Some truths and myths related to Maharana Pratap in hindi: जब मुग़लिया सल्तनत की सीमाएं अकबर के नेतृत्व में लगभग पूरे हिंदुस्तान में विस्तारित हो रहीं थीं, तब उनके बीच में मेवाड़ अपने राणा के नेतृत्व में लगातार निरंकुश मुग़ल सत्ता से संघर्ष कर रहा था, वह राणा थे प्रताप, जिन्हें हिंदुआ सूरज और मेवाड़ केसरी भी कहा जाता है। 9 मई 1540 को कुम्भलगढ़ में राणा उदय सिंह और महारानी जीवंत कंवर सोनगरा के यहाँ महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। उनके बारे में लोगों के पास बहुत भ्रामक जानकारियाँ हैं, सोशल मीडिया इन्हें और ज्यादा फैलाने का काम करता है। आज सोशल मीडिया के दौर में भ्रामक बातें बहुत फैलती हैं, महाराणा प्रताप से जुड़े कुछ ट्रुथ और मिथ को हम भी जानने की कोशिश करते हैं। यहाँ कुछ बातों का जिक्र करते हैं –
- 80 किलो का भाला- यह हास्यास्पद बात है, महाराणा की महानता 80 किलो के भाले में नहीं हैं, शस्त्र जितने ही हल्के होते हैं चलाने में उतने ही तेज होते हैं, यूरोपियन तलवारें भारतीयों के अपेक्षा हल्की होती थीं, सम्हालने में आसान और चलाने में तेज। उदयपुर के राजकीय संग्रहालय में महाराणा प्रताप के कवच और अस्त्र-शस्त्र अभी भी रखें हैं, उन सबका मिला कर वजन लगभग 35 किलो होगा, जो उस समय के हिसाब से आम बात है।
- जंगलों में रहना और घाँस की रोटी खाना – राजस्थान के इतिहासकार इसका खंडन पहले ही कर चुके हैं, महाराणा ने कभी घाँस की रोटियां नहीं खाई, मेवाड़ के छप्पन और बागड़ प्रदेश में महाराणा रहे और चावण्ड को अपनी राजधानी बनाई। वह क्षेत्र जंगली था, राजपूतों में मांसाहार भी प्रचलित था, महाराणा खुद कुशल शिकारी थे, उनकी मृत्यु भी शिकार खेलने से लगने वाली चोट के कारण हुई थी। मेवाड़ में कृषि भी होती थी, वह कोई रेगिस्तान थोड़े ना था, इसके अलावा उनकी प्रजा का उनसे इतना ज्यादा जुड़ाव तथा उनको अनाज, दूध और सब्जियों की बराबर सप्लाई हो रही थी। महाराणा ने लंबा संघर्ष किया कोई भूखे पेट थोड़े न लड़ सकता है। पानीपत की तीसरी लड़ाई में में मराठो के पतन का एक कारण सप्लाई का ना मिलना भी था।
- उनके अपने लोगों ने या यों कहें दूसरे राजपूतों ने उनका साथ नहीं दिया- उनकी सेनाओं में हरावल में लड़ने वाले राजपूत ही थे, उनके सामंत और सरदार उनके साथ संघर्षरत थे। पहले मारवाड़ और बूंदी और बाद में डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और सिरोही के शासक, ग्वालियर के निर्वासित तोमर सरदार बराबर उनका सहयोग दे रहे थे। उनके भाई सगर सिंह और जगमाल सिंह को छोड़ दे तो सभी उनके साथ थे। उनके राज्यधिकारी भी उनके प्रति ईमानदार थे, जिनमें मेवाड़ के खजाँची भामाशाह का नाम आज भी याद भी किया जाता है। उनकी प्रजा भी उनके संघर्ष की साक्षी थी। भीलों ने उनके लिए कवच का काम किया उनके लिए ख़ुफ़िया तंत्र की तरह काम किया, सप्लाई पहुंचाई। हाकिम खान सूर के नेतृत्व में अफगान भी महाराणा के झंडे तले लड़ रहे थे, अफगान अच्छे तोपची और बंदूकची होते थे उन्हें इनकी तकनीकी भी पता होती थी।
- उनका आंकलन केवल हल्दीघाटी से – कुछ इतिहासकारों ने उनका आंकलन हल्दीघाटी के युद्ध से कर इतिश्री कर ली, लेकिन यह तो महज शुरूआत थी उनके संघर्ष की, उन्होंने लंबा संघर्ष किया और मुगलों को कई बार पराजित किया जिसमें दिवेर के युद्ध का जिक्र किया जाता है। 1597 में अपनी मृत्यु से पहले मांडलगढ़ और चित्तौड़ को छोड़कर लगभग पूरा मेवाड़ पुनः जीत चुके थे। सुप्रसिद्ध इतिहासकार सतीशचंद्र के अनुसार वह छापामार युद्धों के द्वारा संघर्ष करते रहे जिसे बाद में दक्कन में मलिक अम्बर और शिवाजी महाराज ने भी मुगलों के विरुद्ध यही रणनीति अपनाई।
- अकबर के लिए मेवाड़ और और महाराणा बहुत महत्वपूर्ण नहीं थे – यह भी बात अतिरंजित है। मेवाड़- गुजरात और मुग़ल राजधानियों दिल्ली, आगरा और फतेहपुर के मध्य पड़ता था। मुग़लकालीन भारत का सबसे बड़ा बंदरगाह और व्यापारिक नगर सूरत था जहाँ विदेशी व्यापारी खूब आते जाते थे, हज की यात्रा भी इन्हीं बंदरगाहों से होती थी, इसीलिए मेवाड़ का नियंत्रण अकबर के लिए हितकर था। इसीलिए मेवाड़ के विरुद्ध दो सैनिक अभियानों में अकबर ने भाग लिया था, और बाद में भी जहाँगीर और शाहजहाँ ने अपने युवराज काल में और औरंगजेब ने बादशाह रहते हुए मेवाड़ के विरुद्ध सैनिक अभियानों में भाग लिया था। महाराणा को समझाने के लिए उसने चार बार शिष्टमंडल भेजा था जो टोडरमल, इस्माइल खान कुर्ची, राजा भगवंत दास और कुंवर मान सिंह के नेतृत्व में गए थे। यहाँ पर कुछ कहानियों में मान सिंह का महाराणा द्वारा अपमानित करने का जिक्र आया है, लेकिन राजस्थान का इतिहास लिखने वाले ओझा समेत अन्य इतिहासकारों ने इसे सत्य नहीं माना है। इतिहासकार डॉ सतीशचंद्र कहते हैं- राणा अपने शत्रुओं से भी शूरवीरों जैसा और शिष्ट व्यवहार रखते थे।
- एक समय महाराणा मुगलों से समझौता करने वाले थे – आजकल सोशल मीडिया में लोग कुछ भी लिखते रहते हैं बिना किसी सोर्स के, कि महाराणा समझौता करने वाले थे लेकिन वह 10 हजार का मनसब चाहते थे वह नहीं मिला तो समझौता नहीं हो पाया। किसी भी इतिहासकार ने मनसब वाली बात का जिक्र नहीं किया है, यह संभव भी नहीं था। डॉ सतीशचंद्र और कुछ इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि एक बार राणा तैयार हो गए थे, लेकिन यहाँ भी ऑथेंटिक सोर्स की जगह अबुल फज़ल के अकबरनामा के एक घटना के जिक्र के साथ उन्होंने ऐसा कहा, दरसल जब मान सिंह महाराणा से मिलने गए तो वो वह अपने साथ उपहार भी साथ ले गए जिसे महाराणा ने स्वीकार किया, लेकिन यह केवल एक शिष्टाचार था और कुछ भी नहीं। हालांकि गौरीशंकर हीराचंद ओझा और दूसरे कई इतिहासकार इस बात को सत्य नहीं मानते कि राणा ने उपहार लिया था। मराठो के दौर में भी ऐसे उपहार राजा शासक एक दूसरे को भेजते थे, शिवाजी महाराज द्वारा औरंगजेब को और औरंगजेब द्वारा शिवाजी महाराज को भी उपहार दिए जाने का जिक्र है। पेशवा द्वारा मुग़ल सरदारों और बादशाह को और मुगलों द्वारा पेशवाओं और दूसरे मराठा सरदारों को उपहार भेजे जाते थे। उनके दूत एक दूसरे के कोर्ट्स में भी रहते थे, दादो भीमसेन नाम के एक दूत का मुग़ल दरबार में रहने का जिक्र है जो पेशवा के प्रतिनिधि के तौर रहता था। जबकि मराठा और मुग़ल बराबर लड़ रहे थे।
कीका के नाम से प्रसिद्ध महाराणा प्रताप ने अजीवन मुगलों से संघर्ष किया, जो मुग़ल सत्ता अकबर के समय में उत्तर में काबुल-कश्मीर से लेकर दक्षिण में खानदेश तक विस्तृत थी, पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैली थी उसके बीच मेवाड़ राणा के नेतृत्व में लगातार संघर्ष कर रहा था।