“अल्लाह ही रहम मौला ही रहम ” की सदा जब भी आती है यूं लगता है कि खुदा हमारी पुकार सुन रहा है और उस्ताद राशिद खान अपने चाहने वालों की दुआएं लेकर जन्नत में आराम फरमा रहे हैं।
एक संगीतकार के अलावा राशिद खान मशहूर गायक भी रहे, उन्होंने ‘राज 3, माई नेम इज खान, और मंटो’ जैसी कई फिल्मों के गानों में अपनी मधुर आवाज़ दी।
शाह रुख खान की फिल्म ‘माई नेम इज खान’ के इस पॉपुलर सॉन्ग ‘अल्लाह ही रहम’ के साथ तो उस्ताद राशिद खान वो रूहानी सुकून देते हैं जिसके लिए इंसान कहां कहां नहीं भटकता और जब हम शाहिद कपूर की सुपरहिट मूवी जब वी मेट’ का गीत”आओगे जब तुम ओ साजना अंगना फूल खिलेंगे” सुनते हैं तो इस इंतज़ार में तड़प नहीं बल्कि ज़िंदगी से मिलने की ललक सुनाई देती है।
आपका जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूँ जिले के सहसवान में हुआ। आपने मौसिकी की शुरुआती तालीम अपने नाना उस्ताद निसार हुसैन खान से हासिल की वो उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान के भतीजे थे।
बचपन में उन्हें संगीत में बहुत कम ही दिलचस्पी थी उनके चाचा गुलाम मुस्तफा खान उनकी संगीत प्रतिभा को पहचानने वाले लोगों में से एक थे, और उन्हें भी संगीत के बहोत से गुर सिखाए थे हालाँकि, उन्होंने अपना मुख्य प्रशिक्षण निसार हुसैन खान से उनके घर, बदायूँ में प्राप्त किया। एक सख्त अनुशासक, निसार हुसैन खान, सुबह चार बजे उठकर आवाज़ प्रशिक्षण यानी ( स्वर साधना ) पर ज़ोर देते थे, और राशिद साहब को घंटों तक पैमाने के एक नोट का अभ्यास कराते थे। एक ही नोट का अभ्यास करने में पूरा दिन बीत जाता था। हालाँकि बचपन में राशिद जी को इससे थोड़ी नफरत थी, लेकिन जल्द ही ये रियाज़ अनुशासित प्रशिक्षण उनके तान और लयकारी में उनकी आसान महारत को दर्शाता लगा जिससे 18 साल की उम्र तक उन्हें अपनी लयकारी या मौसिकी में लुत्फ आने लगा था हालंकि उन्होंने
अपना पहला संगीत कार्यक्रम ग्यारह साल की उम्र में दिया और अगले वर्ष, 1978 में, उन्होंने दिल्ली में आईटीसी के एक संगीत कार्यक्रम में प्रदर्शन किया। अप्रैल 1980 में, जब निसार हुसैन खान आईटीसी संगीत रिसर्च अकादमी (एसआरए), कलकत्ता चले गए, तो राशिद खान भी 14 साल की उम्र में अकादमी में शामिल हो गए थे और 1994 तक, और उन्हें अकादमी में एक संगीतकार के रूप में स्थान मिल गया था। यहां हम आपको ये भी बता दें कि रामपुर-सहसवान गायकी (गायन की शैली) का ग्वालियर घराने से गहरा संबंध था, जिसमें मध्यम-धीमी गति, पूर्ण गले की आवाज़ और जटिल लयबद्ध वादन शामिल थे इसमें राशिद खान ने अपने नाना-नानी की तरह अपने विलाम्बित ख्यालों में धीमी गति से विस्तार शामिल किया, सरगम और तानकारी के उपयोग में असाधारण विशेषज्ञता भी विकसित की।
वो आमिर खान और भीमसेन जोशी की शैली से भी प्रभावित नज़र आते थे और वो भी ,अपने गुरु की तरह तराना के उस्ताद थे, लेकिन उन्हें अपने तरीके से गाते थे, वाद्य स्ट्रोक-आधारित शैली के बजाय ख्याल शैली को प्राथमिकता देते थे जिसके लिए निसार हुसैन प्रसिद्ध थे, वाद्य स्वर की तो कोई नकल ही नहीं है। उनकी प्रस्तुतियाँ उनके मधुर विस्तार में भावनात्मक स्वरों के विस्तार के लिए ही प्रसिद्ध थीं उनका कहना था, कि “भावनात्मक सामग्री अलाप में हो सकती है, कभी-कभी बंदिश गाते समय, या गीत के अर्थ को अभिव्यक्ति देते समय।” हम ये कह सकते हैं कि ये उनकी शैली में आधुनिकता का स्पर्श लाता था, पुराने उस्तादों की तुलना में, जो प्रभावशाली तकनीक और कठिन मार्ग के कुशल निष्पादन पर अधिक ज़ोर देते थे।
राशिद खान ने शुद्ध हिंदुस्तानी संगीत को सुगम संगीत शैलियों के साथ मिलाने का भी प्रयोग किया, उदाहरण के लिए सूफी फ्यूजन रिकॉर्डिंग नैना पिया से जो अमीर खुसरो की रचनाएं हैं या फिर पश्चिमी वाद्ययंत्र वादक लुइस बैंक्स के साथ प्रयोगात्मक संगीत कार्यक्रम ,उन्होंने सितारवादक शाहिद परवेज़ और अन्य लोगों के साथ जुगलबंदी भी की।
उनके गाए कुछ गैर फिल्मी
गीत भी है जो काफ़ी लोकप्रिय हुए , कुछ कॉन्सर्ट भी हुए जो संगीत के पारखियों के लिए अमूल्य धरोहर हैं, उस्ताद राशिद खान को पुरुस्कारों और सम्मान की बात करें तो आपको 2006 में पद्म श्री और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया ,
2010में वैश्विक भारतीय संगीत अकादमी पुरस्कार, 2012 में महा संगीत सम्मान पुरस्कार और बंग भूषण पुरस्कार और 2022 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। ये जीवन गाथा कहती है कि उस्ताद राशिद खान का संपूर्ण जीवन समर्पित रहा संगीत को जिसकी बदौलत वो अपने चाहने वालों के दिलों में हमेशा जावेदा रहेंगे ।