‘झांसी की रानी’ नाम की कविता 1857 के क्रांति की नायिका झाँसी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी गई थी। इस कविता ने रानी लक्ष्मीबाई को जन-जन में इतना लोकप्रिय कर दिया कि 1857 की क्रांति का जब भी जिक्र होता है, तो हजारों क्रांतिकारियों द्वारा भाग लेने के बाद भी सबसे पहले ‘झाँसी की रानी’ ही याद आती हैं। इस कविता की लेगसि क्या है? आप ऐसे समझ सकते हैं, जब 2007 में 1857 की क्रांति के 150 वर्ष पूरे हो जाने के उपलक्ष्य में, केंद्र सरकार के द्वारा संसदभवन के सेंट्रल हाल में एक प्रोग्राम आयोजित किया गया था, वहाँ शुभा मुद्गल द्वारा इसी कविता की संगीतबद्ध प्रस्तुति दी गई थी। इस कविता के साथ सहज ही याद आती हैं, सुभद्रा कुमारी चौहान जो महज एक राष्ट्रवादी कवि ही नहीं थीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थीं, जो अपने पति के साथ मिलकर गांधी जी के आंदोलनों में बढ़-चढ़ के हिस्सा लिया करती थीं। पर आगे बढ़ने से पहले आइए पढ़ते हैं उनकी ‘परिचय’ शीर्षक नाम की कविता –
ललित-कलित कविताएं।
चाहो तो चित्रित कर दूँ
जीवन की करुण कथाएं॥
सूना कवि-हृदय पड़ा है,
इसमें साहित्य नहीं है।
इस लुटे हुए जीवन में,
अब तो लालित्य नहीं है
जन्म और परिवार
1857 के क्रांति के समय की ही बात है, उत्तरप्रदेश के फतेहपुर के पास एक गांव है लोहंदा, सुभद्रा कुमारी चौहान के दादा महिपाल सिंह उस समय गांव के जमींदार थे। अवध की गदर के समय, एक रात जान बचाकर भाग रहे कुछ अंग्रेजों ने ठाकुर से शरण मांगी, महिपाल सिंह स्वयं तो क्रांति में सक्रिय भागीदार नहीं थे, लेकिन क्रांतिकारियों के समर्थक थे। उन्होंने अंग्रेजों को मारा या पकड़ा तो नहीं, लेकिन शरण भी नहीं दी। लेकिन उनके यहाँ काम करने वाले एक करिंदे ने, ठाकुर के चोरी से उन अंग्रेजों को भूसा रखने वाली कोठरी, जिसे बुसौला कहा जाता है, वहाँ छुपा दिया। माहौल शांत हो जाने पर अंग्रेज वहाँ से चले तो गए, लेकिन बाद में जब अंग्रेजों ने क्रांति का पूर्णतः दमन कर दिया, तो अपने सहयोगियों और मददगारों को पुरस्कृत करने लगे, तो इसी क्रम में लोहंदा की जमींदारी महिपाल सिंह से छीन कर उन्हीं के उस करिंदे को दे दी गई, अब चूँकि उस दौर के समाज में एक ठाकुर के लिए अपने ही नौकर की रैय्यत में रहना संभव नहीं था, तो वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ गांव को छोड़कर चले गए। वो जमाना सस्ते का था, जमीन और गांव के पट्टे जमा व लगान देने पर प्राप्त हो जाते थे, और वे जमींदारी आदि के प्रबंधन में निपुण भी थे, महिपाल सिंह तो नहीं, लेकिन उनके बेटे रामनाथ सिंह ने अपने जमाने में प्रयाग के निकट निहालपुर गांव की जमींदारी प्राप्त कर ली। घर-परिवार की माली हालात को सुधारने में व्यस्त रहने के कारण रामनाथ सिंह का विवाह बड़ी देर से, लगभग 28-30 वर्ष की अवस्था में बनारस के निकट जरौना गांव की धिराज कुंवरि के साथ हुआ।
इन्हीं दम्पति के यहाँ सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904 को नाग पंचमी के दिन हुआ था, उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई, और उसके बाद वह आगे पढ़ने के लिए इलाहाबाद के क्रास्थवेट गर्ल्स स्कूल गईं, वहीं पर महादेवी वर्मा भी पढ़ती थीं, जो थीं तो उनकी जूनियर, पर आगे चलकर दोनों पक्की सहेली बन गईं। पिता के देहांत हो जाने के बाद अब घर की सारी जिम्मेदारी, सुभद्रा कुमारी चौहान के बड़े भाई राजबहादुर सिंह रज्जू भईया पर आ गई, घर में ब्याह के लिए चार-चार बहनें थीं, इसीलिए वह जल्द से जल्द उनका विवाह कर देना चाहते थे, उनके साथ विश्वविद्यालय में खंडवा के एक लक्ष्मण सिंह चौहान भी बी. ए. एल. एल. बी. पढ़ा करते थे, उन्होंने इन्हीं के साथ अपनी बहन सुभद्रा कुमारी का विवाह तय कर दिया, 1919 में जब सुभद्रा कुमारी चौहान ने नौवीं की परीक्षा दी थी, उसी वर्ष उनका ब्याह हो गया।
राजनैतिक और सामाजिक सक्रियता
यह वही समय था, जब देश में गांधी युग का प्रारंभ हो रहा था, महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असहयोग आंदोलन छेड़ा था, उन्होंने छात्रों से भी क्रांति में शामिल होने का आह्वान किया, सुभद्रा कुमारी चौहान और उनके पति दोनों ही असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। क्रांति में सक्रियता और पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से उनकी पढ़ाई भी पूरी नहीं हो पाई, और वह
बस नौवीं तक ही पढ़ पाईं थीं। महात्मा गाँधी और उनके आंदोलनों से प्रभावित होकर वह अपने पति के साथ मिलकर राष्ट्रीय आंदोलनों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। शायद यह बात बहुत ही कम लोगों को पता होगी, असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वे पहली महिला सत्याग्रही थीं, बाद में उन्हें गिरफ्तार किया गया और नागपुर जेल में रखा गया। महात्मा गांधी और सुभद्रा कुमारी चौहान की पहली बार मुलाकात के समय के एक किस्से का जिक्र, उनकी बेटी सुधा चौहान ने अपने किताब में किया है, जिसमें सुभद्रा कुमारी को गांधीजी से डांट पड़ी, दरासल 1921 में हुए काँग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभद्राकुमारी चौहान अपने पति के साथ गईं थीं, वहीं उन्होंने साबरमती आश्रम में जाकर महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी के दर्शन की योजना बनाई, गांधी से बेहद प्रभावित सुभद्रा कुमारी चौहान, उस समय सूती की सफेद बिना किनारी की साड़ी पहनतीं थीं, और साथ में ही कोई सौभाग्य सूचक शृंगार भी नहीं करतीं थीं, एक 16-17 साल की किशोर लड़की को ऐसी वेश-भूषा में देखकर बापू ने उन्हे कुछ चिंतित भाव से टोकते हुए उनसे पूछा “बेन तुम यहाँ कैसे आई हो, क्या अकेली हो”, सुभद्राकुमारी चौहान ने बहुत ही चहकते हुए कह “मेरे पति भी मेरे साथ आए हैं”, कुछ आश्वस्त होते हुए बा और बापू ने उन्हें डांटते हुए कहा-“फिर तुम ऐसा वेश बनाए हुए क्यों घूम रही हो, चूड़ी पहनो, सिंदूर लगाओ और किनारीदार साड़ी पहना करो”।
आगे भी उनकी क्रांतियों में सक्रियता निरंतर जारी रही, उन्होंने अपने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अपने पति के साथ हिस्सा लिया और पति-पत्नी दोनों जेल चले गए, जिसके बाद घर में उनके चार बच्चे अकेले ही रहे। इसके साथ ही वह सामाजिक कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थीं, वह महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने, राजनैतिक और सामाजिक आंदोलनों में भाग लेने के लिए भी प्रोत्साहित करती थीं।
साहित्य सृजन
सुभद्रा कुमारी चौहान में काव्य प्रतिभा बहुत ही कम उम्र में आ गई थी, अपने भाई के कहने पर, उन्होंने सबसे पहली कविता नीम के पेड़ पर 9 वर्ष की उम्र में लिखी थी, जो आगे चलकर मर्यादा नाम की पत्रिका में भी छपी थी, उन्होंने झाँसी की रानी के अलावा “वीरों का कैसा हो बसंत” “जालियां वाला बाग में बसंत” “झांसी की रानी की समाधि” आदि लोकप्रिय कविताएं लिखी थीं, चूंकि वह दौर गांधी का था, देश में उनके आगमन और आंदोलनों से एक बयार चली थी, जिसके कारण राष्ट्रप्रेम का एक नया उभार हुआ था, उनकी कविताओं की भाषा ओजपूर्ण सीधी सरल खड़ी बोली थी, जिनमें वीर रस की प्रधानता होती थी, इसके अतिरिक्त उनमें देश भक्ति और राष्ट्रीय आंदोलन की स्पष्ट छाप थी, यह प्रभाव परिलक्षित भी होता है। शायद इसीलिए उनके कविताओं में उपस्थित बसंत ऋतु शृंगारपरक नहीं। इसके साथ ही उनकी कविताओं में जीवन और सामाज की त्रासदियों की भी झलक मिलती है। उनकी कविताएँ दो कविता संग्रह “मुकुल” और “त्रिधारा” में प्रकाशित हुईं हैं। लेकिन देशभक्ति के अलावा उनकी वात्सल्य रस की कविताएं भी बहुत अनुपम हैं, ‘यह कदम का पेड़’, ‘खिलौनेवाला’, ‘पानी और धूप’ इत्यादि इसी परंपरा की वाहक हैं, उनकी एक कविता है ‘मेरा नया बचपन’ यह कविता उन्होंने अपनी बेटी के जन्म के बाद लिखी थी, इसके माध्यम से वह अपने बचपन को याद करती हुईं उस मानसिक द्वन्द को भी व्यक्त कर रहीं हैं, जो एक युवा मन में चल रहीं होती हैं, वह लिखती हैं –
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
वह मूलतः कवियत्री ही थीं। लेकिन सत्याग्रह के समय पति के जेल जाने के बाद, घर की जिम्मेदारियों को उठाने के लिए, उन्होंने कहानियाँ लिखना प्रारंभ कर दिया। क्योंकि उस वक्त कविताओं के लिए तो कोई परिश्रमिक नहीं मिलता था, लेकिन कहानियों पर मिलता था। उन्होंने कुल 46 कहानियाँ लिखी थीं, जो तीन कहानी संग्रह “बिखरे मोती”, “उन्मादनी” और “सीधे सादे चित्र” में प्रकाशित हुईं थीं, इनमें से उनकी एक कहानी ‘हींगवाला’ अत्यंत प्रसिद्ध रही है।
सुभद्रा कुमारी चौहान का व्यक्तित्व
कवियत्री, लेखिका और स्वतंत्रता आंदोलन की सत्याग्रही के अलावा, वे एक पत्नी, माँ और कुशल गृहिणी भीं थीं, जितनी निपुणता से वो आंदोलनों में भाग लेतीं, व्यक्तव्य देती, उतनी से प्रवीणता और सहजता के साथ वे घर भी संभलाती थीं, एक किस्सा आता है जिसका जिक्र महादेवी वर्मा ने किया है, एक बार महादेवी वर्मा जबलपुर में सुभद्रा कुमारी चौहान के घर ठहरीं थीं, सुभद्रा कुमारी चौहान एक सुबह अपना घर लीपने जा रहीं थीं, उन्होंने महादेवी से कहा, तुम बैठो मैं घर लीप लूँ, महादेवी ने कहा, क्यों तुम्हें लगता है, मैं घर नहीं लीप सकती हूँ क्या, और फिर दोनों सहेलियों ने मिलकर गोबर से पूरा घर लीप डाला। सुभद्रा कुमारी चौहान बहुत ही सहज और प्रेमी स्वभाव की थीं, वह बहुत ही जल्दी लोगों से घुल मिल जाती थीं, माखनलाल चतुर्वेदी को तो वैसे वह अपना रगुरु मानती थीं, लेकिन चतुर्वेदी जी उन्हें अपनी छोटी बहन मानते थे, इसी तरह बालकृष्ण शर्मा नवीन भी उन्हें बिन्नो अर्थात अपनी छोटी बहन कहते थे। सुप्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध जब जबलपुर रहने आए, तो उसी मोहल्ले में रहते थे, जिसमें सुभद्राकुमारी चौहान रहती थीं, मुक्तिबोध उनसे मिलना चाहते थे पर संकोचवकश मिल ना पाते, यह बात जब सुभद्रा जी को पता चली, तो वह स्वयं मुक्तिबोध के घरपर जाकर उन्हें लिवा लाईं। इसीलिए शायद वह स्वयं भी कहती हैं –
मैं जिधर निकल जाती हैं
मधुमास उतर आता है।
नीरस जन के जीवन में
रस घोल-घोल जाता है।
आज ही दिन हुई मृत्यु
देश की आजादी के बाद सुभद्रा कुमारी चौहान, सेंट्रल प्राविन्स विधानमंडल की सदस्य बनीं, चूंकि उस समय इस प्रांत की राजधानी नागपुर हुआ करती थी, वहीं से असेंबली में भाग लेने के बाद वह वापस आ रहीं थीं, 15 फरवरी 1948 को रास्ते में सिवनी के पास एक रोड एक्सीडेंट में उनकी मृत्यु हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान को बसंत अत्यंत प्रिय था, लेकिन उनके बसंत शृंगार का नहीं, वीरों का बसंत था, शायद इसलिए उनकी मृत्यु भी बसंत पंचमी के दिन ही हुई। 1976 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया, भारतीय तटरक्षक दल ने अपनी एक शिप का सुभद्रा कुमारी चौहान के नाम पर रखा है, 2021 में गूगल ने उनके 117 वें जन्मदिन पर डूडल बनाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी।