Rewa Chawal Andolan Ki Kahani | वर्ष 1947 का आरंभ हो चुका था, प्रारंभिक महीना चल रहा था, ब्रिटिश सरकार भारत से जल्द से जल्द अपनी वापसी चाहती थी, भारत में ग्रीष्म ऋतु का आगमन होने वाला था, साथ ही साथ देश में राजनैतिक सरगर्मी भी खूब थी। देश में जहाँ एक तरफ आज़ादी का सूर्योदय होने वाला था, वहीं साथ में बंटवारे रूपी घने काले बादल भी छा रहे थे, जो सूर्योदय की लालिमा को कुछ स्याह कर रहे थे। उसी समय देश के मध्य स्थित रीवा रियासत में ‘चावल वसूली आंदोलन’ चल रहा था, बघेली भाषा में इसे चाउरहैवा आंदोलन या चावल लेउहाई आंदोलन भी कहा जाता था, इस आंदोलन की गूंज सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी सुनाई दी थी। आखिर क्या था ये वसूली आंदोलन? और यह क्यों हुआ था आइये विस्तार से जानते हैं –
रीवा राज्य की राजनैतिक स्थित
जिस समय देश में आज़ादी की बात चल रही थी, उस समय रीवा के शासक महाराज मार्तण्ड सिंह थे, जिन्हें कुछ समय पहले ही ब्रिटिश सरकार ने राजा बनाया था, उनके पिता महाराज गुलाब सिंह को ब्रिटिश सरकार ने झूठे षड़यंत्र और अभियोग द्वारा राजच्युत और रियासत से निर्वासित कर दिया था, जिसके कारण उन्हें मुंबई में रहना पड़ रहा था। महाराज मार्तंड सिंह शासक तो बन गए थे। लेकिन वास्तविक शक्ति थी मंत्रिमंडल के पास जिसके प्रधानमंत्री थे, श्री टी. सी. एस. जयरत्नम, वे केंद्रीय ब्रिटिश सरकार के रीवा रियासत में राजनैतिक प्रतिनिधि भी थे, मंत्रिमंडल के बाकि मंत्री रीवा रियासत के ही थे, लेकिन उनमें भी पवाईदारों की संख्या ज्यादा थी।
सरकार की नीतियाँ
1947 के प्रारंभिक महीने की बात है, केंद्रीय ब्रिटिश सरकार की योजना के अनुसार रीवा राज्य सरकार द्वारा चावल वसूली का कार्यक्रम चलाया गया था। पहले राज्य शासन द्वारा गल्ला खरीदी की नीति पर स्पष्टीकरण देते हुए कहा गया था- ” राज्य की पैदावार का वितरण, राज्य में समान रूप से ऐसे किया जाएगा, जो कि काश्तकारों और उपभोक्ताओं दोनों के लिए हितकर होगा।”
उस वर्ष अब हुआ क्या? रीवा रियासत के दक्षिणी हिस्से अर्थात सीधी-शहडोल इत्यादि में तो धान की फसल अच्छी हुई थी, लेकिन रियासत के उत्तरी हिस्से अर्थात रीवा पठार के क्षेत्रों में, धान की फसल की पैदावार अच्छी नहीं हुई थी। लेकिन तब राज्य के पटवारियों के दिए गए रिपोर्टों के आधार पर, शासन ने 12 हजार टन चावल सीधे किसानों से खरीदने का लक्ष्य निर्धारित किया। लक्ष्य राज्य की आवश्यकता से अधिक निर्धारित किया गया था और राज्य शासन ने लक्ष्य के निर्धारण के पूर्व ‘खाद्य सलाहकार समिति’ से कोई सलाह भी नहीं ली थी, लगता है आज की तरह ही पटवारी तब भी घर में बैठे हुए ही कागज तैयार कर लिया करते थे।
प्रजापरिषद की आंदोलन में सक्रिय भूमिका
इसके अलावा शासन ने किसानों से चावल की कीमत भी तब के बाजार भाव से कम, चावल 8 रूपये मन के हिसाब खरीदना तय किया था, इसमें वसूली केंद्र तक के ढुलाई का खर्च भी शामिल था। ऊपर से एक और भी शर्त थी, यह राशि नगद ना देकर, लगान के रूप में समायोजित की जाने वाली थी। चूंकि जैसे हमने पहले भी बताया था कि रियासत के दक्षिणी इलाके में तो धान की पैदावार खूब हुई थी, यह क्षेत्र धन उत्पादन के अनुकूल भी था, इसीलिए यहाँ के काश्तकारों ने तो कोई विरोध नहीं किया, लेकिन उपज कम होने के कारण उत्तरी क्षेत्रों के किसानों को राज्य शासन के इन नियमों से परेशानी होना स्वाभाविक था, अतः राज्य प्रजामण्डल के कार्यकर्ता और कांग्रेस नेता शंभूनाथ शुक्ल ने किसानों के साथ जाकर रीवा राज्य के तत्कालीन प्रधानमंत्री से मुलाक़ात करके मांगे बताईं, उनकी प्रमुख मांगे निम्न थी –
2 या 3 एकड़ से कम जमीन वाले किसानों से कोई वसूली न की जाए, प्रति एकड़ पैदावार 5 मन की जगह 3 मन मानी जाए, किसानों के घर से चावल वसूली केंद्र तक ढुलाई का खर्च राज्य सरकार वहन करे, चावल की कीमत 8रूपये मन की जगह 10 रूपये प्रति मन तय किया जाए, और चावल का नगद भुगतान उसी तरह किया जाए, जैसे ब्रिटिश भारत के राज्यों में किया जाता है, ग्राम पंचायतों के माध्यम से रेवन्यु रिकॉर्ड में उचित सुधार करके वसूली की जाए। इसके अलावा शासन द्वारा किसानों को नमक तथा गुड़ वसूली केंद्रों में ही कर दी जाए। किसान प्रजामंडल के माध्यम से यह मांग भी कर रहे थे कि इस क्षेत्र में शीघ्र ही जनता की सरकार कायम की जाए क्योंकि रीवा का वर्तमान मंत्रिमंडल पवाईदार और इलाकेदार वर्ग के वर्चस्व के कारण जनता का उचित प्रतिनिधित्व नहीं करता है। प्रधानमंत्री द्वारा वादा किया गया, इन मांगों पर मंत्रिमंडल पर विचार जरूर किया जाएगा।
चावल आंदोलन का प्रमुख कारण
लेकिन राज्य सरकार की कानों में जूँ तक नहीं रेंगी और इसके बाद सरकार ने चावल वसूली का कार्यक्रम जारी रखा, इन परिस्थितियों से किसान भी वसूली केंद्रों में न ले जाकर इन परिस्थितियों से बचने के लिए चावल छुपा कर रखने लगे, सरकार ने गांवों में पुलिस भेजकर घरों में तलाशी लेते और चावल को जब्त करके वसूली केंद्रों में ले जाने लगे, पुलिस और प्रशासन की इस जबरन चावल वसूली से किसानों में रोष भर दिया और गांवों में इसका विरोध होने लगा।
बदवार गोलीकांड
28 फरवरी 1947 को शुक्रवार के दिन राज्य प्रशासन ने पूरी तैयारी के साथ रीवा से लगभग 20 किलोमीटर दूर गुढ़ तहसील के बदवार गाँव में चावल वसूली का कार्यक्रम बनाया, गांव के लगभग पांच हज़ार किसान भी, सरकार के इस जबरन चावल वसूली कार्यक्रम के विरोध में संगठित होने लगे। गांव वालों के विरोध को देखते हुए प्रशासन भी काफी मुस्तैद था, पटवारी, कानूनगो, तहसीलदार, थानेदार, सुपरिंटेंडेंट ऑफ़ पुलिस, राज्य के इंस्पेक्टर जनरल और डिप्टी कमिश्नर के साथ काफी मात्रा में पुलिस बल भी गांव में उस दिन उपस्थित था। प्रशासन के लोगों ने गांव वालों से चावल माँगा लेकिन किसानों ने चावल देने से इंकार कर दिया, पुलिसवालों ने तीन लोगों को गिरफ्तार किया, गांववालों द्वारा गिरफ्तारों को छोड़ देने के आग्रह के बाद भी उन्हें नहीं छोड़ा गया, और प्रसाशन के लोग लगातार आगे बढ़ने का प्रयास करने लगे, गांव वालों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास किया, परिणामस्वरूप पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया, लेकिन गांव के लोगों को इस लाठीचार्ज से कोई फर्क नहीं पड़ा और वे लगातार पुलिस को रोकने के लिए उनसे भिड़ते रहे, लोगों की भीड़ को तितर-बितर करने के लिए डिप्टी कमिश्नर के आदेश पर पुलिस ने जनता पर गोली चला दी, इस गोलीकांड में गांव के ही किसान नेता त्रिभुवन प्रसाद तिवारी की मौके पर ही मृत्यु हो गई और अनेकों व्यक्ति घायल भी हो गए। रीवा राज्य सरकार ने एक विज्ञप्ति जारी करते हुए बदवार गोलीकांड के लिए गांव की जनता को ही दोषी ठहराया और स्थिति की भयावहता को देखते हुए पूरे राज्य में धारा 144 लगा दी। आज़ाद प्रजामंडल जो इस आंदोलन में सक्रीय भूमिका निभा रही थी उसके लाल यादवेंद्र सिंह, पंडित शंभूनाथ शुक्ल, समेत सभी प्रमुख नेताओं के रीवा नगर से बाहर जाने पर रोक लगा दी गई।
तीव्र आंदोलन
शासन की इस भयानक दमन नीति से अभी तक शांतिपूर्ण चल रहे आंदोलन ने पूरे राज्य में तीव्र रूप धारण कर लिया, सरकार ने भी जबरन चावल वसूली का कार्यक्रम लगातार जारी ही रखा, बदवार के समान ही नईगढ़ी के शिवराजपुर गांव में 8 मार्च 1947 के दिन पुलिस और काश्तकारों के मध्य संघर्ष हो गया, परिणामस्वरूप पुलिस ने गोलियां चलाईं जिसमें “भैरव प्रसाद उरमलिया” नाम के एक किसान की मृत्यु हो गई और लगभग आठ व्यक्ति घायल भी हुए, कहीं-कहीं घायलों की संख्या ज्यादा भी बताई जाती है, पुलिस और प्रशासन के इस कृत्य से जनता में रोष भर गया, आज़ाद प्रजामंडल और कांग्रेस सोशिलिस्ट पार्टी के नेता और सदस्य धारा 144 का उलंघन करते हुए प्रदर्शन करने लगे, जिसके कारण प्रशासन ने कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया, गिरफ्तार होने वाले नेताओं में लाल यादवेंद्र सिंह, वैद्यनाथ दुबे, प्रकाश नारायण और सत्यदेव इत्यादि प्रमुख थे।
देश भर में प्रतिक्रियाएं और आंदोलन समाप्ति
रीवा से निकलने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘भास्कर’ सहित देश के अन्य समाचार पत्रों ने रीवा राज्य सरकार की इन कार्यवाइयों की जोरदार निंदा की। जिस समय रीवा में यह आंदोलन और गोलीकांड हुआ था, उसी समय कांग्रेस सोशिलिस्ट पार्टी का कानपुर अधिवेशन चल रहा था, रीवा में सोशिलिस्ट पार्टी के एक कार्यकर्ता श्रवण कुमार भट्ट उसी समय इस सम्मलेन में भाग लेने गए थे, उनके ही माध्यम से यहाँ की स्थिति की सूचना डॉ राममनोहर लोहिया और अच्युत पटवर्धन को भी लगी, कांग्रेस सोशिलिस्ट पार्टी के अधिवेशन में ‘बदवार गोलीकांड’ के खिलाफ एक प्रस्ताव भी पारित किया गया, जिसमें रीवा शासन से तत्काल इस दमन नीति को बंद करने के लिए कहा गया। राज्य प्रजामंडल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष डॉ पट्टाभि सीतारमैय्या ने भी रीवा प्रशासन के इन दमनपूर्ण कार्रवाइयों की निंदा की, मध्यभारत राज्य प्रजामंडल के क्षेत्रीय काउंसिल द्वारा, एक सदस्य को गोलीकांड के जांच के लिए रीवा भेजा गया। रीवा राज्य प्रशासन ने भी इस समस्या के स्थायी समाधान हेतु प्रयत्न करना प्रारंभ कर दिया। रीवा राज्य के प्रधानमंत्री ने हालांकि 7 मार्च को ही सभी प्रमुख राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ मुलाक़ात कर चर्चा ली थी, राज्य शासन ने गल्ला वसूली की नीति को लेकर बड़े किसानों और पवाईदारों से सहयोग लेना प्रारंभ कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप यह आंदोलन धीरे-धीरे करके समाप्त हो गया।