न्याज़िया
गजल। ग़ज़ल क्या है ?हर सूरत में खूबसूरती का बयान, महबूब की जानिब ,या और कुछ भी है ,ये दिल नशीं एहसास ,जो अरबी साहित्य की काव्य विधा थी पर चलते-चलते फ़ारसी, उर्दू, नेपाली और हिंदी साहित्य में भी बड़े हक़ के साथ शामिल हुई और मक़बूल हुई लेकिन जब मौसिक़ी में ढलने लगी तो इसने अपनी अलग पहचान हासिल कर ली और इसे जब गाया गया तो इरानी और भारतीय संगीत का मिला जुला एक मुख्तलिफ रूप निकल कर सामने आया और ग़ज़ल गायक ,बतौर गुलूकार बेहद दिलकश अंदाज़ में इसे पेश करने लगे।
पर इसमें होता क्या है ,आइए समझते हैं
दरअसल ग़ज़ल उन शेरों का गुच्छा या समूह है जिसे ग़ज़ल के मुखड़े के हिसाब से एक ही बहर और वज़न में लिखा जाता है।
ग़ज़ल में कितने शेर होते हैं
ग़ज़ल में शेरों की संख्या यूं तो लिखने वालों के ऊपर ही निर्भर होती है जिसमें 5 से लेकर 25 तक शेर हो सकते हैं लेकिन कोशिश की जाती है कि ये संख्या विषम हो ,जसे – तीन, पाँच, सात..। पर ज़रूरी नहीं कि ये शेर एक ही बात को अंजाम तक पहुंचाए ,ये एक दूसरे से अलग बात भी कह सकते हैं और मुखड़े तक पहुंच कर ग़ज़ल को एक रूपता दे देते हैं ,ऐसे शेर कता बंद कहलाते हैं।
ग़ज़ल के हर शेर का अलग नाम और दर्जा
ग़ज़ल के पहले शेर को मतला कहते हैं और आख़री शेर को मक़्ता कहते हैं। मक़्ता कहने को तो आखिरी शेर होता है लेकिन इसकी अहमियत थोड़ी ज़्यादा होती है क्योंकि इसमें शायर अक्सर अपना नाम कहीं न कहीं इस्तेमाल करते हैं जिससे वो ग़ज़ल कभी भी कोई भी गाए शायर का नाम सबको पता चल जाता है ।
क्या है रदीफ, काफ़िया और मिस्रा
ग़ज़ल के शेर में तुकांत शब्दों को क़ाफ़िया कहा जाता है और शेरों में दोहराए जाने वाले शब्दों को रदीफ़ कहा जाता है। शेर की पंक्ति को मिस्रा कहा जाता है। मतले के दोनों मिस्रों में काफ़िया आता है और बाद के शेरों की दूसरी पंक्ति में काफ़िया आता है। रदीफ़ हमेशा काफ़िये के बाद आता है। रदीफ़ और काफ़िया एक ही शब्द के भाग भी हो सकते हैं और बिना रदीफ़ का शेर भी हो सकता है जो काफ़िये पर खत्म होता हो।
सबसे अच्छा शेर क्या कहलाता है
ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेर को शाह -ए – बैत कहा जाता है।
जिसे लोग बेहद पसंद करते हैं और बारहां सुनने की ख्वाहिश जता कर शाह – ए – बैत का दर्जा दिला भी देते हैं ।
दीवान क्या है
ग़ज़लों के संग्रह को दीवान कहते हैं जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक ग़ज़ल ज़रूर हो। ये भी बताते चलें कि उर्दू का पहला दीवान शायर कुली कुतुबशाह का है।
ग़ज़लें कितने तरह की होती हैं
तुकबंदी या तुकांतता के आधार पर हम ग़ज़ल को दो हिस्सों में बांट सकते हैं ,जिनमें पहला है – मुअद्दस ग़जलें- जिन ग़ज़ल के अशश्आरों में रदीफ़ और काफ़िया दोनों का बराबर ध्यान रखा जाता है और दूसरी हैं मुकफ़्फ़ा ग़ज़लें- जिन ग़ज़ल के अशश्आरों में केवल काफ़िया का ध्यान रखा जाता है। भाव या जज़्बातों के आधार पर भी इन्हें दो भागों में बांटा जाता है, जिनमें पहले आती हैं, मुसल्सल ग़ज़लें- जिनमें शेर का भावार्थ एक दूसरे से आद्यंत जुड़ा रहता है और दूसरी ग़ैर मुसल्सल ग़ज़लें- जिनमें हर एक शेर का भाव स्वतंत्र होता है।
अरबी से फारसी तक का सफर
यूं तो ग़ज़ल अरबी ज़ुबान से फारसी तक पहुंचते हुए कई आयामों से गुज़री और फली फूली भी लेकिन इसके पैग़ाम में थोड़ा बदलाव आ गया, अब ये केवल भौतिक प्रेम की बात नहीं करती थी बल्कि अब इसका प्रेम कुछ दायरे तोड़ आध्यात्म की तरफ भी जाने लगा था यानी इसका इश्क़ ए मिज़ाज अब हक़ीक़ी होने लगा था या कहलें फारसी ग़ज़ल में आशिक़ को साधक या सादिक़ कहा गया तो माशूका को पूजनीय या इबादत के लायक माना गया। ये अंदाज़ जब सूफियाना सादिक़ों तक पहुंचा तो इसमें वो दुख बांटा गया जो ईश्वर या रब से साझा किया जाता है, अपने महबूब को महबूब ए ख़ुदा यानी अल्लाह के प्यारों में शामिल किया जाता है और पीर ओ मुर्शिद के कलाम ग़ज़लों में उतरे।
अब आई उर्दू की बारी
जब ग़ज़लें उर्दू में ढलीं तो पहले उत्तर भारत का रुख़ किया, जहां इसे उस वक़्त तो ज्यों का त्यों अपना लिया गया लेकिन इनमें जल्द ही गीतों की छाप पड़ी क्योंकि ये दौर था ,बहमनी सल्तनत का और जगह थी दक्कन जहाँ गीतों से प्रभावित ग़ज़लें लिखी गयीं और इस नई मिलीजुली भाषा को नाम मिला रेख़्ता जिसका शाब्दिक अर्थ है,बिखरा हुआ ,गिरा- हुआ ,मिश्रित। जिसमें अपने हिसाब से कुछ भी उठाया जा सके। वली दकनी, सिराज दाउद आदि इसी प्रथा के शायर थे जिन्होंने ज़्यादातर अमीर ख़ुसरो के दौर यानी १३१० इस्वी की परंपरा को अपनाया और आगे बढ़ाया। अब दक्किनी उर्दू के ग़ज़लकारों ने अरबी फारसी की जगह भारतीय काव्य प्रतीकों,परंपराओं एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लेकर रचना की, लेकिन उस समय उत्तर भारत में राजकाज की भाषा फारसी थी, इसलिए ग़ज़ल पर फारसी का असर दिखने लगा यहां तक कि ग़ालिब जैसे उर्दू के शायर भी फारसी ग़ज़लों को ही अहमियत देते रहे, जिसकी वजह से उर्दू ग़ज़लों को कुछ फारसी शब्दों से सजाया गया।
दौर -ए-दाऊद
दाउद के दौर में फारसी का प्रभाव कुछ कम हुआ जिसे हम इकबाल की शुरुआती ग़ज़लों में साफ – साफ देख सकते हैं ।
अब ग़ज़ल हिंदी रचनाकारों को भी भानें लगी
धीरे धीरे ग़ज़ल का ये नया रूप सबको इतना भाया कि हिंदी के कई रचनाकारों ने इस विधा को अपना लिया। जिनमें निराला, शमशेर, बलबीर सिंह रंग, भवानी शंकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन आदि प्रमुख रहे फिर भी हम कह सकते हैं कि सबसे ज़्यादा प्रसिद्धि दुष्यंत कुमार को मिली।