Ustad Bismillah Khan Biography In Hindi | उस्ताद बिस्मिल्लाह खान एक ऐसे भारतीय संगीतकार हैं , जिनका नाम शहनाई के साथ अमित रूप से जुड़ा है जी हां शहनाई जिसे एकल रीड वुडविंड वाद्ययंत्र की श्रेणी में रखा जाता है आपको ही उसको लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिया जाता है । उन्होंने इसे इतनी अभिव्यंजक प्रतिभा के साथ बजाया कि वो एक प्रमुख हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीतकार बन गए।
हालांकि शहनाई का लंबे समय से एक लोक वाद्य के रूप में महत्व रहा है, जो मुख्य रूप से पारंपरिक समारोहों में बजाई जाती है, लेकिन उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को इसे संगीत कार्यक्रम के मंच पर लाने का श्रेय दिया जाता है।
वैसे तो वो एक कट्टर मुस्लिम थे, लेकिन हिंदू और मुस्लिम दोनों समारोहों में प्रस्तुति देते थे और उन्हें धार्मिक सद्भाव का प्रतीक माना जाता था। उन्होंने 1966 से पहले अन्य देशों में प्रदर्शन करने के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया लेकिन जब भारत सरकार ने इस बात पर ज़ोर दिया कि वो एडिनबर्ग अंतर्राष्ट्रीय महोत्सव में हिस्सा लें तब वो राज़ी हुए और इससे उन्हें पश्चिम में भी लोकप्रियता हासिल हुई ,इसके बाद वे यूरोप और उत्तरी अमेरिका में जाते रहे। पुरस्कारों की बात करें तो :-
2001 में, बिस्मिल्लाह खान को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न से सम्मानित किया गया था, वो एमएस सुब्बालक्ष्मी और रविशंकर के बाद भारत के तीसरे शास्त्रीय संगीतकार बने , जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
कहां से था नाता
बिस्मिल्लाह खान का जन्म 21 मार्च 1916 को ब्रिटिश भारत के डुमरांव शहर में पारंपरिक मुस्लिम संगीतकारों के एक परिवार में पैगम्बर बक्स खान और मिट्ठनबाई के दूसरे बेटे के रूप में हुआ था। उनके पिता बिहार के डुमरांव एस्टेट के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में एक दरबारी संगीतकार थे । उनके दादा उस्ताद सालार हुसैन खान और रसूल बक्स खान भी डुमरांव महल में संगीतकार थे।
कैसे पड़ा बिस्मिल्लाह खान नाम?
दरअसल पैदाइश के बाद उनका नाम क़मरूद्दीन रखा गया था, जो उनके बड़े भाई के नाम शम्सुद्दीन से मिलता था लेकिन उनके दादा रसूल बख्श खान, जो शहनाई वादक थे उन्होंने , इस बच्चे को “बिस्मिल्लाह”, या “अल्लाह के नाम से शुरू होने वाला ” कह कर पुकारा , और उसके बाद उन्हें उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के नाम से जाना जाने लगा।
बनारस से लगाव
बिस्मिल्लाह खां को संगीत विरासत में मिला था ,उनके खानदान के लोग राग दरबारी बजाने में माहिर थे. उनके पिता बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादक थे. महज 6 साल की उम्र में बिस्मिल्लाह खां अपने पिता के साथ बनारस आ गए. वहां उन्होंने अपने चाचा अली बख्श ‘विलायती’ से शहनाई बजाना सीखा. जो उनके उस्ताद भी रहे, चाचा ‘विलायती’ विश्वनाथ मन्दिर में स्थायी रूप से शहनाई-वादक थे. इसलिए उस्ताद जी को बनारस से काफी लगाव था और वो कहा करते थे कि बनारस के अलावा उनका कहीं भी मन नहीं लगता. कैसे किया इस सफर का आग़ाज़:
14 साल की उम्र में उन्होंने पहली बार इलाहाबाद के संगीत परिषद् में शहनाई बजाई . जिसके बाद से वो पहली श्रेणी के शहनाई वादक के रूप में निखरकर सामने आए. उन्हें पहला बड़ा मौका 1937 में मिला, जब उन्होंने कोलकाता में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में एक संगीत कार्यक्रम में प्रस्तुति दी। इस प्रदर्शन ने शहनाई को सुर्खियों में ला दिया और संगीत प्रेमियों ने इसे खूब सराहा।
इसके बाद उन्होंने अफगानिस्तान, अमेरिका, कनाडा, बांग्लादेश, ईरान, इराक, पश्चिम अफ्रीका, जापान, हांगकांग और यूरोप के विभिन्न हिस्सों सहित कई देशों में अपनी शहनाई से लोगों का दिल जीता। अपने शानदार करियर के दौरान उन्होंने दुनिया भर में कई प्रमुख कार्यक्रमों में भाग लिया। उनके किए गए कुछ कार्यक्रमों में मॉन्ट्रियल में विश्व प्रदर्शनी , कान्स कला महोत्सव और ओसाका व्यापार मेला भी शामिल हैं।
उनकी ये लगन ये शिद्दत धीरे धीरे रंग लाने लगी और उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और तानसेन पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो वहीं साल 2001 मे भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारतरत्न’ से नवाज़ा गया. आपका भारत में फिल्मों से भी कुछ समय के लिए जुड़ाव रहा।
उन्होंने विजय की कन्नड़ भाषा की फिल्म सनदी अप्पन्ना में राजकुमार की अप्पन्ना की भूमिका के लिए शहनाई बजाई, जो एक ब्लॉकबस्टर रही फिर उन्होंने सत्यजीत रे की जलसाघर में अभिनय करके अपने चाहने वालों को एक झलक भी दिखाई और विजय भट्ट की 1959 की फिल्म गूंज उठी शहनाई के लिए भी शहनाई बजाई । कुछ साल बाद प्रसिद्ध निर्देशक गौतम घोष ने (1989) की संगे मील से मुलाकात का निर्देशन किया , जो बिस्मिल्लाह खान के जीवन के बारे में एक भारतीय वृत्तचित्र फिल्म थी।
15 अगस्त 1947 को देश की आज़ादी की पूर्व संध्या पर लालक़िले पर फहराते तिरंगे के साथ बिस्मिल्लाह खान की शहनाई ने आज़ाद भारत का स्वागत किया था. ख़ास बात ये है कि खुद जवाहर लाल नेहरू ने शहनाई वादन के लिए उन्हें आमंत्रित किया था.
– बिस्मिल्लाह खां ने ‘बजरी’, ‘चैती’ और ‘झूला’ जैसी लोकधुनों में शहनाई को अपनी तपस्या और रियाज़ से खूब संवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को एक आला मकाम दिलाया.
आखिरी पड़ाव
उनकी शहनाई की धुन अफगानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ्रीका, अमेरिका, जापान, हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी देशों में गूंजती रही. और कई पुरस्कार अपने नाम करती रही , ये सिलासिला थमा 21 अगस्त 2006 को जब वो अपना साज़ छोड़कर मौसिकी की आगो़श में सो गए उनकी मृत्यु के बाद देश ने राष्ट्रीय शोक घोषित किया।
मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की 102वीं जयंती पर . सर्च इंजन गूगल ने भी डूडल बनाकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की है. गूगल के डूडल में उस्ताद शहनाई बजाते नज़र आ रहे हैं. उनकी शहनाई की धुन का दीवाना आज भी हर कोई है. उनकी शहनाई सुनके यूं लगता है आत्मा का परमात्मा से मिलन हो गया हो ,इतनी संतुष्टि इतना रूहानी सुकून दिल को मिलता है ,जैसे कोई फरिश्ता खुदा से जुड़ने का रास्ता बता रहा हो।