Singer Mehdi Hassan’s death anniversary: ग़ज़ल को सुनने वाले बहोत अच्छे से समझते हैं कि जितने दिलनशीं शेर होते हैं उतने ही पुर कशिश सुर भी हों तभी ग़ज़ल आला मकाम पाती है, मतलब ये गुलूकार की सलाहियत हैं की वो किस तरह हर अल्फाज़ को पेश करे कि ग़ज़ल का हुस्न जज़्बातों की मानिंद सामेईन की आखों में झलक जाए । कुछ ऐसे ही हमारे जज़्बातों को सुरों की गागर में क़ैद किया और छलकाया ‘ शहंशाह ए ग़ज़ल ‘ मेंहदी हसन ने ।
वो एक ऐसे गुलूकार थे जिन्हें सरहदें भी न रोक सकी अपने चाहने वालों को उन्होंने हमेशा अपनी ग़ज़लों और नग्मों से लुत्फ अंदोज़ किया, कुछ युगल गीत उन्होंने ‘सरहदीन’ में ऐसे रिकार्ड किए जिसमें पाकिस्तान से उन्होंने अपना पोर्शन गाया और लता मंगेशकर ने यहां से अपना हिस्सा गाके भेजा, फिर इसे अलग अलग भारत और पाकिस्तान में रिलीज़ किया गया।
वो तमगा-ए-इम्तियाज से नवाज़े गए प्राइड ऑफ परफॉरमेंस बने हिलाल-ए-इम्तियाज से सम्मानित किए गए, पाकिस्तान से ही निगार फिल्म और ग्रेजुएट पुरस्कारों से नवाज़े गए इसके अलावा, आपको 1979 में भारत के जालंधर में सहगल पुरस्कार प्रदान किया गया और 1983 में नेपाल सरकार द्वारा उन्हें गोरखा दक्षिणा बहू पुरस्कार दिया गया।
गायकी के ज़रिए कई देशों को प्यार और खुलूस की डोर में बांधने वाले मेंहदी हसन ऐसे अज़ीम फनकार थे जिन्होंने देश के बटवारे के बाद बहोत दर्द सहे अपना घर बार छोड़ कर उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा वहां गरीबी में दिन गुज़रे, शुरुआत में एक साइकिल की दुकान में काम किया और बाद में कार और डीजल ट्रैक्टर मैकेनिक बन गए पर गाने का रियाज़ नही छोड़ा।
पहली बार उन्होंने 1952 में रेडियो पाकिस्तान पर गाया था
उनका पहला फ़िल्मी गाना “नज़र मिलते ही दिल की बात का चर्चा न हो जाए” 1956 में फ़िल्म शिखर में लिया गया । ये गीत कवि यज़दानी जालंधरी द्वारा लिखा गया था और इसका संगीत असगर अली एम. हुसैन ने तैयार किया था। आपको 1957 में एक बार फिर रेडियो पाकिस्तान पर ठुमरी गायक के रूप में गाने का मौका मिला और बाद में ग़ज़ल कलाकार के रूप में, जिससे उन्हें संगीत बिरादरी में पहचान मिल गई। इसके बाद 1964 में, प्रसिद्ध पाकिस्तानी कवि फैज़ अहमद फैज़ द्वारा लिखित और रशीद अत्रे द्वारा संगीतबद्ध एक फ़िल्म फरंगी के लिए उनको ग़ज़ल मिली, “गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले” जिसने उन्हें पाकिस्तानी फ़िल्म उद्योग में एक बड़ी सफलता दिलाई और इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और इस आगाज़ का अंजाम ये था कि आज तक उनका कोई सानी नहीं है।
18 साल की उम्र तक हासिल कर ली महारत
वो अविभाजित भारत के झुंझुनू जिले के लूना (शेखावाटी) (मंडावा के पास) नामक गाँव में पारंपरिक संगीतकारों के परिवार में 18 जुलाई 1927 को पैदा हुए, कहा जाता है संगीतकारों के कलावंत कबीले से आने वाले वंशानुगत संगीतकारों की 16वीं पीढ़ी थे आप ने आठ साल की उम्र में शास्त्रीय संगीत की शिक्षा अपने वालिद उस्ताद अज़ीम खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान से लेनी शुरू की थी जो पारंपरिक ध्रुपद गायक थे। मेंहदी ने 18 साल की उम्र तक ध्रुपद , दादरा, ठुमरी और ख़याल गायन में महारत हासिल कर ली थी। उनकी ग़ज़लें रागों की संजीदगी और रुतबे को बरक़रार रखते हुए जवां दिलों को भी बड़ी सुकून भरी ख़ामोशी से अपना बना लेने का माद्दा रखती हैं तो दूसरी तरफ जब रूमानियत की बात आती है या फिर प्लेबैक सिंगिंग में भी उनका पुरकशिश और मुख्तलिफ अंदाज़ जज़्बातों कि रौ में हमें बहा ले जाता है ,हम यूं जुड़ते हैं उनके साथ मानो उनके लबों से निकली बात हमारे ही दिल की आवाज़ हो।
बस ये उनकी मंज़िल ए मकसूद थी जिसे गले लगाकर वो 13 जून 2012 को इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए और अपने चाहने वालों के लिए छोड़ गए बेश कीमती नक्श ए क़दम के साथ बेशुमार नगमों और ग़ज़लों का तोहफ़ा जिनके ज़रिए वो हमेशा हमारे दिलों में जावेदा रहेंगे। आइये गुनगुनाते हैं उनकी गाई ग़ज़ल की चंद लाइनें –
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी..,
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें …,
ऐ रौशनियों के शहर बता..,
अंजुमन अंजुमन शनासायी…,
चिराग-ए-तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है…,
ग़ज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया …,
गैर बनके ना मिले हम…,
ज़रा सी बात पर बरसो के याराने गए…,
कु बा कु फैल गई…,
मोहब्बत जिंदगी है और तुम मेरी मोहब्बत हो…,आप भी कोई फूल चुन लीजिए उनकी गुलिस्ता की फेहरिस्त से अपने लिए
और महसूस करिए मेंहदी हसन की गायकी के जादू को ।