Shatrughan Singh Tiwari Rewa Political Story, Biography: कहते हैंं राजनीति और क्रिकेट की तासीर एकसी होती है। ग्लैमर के मामले में भी करियर के मामले में भी। क्रिकेट में कई ऐसे खिलाड़ी भी हुए जो छोटी मगर धुंआधार पारी खेलकर अमर हो गए। मध्यप्रदेश की राजनीति में शत्रुघ्न सिंह तिवारी ऐसे ही धुरंधर खिलाड़ी थे।
साठ से सत्तर दशक में वे राजनीति के आकाश में वे दुपहरिया के सूरज की भाँति पूरी प्रखरता के साथ छाए थे। गोविंदनारायण सिंह और पंडित शंभूनाथ शुक्ल के बाद विन्ध्य के वे सबसे प्रभावी नेता थे।यह अर्जुन सिंह के प्रभाव विस्तार का शुरुआती दौर था पर तिवारीजी आगे थे।
विन्ध्य की विपक्ष की राजनीति में जोशी-यमुना-श्रीनिवास की तूती बोलती थी। जगदीश जोशी देशभर में समाजवादियों की नई पीढी के आइकन बनकर उभर रहे थे इन्हीं परिस्थितियों में शत्रुघ्न सिंह तिवारी सन् 62 के चुनाव में रीवा विधानसभा क्षेत्र से उतरे व समाजवादी दिग्गज जगदीश जोशी को पराजित कर देशभर में सुर्खियां बटोरी।
Shatrughan Singh Tiwari Rewa Biography
इस चुनाव का महत्व इसलिए भी ज्यादा था क्योंकि विन्ध्यप्रदेश के मध्यप्रदेश में विलीनीकरण के बाद यह पहला चुनाव था और समाजवदियों का आंदोलन पूरे सबाब पर था। रीवा डा.लोहिया का दूसरा डेरा बन चुका था। शत्रुघ्न सिंह तिवारी के जीत की धमक दिल्ली तक पहुंची और ये पं.नेहरू की नजरों में आए।
शत्रुघ्न सिंह तिवारी की शख्सियत का आंकलन इसी से लगा सकते हैं कि युवावय में पहली दफे विधायक बनने के बाद ही सन् 63 में भगवंत राव मंडलोई के नेतृत्व वाली सरकार में उपमंत्री के तौर पर शामिल कर लिया गया। इन्हें स्वायत्तशासी निकायों का उपमंत्री बनाया गया। भगवंतराव मंडलोई अल्पकाल ही मुख्यमंत्री रह सके।
प्रदेश की कमान आई राजनीति के चाणक्य पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र के हाथ.. पर प्रदेश की राजनीति में गहराई से पाँव जमा चुके तिवारीजी सरकार के लिए अपरिहार्य रहे। मिश्रजी ने राज्यमंत्री की तरक्की के साथ अपने मंत्रिमंडल में रखा।
यह वह दौर था जब तिवारीजी का दायरा विन्ध्य की सीमारेखा को लांघते हुए प्रदेशव्यापी बन गया। तानाशाह मिजाज़ के मूडी मिश्रजी ने राजमाता विजयाराजे सिंधिया को नाराज तो कर ही लिया था..मंत्रिमंडल के सदस्यों में श्यामाचरण शुक्ल के साथ उनकी अदावत जाहिर हो चुकी थी। तिवारीजी श्यामाचरण शुक्ल के रणनीतिकार बन गए।
Shatrughan Singh Tiwari Political Journey
मिश्रजी ने कई मोर्चों पर जूझ रहे थे। सरकार गिरना तय था। बताते हैंं तब एक मौका यह भी आया जब संविद मुख्यमंत्री के लिए श्यामाचरण जी पर दाँव खेलने की कोशिश की गई। शुक्लजी तब कैबिनेट में सिंचाई मंत्री थे। पार्टी में ही रहकर मिश्रजी से निपटने की रणनीति के पीछे शत्रुघ्न सिंह तिवारी ही थे।
सरकार गिरी ,गोविंदनारायण सिंह संविद के मुख्यमंत्री बने पर इधर शत्रुघ्न सिंह तिवारी और श्यामाचरणजी की प्रगाढ़ता ऐसे बढ़ी कि राजनीति के गलियारों में दोनों एक जिस्म दो जान के रूप में चर्चित हुए। संविद के पतन के बाद श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने और शत्रुघ्न सिंह तिवारी उनकी कैबिनेट के सदस्य। तारीख थी 26 मार्च 1969। तिवारीजी को वन,खनिज, लोकस्वास्थ्य अभियंत्रिकी विभाग मिला।
तिवारीजी शुक्ल जी के लिए कितने महत्वपूर्ण थे उस दौर की तस्वीरों से इसका आँकलन कर सकते हैंं। पूरी कैबिनेट पीछे शुक्ल, तिवारी आगे कुर्सी पर।
सन् 62 से 72 के बीच तीन मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया। तेजस्वी व्यक्तित्व खुद अपनी लीक बनाता है। तिवारीजी के निर्णयों की छाप सालों साल गूंजती रही। वनों के राष्ट्रीयकरण का आइडिया तिवारीजी का ही था जिसे इंदिराजी ने बाद में पूरे देश में लागू किया।
Shatrughan Singh Tiwari Rewa
पत्रकार के रूप में मुझे याद है कि 1985 के आसपास छत्तीसगढ़ की देवभोग की हीराखदान को विदेशी एजेंसी के हवाले करने की कोशिश सुर्खियां बनीं तो सबको शत्रुघ्न सिंह तिवारी याद आए.. इंडिया टुडे.. ऩे तिवारीजी जी के विधानसभा में किए गए संकल्प का ब्यौरा छापा कि .जो कुछ इस तरह था…हम अपने अमूलय प्राकृतिक संसाधन किसी विदेशी के हवाले नही कर सकते आज हम अल्पज्ञ ही सही हमारी आने वाली पीढी जब ज्ञानवान होगी तब वह यही काम करने में समर्थ होगी जिसके लिये आज हम विदेश की ओर देख रहे हैं।..
आज भले ही डिबीयर्स, रियो टिंटो के लिए दरवाजे खोल दिए गए हों पर तब शत्रुघ्न सिंह तिवारी के संकल्प ने देवभोग को विदेशी कंपनी के हाथों में जाने से बचा लिया गया। तिवारीजी ने 67 में ही रीवा को महानगर के रूप में देखना शुरू कर दिया था और वे यहां के लिए भूमिगत नाली परियोजना स्वीकृत करवा कर लाए थे। शिक्षा के क्षेत्र में रीवा में इंजीनियरिंग कालेज, मेडिकल कालेज उन्हीं के कार्यकाल में स्वीकृत हुये।
राजनीति साँप सीढी का खेल है। जिस नेता की धाक का डंका अल्प समय में ही समूचे प्रदेश में बजा हो सन् 72 में उसकी ही टिकट कट गई। तेज रफ्तार के कुछ खतरे तो होते ही हैं। फिर भी वे संगठन में अपना प्रभाव बनाए रखने में सफल रहे।
जब श्यामाचरण जी पुनः मुख्यमंत्री बने तो वे कुछ भी न रहते हुए बडी हैसियत के नेता रहे। 77 के चुनाव में कुछ तो जनता की आँधी ने जोर मारा और जो बचा पार्टी के प्रतिद्वंद्वियों ने धक्का दिया। शत्रुघ्न सिंह तिवारी चुनाव हार गए। पर उनकी दबंगई नहीं हारी। पर नियति के सामने किस का बस चला है। 18जुलाई1978 के दिन आया ह्रदयाघात जीवन का आखिरी पल साबित हुआ।
महज 52 साल की आयु और दो बार की विधायकी में भी राजनीति की ऐसी धुंआधार पारी खेली कि उस रेकार्ड को खुदगर्ज लोग भले भुला दे पर इतिहास कैसे भुला सकता है। कांग्रेस उन्हें भूल चुकी है तो क्या हुआ। उन्हें याद करने वाले लोग अभी भी साबुत बचे हैं।