Story Of Jyotiba Phule In Hindi: यह कहानी है ज्योतिबा फुले की—एक ऐसे इंसान की, जिसने अपने समय के अंधेरे को चुनौती दी और समाज के लिए रोशनी का रास्ता बनाया। पुणे की मिट्टी से शुरू हुई यह कहानी हर उस दिल तक पहुँची, जो न्याय और समानता की तलाश में था। तो चलो, सुनते हैं उनकी जिंदगी की दास्तान, जिसमें हर घटना एक मोती है, जो उनकी महानता की माला में पिरोया गया।
ज्योतिबा फुले कौन थे
Jyotiba Phule Ki Jiwani: 11 अप्रैल 1827 को पुणे में एक साधारण माली परिवार में ज्योतिराव गोविंदराव फुले (Jyotirao Govindrao Phule) का जन्म हुआ। उनके पिता गोविंदराव खेतों में फूल और सब्जियाँ उगाते थे, और माँ चिमणाबाई घर को प्यार से संभालती थीं। लेकिन ज्योतिबा की जिंदगी में पहली ठोकर तब लगी, जब उनकी माँ का देहांत हो गया। वह अभी छोटे थे, शायद सात साल से भी कम उम्र के। इस दुख ने उन्हें जल्दी बड़ा कर दिया। पिता ने मेहनत से उन्हें पाला, और सात साल की उम्र में ज्योतिबा को मराठी स्कूल में भेजा। पर यहाँ भी समाज का काला चेहरा सामने आया। ऊँची जाति के लोग नहीं चाहते थे कि एक माली का बेटा पढ़े। दबाव में उनकी पढ़ाई छूट गई। लेकिन कुछ पड़ोसियों और पिता की हिम्मत ने उन्हें फिर से स्कूल की राह दिखाई। यह पहली घटना थी, जिसने उनके मन में सवाल जगाया—क्यों जन्म तय करे कि कोई कितना ऊँचा उठ सकता है?
सावित्री से मुलाकात और सपनों की शुरुआत
Jyotiba Phule Ki Kahani:13 साल की उम्र में, 1840 में, ज्योतिबा की शादी सावित्रीबाई (Savitribai Phule) से हुई। सावित्री तब सिर्फ 9 साल की थीं। उस दौर में बाल विवाह आम था, पर ज्योतिबा के मन में कुछ और ही था। वे सावित्री को सिर्फ पत्नी नहीं, बल्कि अपनी हमसफर बनाना चाहते थे। स्कॉटिश मिशनरी स्कूल में पढ़ाई के दौरान उनकी मुलाकात पश्चिमी विचारों से हुई। थॉमस पेन की किताब “Rights of Man” ने उनके दिल में आजादी और बराबरी की आग जलाई। यह दूसरी बड़ी घटना थी—पढ़ाई ने उनके सपनों को पंख दिए। उन्होंने सोचा, अगर वे पढ़ सकते हैं, तो हर कोई क्यों नहीं?
भेदभाव खत्म करने की कसम खाई
Jyotiba Phule Biography Hindi: 1848 में ज्योतिबा की जिंदगी का सबसे बड़ा मोड़ आया। वे 21 साल के थे और अपने एक ब्राह्मण दोस्त की शादी में गए। खुशी का माहौल था, पर अचानक उनकी जाति—माली—का मज़ाक उड़ा। मेहमानों ने उन्हें ताने मारे और बाहर निकाल दिया। यह अपमान उनके लिए बिजली की तरह था। उस पल उन्होंने कसम खाई कि वे इस भेदभाव को खत्म करेंगे। घर लौटकर उन्होंने सावित्री को बताया, और दोनों ने मिलकर एक नया रास्ता चुना। ज्योतिबा ने सावित्री को पढ़ाना शुरू किया। यह छोटी-सी शुरुआत थी, जो एक क्रांति बनने वाली थी।
ज्योतिबा ने खोला पहला स्कूल
Jyotiba Phule kaun The:उसी साल, 1848 में, ज्योतिबा ने पुणे के भवानी पेठ में लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल खोला। सावित्रीबाई यहाँ पढ़ाने लगीं। यह एक ऐतिहासिक घटना थी—एक निचली जाति का शख्स और उसकी पत्नी समाज की औरतों को अक्षर सिखा रहे थे। पर समाज को यह मंजूर नहीं था। लोग चिल्लाते, “ये शूद्र क्या पढ़ाएँगे?” रास्ते में पत्थर फेंके जाते, गोबर मारा जाता। सावित्रीबाई की साड़ी गंदी हो जाती, पर वे हिम्मत नहीं हारीं। इस विरोध की आग इतनी बढ़ी कि ज्योतिबा के पिता गोविंदराव पर दबाव डाला गया। आखिरकार, उन्हें अपने ही घर से निकाल दिया गया। यह एक और कठिन घटना थी—अपनों से बिछड़ना। लेकिन उनके दोस्त तात्यासाहेब भिड़े, जो एक ब्राह्मण थे, ने उन्हें जगह दी। ज्योतिबा और सावित्री ने हार नहीं मानी, और जल्द ही उनके पास तीन स्कूल थे।
विधवा की शरण और यशवंत का जन्म
1860 के दशक में ज्योतिबा की जिंदगी में एक और मार्मिक घटना हुई। एक गर्भवती विधवा उनके पास मदद माँगने आई। उस समय विधवाओं को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था, और अगर वे गर्भवती होतीं, तो उनकी जान को खतरा हो जाता था। लोग उसे मारने की साजिश कर रहे थे। ज्योतिबा और सावित्री ने उसे अपने घर में पनाह दी। जब उसका बच्चा पैदा हुआ, तो ज्योतिबा ने उसे गोद लिया और नाम रखा—यशवंत। यह घटना उनके बड़े दिल को दिखाती है। बाद में, उन्होंने विधवाओं के लिए आश्रम खोला और विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया। यह एक और बड़ा कदम था, जिसने समाज की नींद उड़ा दी।
सत्यशोधक समाज की नींव
24 सितंबर 1873 को ज्योतिबा ने “सत्यशोधक समाज” बनाया। यह उनकी जिंदगी की सबसे अहम घटनाओं में से एक थी। इस संगठन का मकसद था—सच की तलाश और शोषण का खात्मा। यहाँ शादियाँ बिना ब्राह्मण पुरोहितों के होने लगीं। पहली ऐसी शादी को देखकर लोग हैरान रह गए। कोई मंत्र नहीं, कोई पंडित नहीं—दो लोगों का वादा। इस कदम ने धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ा और निचली जातियों को हक दिलाया। इस घटना का असर इतना गहरा था कि बाद में इसे कानूनी मान्यता भी मिली। ज्योतिबा कहते थे, “ईश्वर सबके लिए एक है, उसे पूजने के लिए बिचौलियों की जरूरत नहीं।”
“गुलामगिरी” से तहलका (1873)
उसी साल, 1873 में, ज्योतिबा ने अपनी किताब “गुलामगिरी” लिखी। यह एक और बड़ी घटना थी। इस किताब में उन्होंने जाति व्यवस्था को गुलामी का प्रतीक बताया और ब्राह्मणवाद की आलोचना की। अमेरिका में गुलामी के खिलाफ लड़ाई से प्रेरित होकर उन्होंने लिखा कि भारत का शूद्र और अतिशूद्र भी गुलाम हैं—बस यहाँ जंजीरें दिखती नहीं। किताब छपते ही हंगामा मच गया। कुछ ने उनकी तारीफ की, कुछ ने कोसा। पर ज्योतिबा का मकसद पूरा हुआ—लोगों ने सोचना शुरू किया। इसके बाद “शेतकऱ्याचा आसुड” लिखा, जिसमें किसानों की बदहाली को बयाँ किया। उनकी कलम उनकी ताकत बन गई।
लकवा और अंतिम संघर्ष (1888-1890)
जिंदगी के आखिरी साल मुश्किलों से भरे थे। 1888 में ज्योतिबा को लकवा मार गया। उनकी दाहिनी तरफ कमजोर हो गई, पर उनका हौसला नहीं डगमगाया। वे बिस्तर पर लेटे-लेटे भी अपने अनुयायियों से मिलते, लिखते, और समाज को जगाते रहे। यह उनकी जिंदगी की आखिरी बड़ी लड़ाई थी—बीमारी से जूझते हुए भी हार न मानना। आखिरकार, 28 नवंबर 1890 को, 63 साल की उम्र में, पुणे में उनकी साँसें थम गईं। यह एक दुखद घटना थी। उस दिन सावित्रीबाई और उनके चाहने वाले रो पड़े, पर ज्योतिबा की मशाल बुझी नहीं।
विरासत और आखिरी निशान
ज्योतिबा के जाने के बाद सावित्रीबाई ने उनके काम को आगे बढ़ाया। उनकी मौत के सात साल बाद, 1897 में, सावित्रीबाई भी प्लेग की चपेट में आकर चल बसीं। लेकिन ज्योतिबा की कहानी खत्म नहीं हुई। बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा, “मेरे तीन गुरु हैं—बुद्ध, कबीर, और ज्योतिबा फुले।” उनकी नींव पर ही दलित आंदोलन खड़ा हुआ। आज भी, 10 अप्रैल 2025 को, उनकी जयंती से ठीक एक दिन पहले, हम उनकी कहानी सुनते हैं और सीखते हैं कि एक इंसान कितना कुछ बदल सकता है।