कर्पूरी ठाकुर की जननायक बनने की कहानी

11th Chief Minister of Bihar

Karpoori Thakur: 23 जनवरी 2024 को केंद्र सरकार ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और जननायक कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा की है.इसी के साथ उनके परिवार के लोगों में ख़ुशी की लहर है.उनके बेटे और राज्यसभा सांसद रामनाथ ठाकुर ने इस मौके पर भारत सरकार को शुक्रिया बोलने के साथ कहा कि वो अपनी पार्टी और बिहार की जनता की तरफ से भारत सरकार को कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं.प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ट्वीट कर इस बारे में जानकारी दी है. बिहार में 24 जनवरी की तारीख राजनितिक रूप से पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ी है. इस दिन पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की जयंती के बहाने राज्य के मुख्य राजनितिक दलों में उनकी विरासत पर दावा जताने की आपसी होड़ नजर आती रही है.

ऐसे में बड़ा सवाल ये उभरता है कि आखिर बिहार में जिस हज्जाम समाज की आबादी दो फ़ीसदी से कम है, उस समाज के सबसे बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत के लिए इतनी हाय तौबा उनके निधन के इतने साल के बाद भी क्यों मचती है? इसकी सबसे बड़ी वजह तो यही है कि कर्पूरी ठाकुर की पहचान अति पिछड़ा वर्ग (EBC) के बड़े नेता की बना दी गई है. छोटी-छोटी आबादी वाली विभिन्न जातियों के समूह ईबीसी में 100 से ज़्यादा जातियां शामिल हैं. इसमें भले ही अकेले कोई जाति चुनावी गणित के लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं हो लेकिन सामूहिक तौर पर ये 29 फ़ीसदी का वोट बैंक बनाती हैं. 2005 में नीतीश कुमार को पहली बार मुख्यमंत्री बनाने में इस समूह का अहम योगदान रहा है. इस लिहाज से देखें तो ये समूह अब बिहार में राजनीतिक तौर पर बेहद अहम बन गया है, हर दल इस वोट बैंक को अपने खेमे में करना चाहता है.

दरअसल, मंडल कमीशन लागू होने से पहले कर्पूरी ठाकुर का बिहार की राजनीति में वहां तक पहुँचना उनके जैसे पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति के लिए लगभग असंभव सा था. वो बिहार की सियासत में गरीबों की आवाज बन कर उभरे थे. 24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्मे कर्पूरी ठाकुर बिहार के दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप मुख्यमंत्री रहे। 1952 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद जब जब उन्होने चुनाव लड़ा हमेशा जीतते रहे. अपने दो कार्यकाल में कुल मिलाकर ढाई साल के मुख्यमंत्री काल में उन्होंने जिस तरह की छाप बिहार के समाज पर छोड़ी है, वैसा दूसरा उदाहरण कोई और नहीं दिखता. ख़ास बात ये भी है कि वे बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. जो उस समय में अपने आप में एक बड़ी बात थी.

1967 में पहली बार डिप्टी सीएम बनने के बाद उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया। जिसके चलते उनकी खूब आलोचना हुई लेकिन हकीकत ये है कि उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया। इस दौर में अंग्रेजी में फेल मैट्रिक पास लोगों का मजाक ‘कर्पूरी डिवीजन से पास हुए हैं’ कह कर उड़ाया जाता था. ये वो दौर था जब उन्हें शिक्षा मंत्री का पद मिला था. उनकी कोशिशों के चलते मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया।आर्थिक तौर पर गरीब बच्चों की स्कूल फीस को माफ़ करने का काम भी उन्होंने किया. वो देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी. उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राज्यकीय भाषा का दर्जा देने का कार्य किया।

1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्होंने गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी टैक्स को बंद कर दिया. बिहार के तब के मुख्यमंत्री सचिवालय की इमारत की लिफ्ट चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के लिए उपलब्ध नहीं थी, मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने चर्तुथवर्गीय कर्मचारी लिफ्ट का इस्तेमाल कर पाएं, ये सुनिश्चित किया. बिहार के पूर्व एमएलसी प्रेम कुमार मणि कहते हैं, “उस दौर में समाज में उन्हें कहीं अंतरजातीय विवाह की ख़बर मिलती तो उसमें वो पहुंच जाते थे. वो समाज में बदलाव चाहते थे, बिहार में जो आज दबे पिछड़ों को सत्ता में हिस्सेदारी मिली हुई है, उसकी भूमिका कर्पूरी ठाकुर ने बनाई थी.”

1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल कमीशन लागू करके राज्य की नौकरियों में आरक्षण लागू करने के चलते वो हमेशा के लिए सर्वणों के दुश्मन बन गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर समाज के दबे पिछड़ों के हितों के लिए काम करते रहे.मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था. इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था.

युवाओं को रोजगार देने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी थी कि एक कैंप आयोजित कर 8000 से ज़्यादा इंजीनियरों और डॉक्टरों को एक साथ नौकरी दे दी. इतने बड़े पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद आज तक इंजीनियर और डॉक्टर बहाल नहीं हुए. दिन रात राजनीति में ग़रीब गुरबों की आवाज़ को बुलंद रखने की कोशिश में जुटे कर्पूरी की साहित्य, कला एवं संस्कृति में काफी दिलचस्पी थी. प्रेम कुमार मणि याद करते हैं, “1980-81 की बात होगी, पटना में एक कांग्रेसी सांसद के पारिजात प्रकाशन की दुकान पर मैंने उन्हें हिस्ट्री ऑफ़ धर्मशास्त्र ख़रीदते खुद देखा था. वे पढ़ने का समय निकाल ही लेते थे.”


साल 1952 में कर्पूरी ठाकुर पहली बार MLA बने थे और एक ऑफिसियल डेलीगेशन के लिए ऑस्ट्रिया का दौरा हुआ.उस वक्त इनके पास पहनने के लिए कोट नहीं था तो अपने एक दोस्त से इन्होने कोट लिया जो फटा हुआ था. उस वक्त के यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप टीटो ने ये देखा तो उन्होंने कर्पूरी ठाकुर जी को एक कोट गिफ्ट किया।जब 1988 में इनकी मौत हुई उस वक्त इनका झोपड़ीनुमा घर इनकी सादगी का परिचायक है.
आज जब सोशल मीडिया में टॉप 5, टॉप 10 रिचेस्ट MP और MLA के वीडियोस बड़ी संख्या में वायरल होते हैं. कर्पूरी ठाकुर का जीवन और राजनीति उन सब के लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए यकीनन एक सीख है.

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