते और वो भी अपने गुरु का आदर नहीं करते।