Story of Aalah | माँ शारदा के अनन्य भक्त का क्या था रीवा से नाता?

Story of Aalah Maihar | Alha Ghat Rewa | Maihar Alha Story In Hindi | Alha Udal Ki Kahani

Story of Aalah Maihar | Alha Ghat Rewa | Maihar Alha Story In Hindi | Alha Udal Ki Kahani | नवरात्रि के पावन पर्व में, बात जब विंध्य और बघेलखंड की होती है, तो मैहर में त्रिकूट पर्वत पर निवास करने वाली माँ शारदा की बात जरूर होती है, और माँ शारदा का जिक्र हो, तो उनके अमर भक्त आल्हा का जिक्र ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता। आल्हा जिन्हें माँ शारदा का परम भक्त माना जाता है, कहते हैं उन्होंने माँ शारदा की 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की और अमरत्व का वरदान पाया। माना जाता है आल्हा अभी भी अमर हैं, और अभी भी प्रतिदिन सुबह माँ शारदा का प्रथम पूजन करने आते हैं। कौन थे आल्हा और उनका संबंध रीवा और विंध्य से क्या है? आइए इस वीडियो में जानते हैं।

आल्हा से संबंधित कई सारी कथाएँ लोक में प्रचलित हैं, उनसे सबंधित कोई अभिलेखीय साक्ष्य तो नहीं हैं, लेकिन जगनिक द्वारा रचित परमल रासो के आल्हा खंड में आल्हा की कहानी आती है। जिसके अनुसार आल्हा चंदेल राजा परमार्दी देव के सामंत थे, उनके छोटे भाई का नाम ऊदल था। कथानुसार बनाफर कुल के दो भाई दच्छराज और बच्छराज चंदेल राजा परमार्दी देव के सेनापति थे, एक बार मांडू के राजा करिंगा राय ने महोबा पर आक्रमण किया और धोखे से दोनों भाइयों को बंदी बना कर मांडू ले गया, वहाँ उन दोनों भाइयों को कोल्हू में पीस कर मार डाला और सिर किले के द्वार पर तोरण की तरह लटका दिया। आगे चलकर दच्छराज के दो पुत्र आल्हा और ऊदल हुए और बच्छराज के भी दो पुत्र मलखान और सुलखे हुए, अपने पिता के मृत्यु के समय ये भाई अत्यंत छोटे थे, बड़े होने के बाद कालांतर में इन्होंने मांडू के राजा से अपने बाप का बदला भी लिया और चारों भाई चंदेल राजा के दरबार में आ गए, राजा ने आल्हा और ऊदल को दशपुरवा और मलखान और सुलखे को सिरसागढ़ की जागीर दी। माना जाता है ये चारों भाई अत्यंत वीर और दुर्घष लड़ाके थे, जो चंदेल राजा के लिए युद्ध किया करते थे। इनका अत्यंत प्रसिद्ध युद्ध दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के साथ हुआ, जब उन्होंने महोबे पर चढ़ाई की थी, माना जाता आल्हा के तीनों भाई महोबे की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए, तब क्रोधित आल्हा ने माँ शारदा का स्मरण किया और बड़ा भंयकर युद्ध करते हुए समस्त चौहान सेना को अत्यंत नुकसान पहुँचाया, लेकिन तभी उस क्षेत्र से बाबा गोरखनाथ गुजरे, उन्होंने भविष्य में तुर्कों द्वारा भारत की दुर्दशा का हवाला देकर आल्हा को रोका, बांधवों की मृत्यु से अत्यंत दुखी आल्हा बाद में वन में चले गए और तपस्वी हो गए।

अब चूंकि लोक में प्रचलित इस आल्हाखंड के आधार पर और चंदेल राज्य का नाम सुनकर ज्यादातर लोग यही मानते हैं, आल्हा और ऊदल बुंदेलखंड से संबंधित हैं, लेकिन आल्हा से जुड़े ज्यादातर स्थान बुंदेलखंड में नहीं बल्कि बघेलखंड में हैं। उनसे बारे में प्रचलित सर्वाधिक लोकप्रिय कथाएँ मैहर से संबंधित हैं, कथाओं के अनुसार आल्हा अभी भी रोज माँ शारदा के दर्शन के लिए आते हैं, मैहर में आल्हा का मंदिर है जहां आल्हा की पूजा लोकदेवता के तौर पर होती है, पास में ही एक तलैया और अखाड़ा भी है, अखाड़े के बारे में मान्यता है, यहाँ आल्हा अपने भाइयों के साथ कुश्ती लड़ते थे। लेकिन मैहर के अतिरिक्त भी रीवा में कुछ स्थान ऐसे हैं, जिनके बारे में लोग कम जानते हैं। ऐसे ही कुछ स्थानों का जिक्र भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जनक जनरल कनिंघम ने अपनी किताब “रिपोर्ट्स ऑफ ए टूर इन बुंदेलखंड एंड रीवा” में किया है, बता दें उन्होंने 1883 से 1885 के बीच दो बार विंध्य क्षेत्र की यात्रा की थी। ऐसा ही एक स्थान है आल्हाघाट, जो रीवा से लगभग 50 किलोमीटर दूर सिरमौर तहसील में स्थित है। यहाँ एक प्राकृतिक गुफा है, जिसके बारे में यह माना जाता है, यहाँ आल्हा ने माँ शारदा की 12 वर्षों तक तपस्या की थी। गुफा से लगभग 100 मीटर की दूरी पर एक पत्थर नुमा खंड स्थित है, जहां कुल तीन शिलालेख मिले हैं, हालांकि यह आल्हा से संबंधित नहीं हैं, लेकिन इनसे कुछ अनुमान लगाया ही जा सकता है। दरसल ये लेख त्रिपुरी के कल्चुरि वंश के राजा नरसिंघदेव के समय 1159 ईस्वी के हैं।

आल्हाघाट से कुछ मील फासले पर ही रीवा और प्रयाग बॉर्डर के निकट टमस नदी के उस पार स्थित एक गाँव चिल्ला है, जहां पर एक कोट स्थित है, जिसके बारे में यह मान्यता है, यह आल्हा की कोट है। यहाँ एक खंडहरनुमा भवन भी बना है, जो माना जाता है आल्हा का किला था और आल्हा अपने परिवार के साथ यहाँ रहते थे। कनिंघम इस संरचना को 8वीं 9वीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी के बीच का मानते हैं, और इसकी तुलना ग्वालियर के राजा मान सिंह के भवनों से करते हैं।

पूर्वमध्यकाल में विंध्य क्षेत्र पर त्रिपुरी के कल्चुरियों का अधिकार था, लेकिन इस क्षेत्र को लेकर त्रिपुरी के कल्चुरि राजाओं और कालिंजर के चंदेल राजाओं के मध्य सतत संघर्ष होते रहते थे, कभी चंदेल इन क्षेत्रों को कल्चुरियों से छीन लेते थे, कभी कल्चुरियों द्वारा इन क्षेत्रों को पाने के प्रयास किए जाते थे। इसकी पुष्टि ककरेड़ी के महाराणकों के अभिलेखों से भी होती है, जो पहले कल्चुरियों की अधीनता स्वीकार करते थे, लेकिन बाद में चंदेलों की अधीनता स्वीकार करने लगे थे। रीवा के त्योंथर तहसील के पनवार गाँव में चंदेल राजा मदनवर्मा के लगभग 48 सिक्के प्राप्त हुए हैं, जो रीवा पठार के क्षेत्रों पर चंदेलों के शासन की पुष्टि करते हैं।

हमने वीडियो में पहले बताया था, आल्हाघाट से 1159 ईस्वी में लिखे गए कल्चुरि राजा नरसिंघ देव के अभिलेख मिले थे, इसके बाद कोई कल्चुरि अभिलेख रीवा पठार के क्षेत्रों में नहीं पाए जाते हैं, नरसिंह के बाद उसका भाई जयसिंह त्रिपुरी का शासक बना, लेकिन उसे चंदेल राजा परमार्दी द्वारा पराजित होना पड़ा था। इसीलिए हो सकता है चंदेल राजा ने यह क्षेत्र आल्हा-ऊदल को दे दिया हो, कनिंघम के कथनअनुसार चिल्ला के कोट में उनका दुर्ग स्थित था। यह बात ऐसे भी पुष्ट होती है, बताया जाता है बांधवगढ़ के किले में एक ऊदल की कोठरी स्थित थी जिसके बारे में माना जाता चंदेल राज्य के सामंत ऊदल ने यहाँ आक्रमण किया था, लेकिन सारंगदेव नाम के राजा के हाथों उसे पराजित होकर बांधवगढ़ के दुर्ग में कैद होना पड़ा, कुछ इतिहासकार इस राजा को बघेलवंश का मानते हैं, लेकिन बघेलों का और आल्हा-ऊदल के समय में साम्यता नहीं है, बघेलों का इस क्षेत्र में आगमन चंदेल और कल्चुरि सत्ताओं के पतन के बाद हुआ। इसीलिए बहुत संभव है ऊदल को कैद करने वाला राजा कल्चुरियों का कोई स्थानीय सामंत रहा होगा, जिसने युद्ध के लिए आए ऊदल को कैद कर लिया होगा।

इस क्षेत्र में आल्हा-ऊदल के स्थिति के बारे में कुछ जानकारी महाराजा छत्रसाल के पत्रों से भी प्राप्त होती है, दरसल सतना जिले का बिरसिंहपुर जो कभी रीवा राज्य का हिस्सा था 18 वीं शताब्दी में महाराज छत्रसाल ने यह क्षेत्र बघेलों से छीन लिया था, यहाँ पर उस समय कुछ तलवारें इत्यादि प्राप्त हुईं थीं, जिसके बारे में यह मान्यता थी, आल्हा-ऊदल की तलवार है। महाराज छत्रसाल को पत्र लिखकर उनके पुत्र जगतराय बिरसिंहपुर से प्राप्त उन तलवारों के बारे में पूछते हैं।

हालांकि हम किसी इतिहास का दावा नहीं करते हैं, लेकिन जनश्रुतियां और साक्ष्य इस तरफ पर्याप्त इशारा करते हैं, आल्हा का संबंध विंध्यक्षेत्र और रीवा से था। यह वीडियो आपको कैसा लगा, हमें जरूर बताइए, जुड़े रहें शब्द सांची विंध्य के साथ, धन्यवाद!

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