वह धान रोपाई का महीना था–जुलाई का अंत–जब बारिश के बाद खेतों में पानी जमा हो जाता है। हम उस दुपहर सिंगरौली के एक क्षेत्र नवा गाँव गए थे। इस क्षेत्र की आबादी पचास हज़ार से ऊपर है, जहाँ लगभग अट्ठारह छोटे-छोटे गाँव बसे हैं। इन्हीं गाँवों में एक का नाम है–अमझर–आम के पेड़ों से घिरा गाँव जहाँ आम झरते हैं। किंतु पिछले दो-तीन वर्षों से पेड़ों पर सूनापन है, न कोई फल पकता है, न कुछ नीचे झरता है। कारण पूछने पर पता चला कि जब से सरकारी घोषणा हुई है कि अमरौली प्रोजेक्ट के तहत नवागाँव के अनेक गाँव उजाड़ दिए जायेंगे तब से न जाने कैसे आम के पेड़ सूखने लगे। आदमी उजड़ेगा तो पेड़ जीवित रह कर क्या करेंगे।
टिहरी गढ़वाल में पेड़ों को बचाने के लिए आदमी के संघर्ष की कहानियाँ सुनी थीं, किंतु आदमी के विस्थापन के विरोध में पेड़ भी एक साथ मिलकर मूक सत्याग्रह कर सकते हैं इसका विचित्र अनुभव सिर्फ़ सिंगरौली में हुआ।
मेरे लिए एक दूसरी दृष्टि से भी यह अनूठा अनुभव था। लोग अपने गाँवों से विस्थापित होकर कैसी अनाथ, उन्मूलित ज़िंदगी बिताते हैं, यह मैंने हिंदुस्तानी शहरों के बीच बसी मज़दूरों की गंदी, दम घुटती, भयावह बस्तियों और स्लम्स में कयी बार देखा था किंतु विस्थापन से पूर्व वे कैसे परिवेश में रहते होंगे, किस तरह ज़िंदगी बिताते होंगे, इसका दृश्य अपने स्वच्छ, पवित्र खुलेपन में पहली बार अमझर गाँव में देखने को मिला। पेड़ों के घने झुरमुट, साफ़-सुथरे खप्पर लगे मिट्टी के झोंपड़े और पानी। चारों तरफ़ पानी. अगर मोटर-रोड की भागती बस की खिड़की से देखो तो लगेगा जैसे समूची ज़मीन एक झील है, एक अंतहीन सरोवर जिसमें पेड़, झोंपड़े, आदमी, ढोर-डंगर आधे पानी में, आधे ऊपर तिरते दिखाई देते हैं, मानो किसी बाढ़़ में सब कुछ डूब गया हो, पानी में धँस गया हो।
किंतु यह भ्रम है … यह बाढ़ नहीं, पानी में डूबे धान के खेत हैं। अगर हम थोड़ी-सी हिम्मत बटोरकर गाँव के भीतर चलें, तब वे औरतें दिखाई देंगी जो एक पाँत में झुकी हुई धान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं; सुंदर, सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगें और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फ़ोटो या फ़िल्मों में देखी हुई वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं। ज़रा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं–बिल्कुल युवा हिरणियों की तरह, जिन्हें मैंने एक बार कान्हा के वन्यस्थल में देखा था। किंतु वे डरती-भागती नहीं, बस विस्मय से मुस्कुराती हैं और फिर सिर झुकाकर अपने काम में डूब जाती हैं। यह समूचा दृश्य इतना साफ़ और सजीव है–अपनी स्वच्छ माँसलता में इतना संपूर्ण और शाश्वत कि एक क्षण के लिए विश्वास नहीं होता कि आने वाले वर्षों में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा–झोंपड़े, खेत, ढोर, आम के पेड़–सब एक गंदी आधुनिक औद्योगिक कॉलोनी की ईंटों के नीचे दब जाएगा–और ये हँसती-मुस्कुराती औरतें भोपाल, जबलपुर या बैढ़न की सड़कों पर पत्थर कूटती दिखाई देंगी। शायद कुछ वर्षों तक उनकी स्मृति में अपने गाँव की तस्वीर एक स्वप्न की तरह धुंधलाती रहेगी किंतु धूल में लोटते उनके बच्चों को कभी मालूम भी नहीं होगा कि बहुत पहले उनके पुरखों का गाँव था जहाँ आम झरा करते थे।
येलोग आधुनिक भारत के नये शरणार्थी हैं जिन्हें औद्योगिकीकरण के झंझावात ने अपनी ज़मीन से उखाड़कर हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया है। प्रकृति और इतिहास के बीच यह गहरा अंतर है। बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घर-बार छोड़कर कुछ अरसे के लिए ज़रूर चले जाते हैं किंतु आफ़त टलते ही वे दोबारा अपने जाने-पहचाने परिवेश में लौट भी आते हैं किंतु विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उन्मूलित करता है तो वे फिर कभी अपने घर वापस नहीं लौट पाते। आधुनिक औद्योगिकीकरण की आँधी में सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं उखड़ता बल्कि उसका परिवेश और आवास स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।
एक भरे-पूरे ग्रामीण अंचल को कितनी नासमझी और निर्ममता से उजाड़ा जा सकता है, सिंगरौली इसका उदाहरण है। कभी-कभी किसी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है। दिल्ली के सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की आँखों से सिंगरौली की अपार खनिज संपदा छिपी नहीं रही। विस्थापन की एक लहर रिहंद बाँध बनने से आई थी जिसके कारण हज़ारों गाँव उजाड़ दिए गये थे। सिंगरौली जो अब तक अपने सौंदर्य के कारण बैकुंठ और अकेलेपन के कारण कालापानी माना जाता था, अब प्रगति के मानचित्र पर राष्ट्रीय गौरव के साथ प्रतिष्ठित हुआ। कोयले की खदानों और उनपर आधारित विद्युत तापगृहों की एक पूरी शृंखला ने पूरे प्रदेश को अपने में घेर लिया।
विकास का यह ‘उजला’ पहलू अपने पीछे कितने व्यापक पैमाने पर विनाश का अँधेरा लेके आया था, हम उसका छोटा-सा जायज़ा लेने दिल्ली में स्थित लोकायन संस्था की ओर से सिंगरौली गये थे। वहाँ जाने से पहले इस तरह का कोई सुखद भ्रम नहीं था कि औद्योगिकीकरण का चक्का, जो स्वतंत्रता के बाद चलाया गया, उसे रोका जा सकता है। शायद पैंतीस वर्ष पहले हम कोई दूसरा विकल्प चुन सकते थे जिसमें मानव सुख की कसौटी भौतिक लिप्सा न होकर जीवन की ज़रूरतों द्वारा निर्धारित होती। पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था भारत में उसकी संभावनायें खुली थीं क्योंकि अपनी समस्त कोशिशों के बाद अंग्रेज़ी राज हिंदुस्तान को संपूर्ण रूप से अपनी सांस्कृतिक कॉलोनी बनाने में असफल रहा था। भारत की सांस्कृतिक विरासत योरोप की तरह म्यूज़ियम्स में जमा नहीं थी–वह उन रिश्तों में जीवित थी जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों–एक शब्द में उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। अतीत का समूचा मिथक संसार पोथियों में नहीं, इन रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौजूद रहता था। योरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है–भारत में यही प्रश्न मनुष्य और संस्कृति के बीच पारस्परिक संबंध बनाए रखने का हो जाता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रैजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने औद्योगिकीकरण का मार्ग चुना, ट्रैजेडी यह रही कि पश्चिम की देखा-देखी और नक़ल में योजनायें बनाते समय प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाज़ुक संतुलन किस तरह नष्ट होने से बचाया जा सकता है इस ओर हमारे पश्चिम शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया।