“अटलजी की सरकार में योजना आयोग में रहे एक बड़े दलित नेता प्रो.सूरजभान ने कहा था- हर परिवार को न्यूनतम पाँच एकड़ जमीन दे देजिए और अपना ये आरक्षण अपने पास रखिये ये कामकाजी कर्मठ लोग अपनी हैसियत खुद बना ल़ेगे।”
Author: Jayram Shukla | स्वतंत्रता के बाद भारतमाता की पुनर्प्राणप्रतिष्ठा का सपना पाले गांधी जी इहलोक से प्रस्थान कर गए। अन्ना जैसे सभी समाजसेवी कहते हैं कि आज गांव संकट मेंं हैंं, इस देश को बचाना है तो गांवों को बचाना होगा। मोहन भागवत जी भारतमाता ग्राम्यवासिनी के वैभव की बात करते हैं और गाँवों को बचाने के लिए व्यापक पैमाने पर अभियान की जरूरत पर जोर देते हैं।
गांधी ग्राम स्वराज के पैरोकार थे। उन्हें इसकी पूरी आशंका थी कि आजादी के बाद नई अर्थव्यवस्था का प्रहार गांवों में होगा, और हुआ भी। यूरोपीय दर्शन से प्रभावित पं.जवाहरलाल नेहरू ने शहरों को विकास का मानक बना दिया। श्रम आधारित कुटीर उद्योगों की जगह भारी मशीनों का बोलबाला शुरू हुआ। गांव की मिश्रित अर्थव्यवस्था भंग होती गयी। परिणाम यह हुआ कि 90 के ग्लोबलाइजेशन के बाद, टाटा, बाटा सभी गाँव पहुंच गए।
गांव के परंपरागत कौशल को संगठित व बड़ी कंपनियों ने हजम करना शुरू कर दिया। सबसे पहले इसी वर्ग से काम छिना जो गांव की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था के कारक थे। मध्यप्रदेश के रीवा जिले के जिस बड़ीहर्दी नामक गाँव का मैं निवासी हूँ उसका इतिहास पाँच सौ वर्ष से ज्यादा पुराना है। जो गाँव दो सौ वर्ष भी पुराने होंगे वहां के उम्रदराज लोगों ने आहिस्ता-आहिस्ता ढहती अर्थव्यवस्था को अपनी नजरों से देखा होगा। हमारे गाँव में प्रायः हर वृत्ति के पारंगत लोग थे। लुहार, बढ़ई, सोनार, ठठेर, ताम्रकार, रंगरेज, कोरी, धोबी, रंगरेज, नाई लखेरा, पटवा, मनिहार, बेहना,भड़भूजा बाँस का काम करने वाले बँसोर,चमड़े का जूता बनाने वाले चर्मकार, कुम्हार, बनिया, किसान। सभी एक दूसरे पर निर्भर या यों कहें परस्पर पूरक।
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सन् सत्तर के दशक तक मेरी जानकारी में रुपये का विनिमय महज 10 प्रतिशत था। सभी काम सहकार और वस्तु विनिमय के आधार पर चलते थे। बड़ी कंपनियों के उत्पादों ने गाँव में सेध लगानी शुरू कर दी। सब एक-एक कर बेकार होते गए। आज मेरे गाँव से लगभग समूचा कामकाजी वर्ग पलायन कर गया। लुहारी टाटा ने छीन ली और बाटा चर्मकार होकर पहुंच गए। सोनारों के धंधे में भी ब्राडेंड कंपनियाँ आ गई।
एक बार टीवी डिबेट म़ें मेरे एक साथी ने आपत्ति उठाई कि आप उनके उत्थान के पक्षधर नहीं हैं क्या? मैंने जवाब दिया हूँ.. कैसा उत्थान चपरासी की नौकरी पाना उत्थान है क्या.? जिनके पास सदियों से पीढी़ दर पीढ़ी पारंपरिक कौशल है उसे आधुनिकता के साथ जोड़ा जाना चाहिए। यदि उन्हें ही कौशल संपन्न बनाया जाता तो आज गाँवों में टाटा-बाटा, तनिष्क नहीं घुसते।
सबसे बड़ा खेल राजनीति का रहा। उन्होंने जातियों को वोट बैंक में बदल दिया और आरक्षण की मृगतृष्णा दिखा कर समूचे कामकाजी समाज को नौकरी की लाइन में खड़ा कर दिया। जबकि वास्तविकता यह है कि देश की सत्ता का संचालन करने भगवान् स्वयं आ जाएं तो वे सबको नौकरी नहीं दे सकते। एक सुनियोजित साजिश के तहत परंपरागत कौशल छीन कर उद्योगपतियों के हवाले कर दिया गया।
गांधी ने जो ग्रामोद्योग वाली स्वाबलंबी व्यवस्था सोची थी उसका सत्यानाश हो गया। हर छोटे-बड़े काम उद्योगपतियों के हवाले कर दिए गए। उद्योग जातीय बंधन नहीं मानता इसलिए पंडित बिंदेशरी पाठक आज देश के सबसे बड़े स्वीपर हैं और पंडित विश्वनाथ दुबे (जबलपुर) व देशपांडे जी(पुणे) ने देश के सबसे बड़े मुरगीपालक।
हिंदी भाषा और साहित्य के पुनर्जागरण के प्रतीक भारतेंदु हरिश्चंद्र
आरक्षण से ज्यादा जरूरी था इस वर्ग का आर्थिक सशक्तिकरण। यदि दलित जातियों के पास धन आ जाता तो सामाजिक गैरबराबरी अपने आप मिट जाती। अटलजी की सरकार में योजना आयोग में रहे एक बड़े दलित नेता प्रो.सूरजभान ने कहा था- हर परिवार को न्यूनतम पाँच एकड़ जमीन दे देजिए और अपना ये आरक्षण अपने पास रखिये ये कामकाजी कर्मठ लोग अपनी हैसियत खुद बना ल़ेगे।
सत्तानशीनों से पूछिये क्या हुआ सीलिंग एक्ट का? यह तो सांविधानिक व्यवस्था थी कि एक परिवार के पास निर्धारित रकबा से ज्यादा भूमि न हो। अतिशेष जमीन भूमिहीनों में बाँट दी जाए। छः दशक काँग्रेस का शासन रहा क्या हुआ उस संविधानिक व्यवस्था का। भाजपा सरकार क्योंं नहीं सोचती कि अतिशेष भूमि बाँटी जाए। चौधरी चरण सिंह उत्तरप्रदेश म़े आज भी चकबंदी के फैसले और उसपर कड़ाई से अमल के लिए जाने जाते हैं।
सत्ता में नए जमाने के जमीदार काबिज हैं। जो नहीं थे वे कुर्सी पाते ही बन गए। आज गांवों के सामने नया संकट है। पहला तो यह कि सत्तर प्रतिशत लैंडहोल्डिंग दस प्रतिशत लोगों के पास है। ये दस फीसद लोगों की दोहरी नागरिकता है। हैं किसान पर रहते शहर में हैं। बड़े नगरों की पचास किमी की परिधि में अब ज्यादातर शहरी साहब ही किसान हैं। जमीनों का मालिकाना हक इन्हीं के पास है। ये बड़े अफसर हैं या व्यवसायी। इनका गाँवों की उन्नति से कोई लेना देना नहीं।
निवेश और औद्योगिकीकरण के नाम पर जोत की जमीनें जा रही हैं। नेशनल हाइवेज का विस्तार में भी जोत की जमीन का बड़ा हिस्सा जा रहा है। गांव के जो मध्यमवर्गीय किसान हैं उन्हें डराया जा रहा है कि खेती जोखिम का धंधा है। शहरी कारोबारी ठेके की खेती करने गाँव घुस रहे हैं। हताश किसान एक मुश्त रकम पाकर खेती छोड़ रहा है। सरकारें किसानों की सुविधाओं की बातें तो कर रही हैं लेकिन उनका भरोसा नहीं जीत पा रहीं। यह कथित किसान आंदोलन भी कुछ इसी तरह के भ्रम का परिणाम है।
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कहीं पढ़ा था कि ब्राजील में ऐसा ही हुआ। गांवों में सिर्फ बीस प्रतिशत लोग रह गए। वे पलायन कर शहरों के स्लम में बस गए। खेती शहरी कारोबारियों के कब्जे म़े आ गई। अपना देश जब आजाद हुआ था तब 85 फीसद लोग गावों में रहते थे। अब यह आँकड़ा 65 फीसदी तक पहुंच गया। इस दरम्यान शहरों की संख्या तीन गुना बढ़ गई, नब्बे हजार गाँव खत्म हो गए। जब आजादी मिली थी तब कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 50 प्रतिशत था 2015 में यह 17 प्रतिशत आ गया। 40 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जिन्हें विकल्प मिल जाए तो तत्काल खेती छोड़ दें।
गांधी ने कहा था- प्रत्येक गाँव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वाबलंबी हों तभी सच्चा ग्राम स्वराज आ सकता है। आजाद भारत में जमीन पर अधिकार जमीदारों का नहीं, जोतने वालों का होगा, वही असली मालिक होंगे। गांधी के इस सपने को तिल तिल मारा गया। जिस क्रूर अर्थव्यवस्था की छाया में हम आगे बढ़़ रहे हैं उसके चलते गांवों का वजूद संकट में हैं। व्यवस्था की इस अंधी कोठरी में गाँवों की चिंता करने वालों का होना एक रोशनदान का होना है। भारतमाता ग्राम्यवासिनी, गाँव बचेंगे तभी देश बचेगा। हम सब अपने अपने हिस्से का सोचें और जितना बन सके करें।