Shankaracharya History In Hindi: शंकराचार्य का प्रसंग आते ही सनातन धर्मी मानस श्रद्धा से अभिभूत हो जाता है और उसकी परिकल्पना मे अवतारवाद की परिकथाएँ अनायास उभरने लगती हैं। अधिकांश मनीषियों का कथन है कि यदि शंकराचार्य का अवतरण न हुआ होता तो सनातन धर्म संसार से लुप्त हो जाता इस कथ्य का प्रतिपादन करने वाले शंकराचार्य को भगवान महादेव का अवतार मानते हैं। यदि इस मान्यता से सहमत न भी हुआ जाय तब भी शंकराचार्य के जीवन चरित्र के चमत्कारों को अस्वीकार नही किया जा सकता। उनकी देहलीला में कुछ इतिहासकार उनकी आयुसीमा बत्तीस वर्ष निर्धारित करते हैं और कुछ अट्ठाइस बताते हैं। लेकिन इस उम्र को भी कर्म साधना का मानक नही माना जा सकता क्योंकि आयु की अवधि का कुछ भाग बचपन में, कुछ शिक्षा-दीक्षा में, कुछ साधना में, कुछ भ्रमण में और कुछ शास्त्रार्थ में व्यतीत हुआ होगा।
कर्मसाधना के हिस्से में तकरीबन एक दशक का कालक्रम ही आया होगा, जिसमे शंकराचार्य ने सत्य सनातन को समर्पित संरचना की आधारशिला रखी। प्रश्न यह है कि इस दस साल की अवधि में क्या कोई व्यक्ति भारत महादेश की पद यात्रा कर सकता है? क्या अल्प आयु में योग साधनाओं को साकार करते हुए वेदों का भाष्य किया जा सकता है? क्या आत्म और परमात्म तत्व का बकायदा निरूपण बाल्यकाल में संभव है? क्या किशोर अवस्था की दहलीज पर खड़ा कोई व्यक्ति चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित कर सनातन के संरक्षण का सुरक्षाचक्र रच सकता है? इन तमाम प्रश्नों का एक ही सहज उत्तर होगा कि कम से कम किसी लौकिक मानव देह से इस तरह के जीवनवृत्तान्त की अपेक्षा नही की जा सकती।
शंकराचार्य की जीवनलीला ही उन्हें स्वमेव पारलौकिक बनाती है और गीता की ‘‘ यदा-यदा हि धर्मस्य……’ की उक्ति के अनुरूप अवतारों की श्रंखला में स्थापित करती है। शंकराचार्य की इहलीला के निरूपण में सबसे प्रामाणिक ग्रंथ ‘‘शंकर दिग्विजय’ माना गया है। वह इसलिए भी कि इस गंथ की रचना शंकराचार्य के सुधी शिष्य स्वामी विद्यारण्य ने की थी और जाहिर है कि उन्होंने शंकरचरित्र को सम्पूर्णता के साथ आत्मसात किया होगा। वे भी अपने गुरू को भगवान शिव का अवतार मानते थे, इसलिए ‘‘शकर दिग्विजय’’ का सृजन पौराणिक शैली में हुआ। यही वजह है कि घटनाओं का पराक्षेप चमत्कारिक रीति से होता है। इस ग्रंथ के अनुसार शंकराचार्य का जन्म केरल में मालवार क्षेत्र के अंतर्गत कलाड़ी गांव में नाम्बूरी ब्राम्हण के घर हुआ। उनके पिता शिव गुरू थे, जो महान विद्वान विद्याधर की संतान थे। शंकराचार्य की माता कामाक्षी भी प्रमथ पंडित की पुत्री थी। मतलब यह कि शंकराचार्य का परिवार शिक्षाविद और
संस्कारित था। पिता शिव गुरू और माता कामाक्षी की गणना मनीषियों में होती थी। इतिहासकारों ने शंकराचार्य का अवतरण सन् 788 यानी विक्रमी संवत् 845 का माना है। भोज प्रबंध मेे भी इसी तरह का उल्लेख है, इसलिए उनके जन्म का समय काल यही मानना उचित है।
‘‘शकर दिग्विजय’’ में उनके जन्म के ऐसे संदर्भ दिए गए है जैसे पुराणों मे मिलते हैं। एक प्रसंग नारद एवं शिव के संवाद का भी है, जिसमे भगवान शिव धर्म की पुर्नस्थापना के लिए मानव योनि मे जन्म लेने का व्रत लेते हैं। इसी परिपेक्ष्य में उद्घृत कथा के अनुसार आचार्य शिव गुरू और कामाक्षी संतान प्राप्ति के हेतु भगवान शंकर की आराधना करते हैं, तब उन्हे पुत्र की प्राप्ति होती है। पुत्र को भगवान शंकर का प्रसाद मान कर माता-पिता उसका उसका नाम शंकर रख देते हैं।
चूंकि माता-पिता विद्वान पंडित थे इसलिए पुत्र शंकर को शिष्य के लिए किसी अन्य का आश्रय लेने की जरूरत ही नही पड़ी। आठ साल की आयु में बालक शंकर कठिन दर्शन शास्त्रों को समझ कर मीमांसा करने लगे थे। इसी उम्र में उनका उपनयन संस्कार हुआ और कुछ समय बाद पिता शिव गुरू का देहान्त हो गया। अब परिवार में माता कामाक्षी और बालक शंकर ही बचे। शंकर को दर्शन की गहरी समझ थी। उन्हें संसार माया का कठिन बंधन लगा था। पिता की मृत्यु ने उनके मनोभावों को और द्रढ़ कर दिया था। वे एकान्त मे बैठ कर गहन चिन्तन में निमग्न रहते थे। इस काल की अनेक घटनाएं ‘‘शंकर दिग्विजय’’ में वर्णित हैं। वे सन्यासी होना चाहते थे, इस मकसद से उन्होंने एक साधु से मुलाकात भी की थी। किन्तु साधु ने उन्हे बताया था कि यह गति माता की आज्ञा से ही संभव है। अंततः शंकर माता से आदेश लेने की युक्ति खोजने लगे। एक दिन वे मां के साथ नदी पार करने लगे। जैसे ही बीच नदी में पहुंचे तो अचानक पानी का तेज बहाव आया और वे बहने लगे। मां तो किनारे लग गई किन्तु शंकर डूबने लगे।
मां क्रंदन करने लगी लेकिन बचाव का कोई उपाय न था। तब डूबते उतराते शंकर ने कहा कि मां मुझे दैवीय अनुभूति हुई है कि यदि तुम मुझे सन्यासी होने का आदेश दो तो मै बच जाऊंगा। अन्यथा काल के विकराल जबड़ों से मुझे कोई नहीं बचा सकता। तब माँ ने सोचा कि पुत्र को मौत के मुह में धकेलने से अच्छा तो आदेश देना है। भले ही यह सन्यास लेकर मुझसे दूर रहेगा, लेकिन जीवित तो रहेगा। उन्होंने इस शर्त पर सन्यास ग्रहण करने का आदेश दे दिया कि उनका सन्यासी पुत्र साल में उनके पास एक बार जरूर आयेगा। शंकराचार्य इस वचन को जीवन पर्यन्त निभाते रहे। वृद्ध मां के स्नान के लिए नदी का प्रवाह द्वार तक लाना तथा मां के अंतिम क्षणों में मिलना इसी में समाहित है। जिस समय शंकर ने सन्यास की दीक्षा लेने के लिए घर से प्रस्थान किया उस काल में देश धर्म विप्लव के विनाशकारी दौर से गुजर रहा था। भगवान बुद्ध को दिवंगत हुए 1300 साल बीत चुके थे और उनके अनुयायी उनके उपदेशों को भूल कर स्वेच्छाचारिता को प्रश्रय दे रहे थे। बुद्ध के
अनुयायियों के दीनयान, महायान और तंत्रयान जैसे अनेक पंथ बन गए थे। वैभव, विलासिता और स्वछंद कामचारिता उनके ध्येय बन गई थी। भगवान बुद्ध द्वारा किया गया अहिंसा का उद्घोष वक्त की कलुषित परत मे तिरोहित हो गया था तथा हिंसा का हृदय विदारक रूप सामने था। लोग अपनी विलासिता और वासना की तृप्ति के लिए किसी भी हद तक जाने में परहेज न करते थे। दारूण स्थिति यह थी कि वे अपने इस आचरण में भी धर्म का मुलम्मा चढ़ा लेते थें। वेद विहित सिद्धांत अनंत में विलीन हो चुके थे। चारों तरफ का कापालिकों और वाममार्गियों का बोलवाला था। पशु, पक्षी और मनुष्यों को देवी-देवताओं के नाम पर काटा जाता था तथा इस हिंसा को धर्म से जोड़ कर बलिदान की संज्ञा दी जाती थी।
ऐसा नही है दारूण अशान्ति के इस काल में अनाचारियों और आततायियों का विरोध नही हो रहा था। गौडा़पादाचार्य, गोविन्दपाद, कुमारिल भट्ट तथा मंडन मिश्र जैसे अनेक तत्व वेत्ता थे, जो अनाचार का प्रतिकार कर रहे थे। कुमारिल भट्ट तो इस तरह अनाचारियों के अत्याचार का शिकार हुए थे कि उनकी एक आँख और एक टांग जाती रही थी। इनमे से गोविन्दपाद, गौड़ाचार्य के तथा मंडन मिश्र, कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। इन सब के आश्रम विन्ध्य में नर्मदा के तट पर ही थे। उस समय राजा सुधन्ता प्रख्यात नरेश थे, लेकिन उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। अंततः कुमारिल भट्ट ने उनके ज्ञानी पंडितों से कई दिनों तक शास्त्रार्थ कर पराजित किया था। आचार्य भट्ट की टांग इन्ही पंडितों के षडयंत्र की बलि चढ़ी थी और राजा सुधन्ता वैदिक परम्परा में लौट आए थे। उन दिनों गौड़ाचार्य के शिष्य गाविन्दपाद की ख्याती शिखर पर थी।
घर से प्रस्थान करने के बाद बालक शंकर ऐसे गुरू की तलाश मे भटक रहे थे, जो उनके अनुरूप सन्यास की दीक्षा दे सके। उन्हे इस सत्कर्म के लिए स्वामी गोविन्दपाद उपयुक्त लगे और वे उनसे दीक्षा की याचना लेकर पहुंच गए। गोविन्दपाद बिना परीक्षा लिए किसी को शिष्य नहीं बनाते थे, सो उन्होंने बालक शंकर की भी विधिवत परीक्षा ली। इन समस्त घटनाओं का विस्तृत उल्लेख ‘‘शंकर दिग्विजय’’ में है। उनके सन्यास छात्र जीवन की भिक्षाटन जैसी अनेक कथाएं हैं।
जब स्वामी गाविन्दपाद ने उन्हें बकायदा सन्यास की दीक्षा दी, तब उनकी उम्र 16 साल थी। दीक्षित होने के बाद गुरू ने उन्हें वैदिक धर्म को संरक्षित करने का आदेश दिया तथा शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ दिग्विजय के लिए चल पड़े। उनके साथ जो शिष्य थे उनमें पद्यमपाद, हस्तामलक, समतिपाणि, ज्ञानचंद, विष्णुगुप्त, शुद्धष्कीर्ति, भानुमरीच, कृष्ण दर्शन, बुद्धिपिठांचि, परशुद्धान्त और आनंदगिरि प्रमुख हैं।
जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है कि उस काल में भारतीय धर्म तथा अध्यात्म विप्लव के दौर से गुजर रहा था। उन्होंने अनाचारियों के विरूद्ध तीन घोषणाएं की, जो निम्न हैं-
1. सत्य सनातन ही वास्तविक धर्म है, शेष सब पाखण्ड है।
ईश्वर की सत्ता पर विश्वास न करने वाले लोग अधार्मिक हैं। 3. देवी देवताओं के सामने पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों का बलिदान करने वाले लम्पट हैं। शंकराचार्य की ये घोषणाएं अहंकार में डूबे उन अनाचारियों को विचलित कर देने के लिए काफी थी, जो अपनी विलासिता पर धर्म का मुलम्मा चढ़ाए हुए थे। समाज में घोषणाएं प्रसारित होते ही तहलका मच गया तथा तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं होने लगीं। तब शंकराचार्य ने पुर्नघोषणा भी की पूर्व घोषित तथ्य में जिन्हें सत्यता का निर्णय करना हो के शास्त्रार्थी कर अपने भ्रम को मिटा लें। उनके इस वक्तव्य का असर यह हुआ कि वादियों परिवादियों की कतारें लग गई। पहले तो ग्रामीण पंडित पराजित हुए, फिर नगरीय और शास्त्रार्थी का यह सिलसिला राजाओं के मंडल तक जा पहुंचा।
परिणाम यह निकला कि अनाचारियों के व्यूह में फंसे राजवंशी शंकराचार्य की विजय स्वीकार करते हुए उनके पीछे हो लिए। हद तो तब हो गई जब वाममार्गियों का गढ़ कहे जाने वाले मध्यार्जुन नामक स्थान के तांत्रिकों ने पराजय मान ली तथा शंकराचार्य से सम्बद्ध हो गए। इन सब घटनाओं का विस्तृत वर्णन ‘‘शंकर दिग्विजय’ में है। शास्त्रार्थ का सबसे रोचक प्रसंग मंडन मिश्र एवं उभय भारती या सरस्वती के साथ का है। तुषा यानी भूसी में आग लगा कर आत्मदाह करते हुए कुमारिल भट्ट ने मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर सन्यासी बनाने की प्रेरणा शंकराचार्य को तब दी थी, जब वे अंतिम क्षणों में उनसे मिल रहे थे।
अब जरा मंडन मिश्र और उनकी पत्नी सरस्वती यानी उभय भारती के बारे में जान लें। यह पहले ही बताया जा चुका है कि मंडन मिश्र कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। उनका वास्तविक नाम विश्वरूप था, लेकिन उनकी अनुपम विद्वता से प्रभावित लोगों ने उन्हें मंडन मिश्र का सम्बोधन दिया था। सरस्वती शोणभद्र नदी के तट पर रहने वाले महापण्डित विष्णु मिश्र की पुत्री थी और परम विदुषी थी। ये दोनों पति-पत्नी नर्मदा के तट पर स्थित महिष्मती नगरी में रहते थे। कुमारिल भट्ट की प्रेरणा से शंकराचार्य मंडन मिश्र के घर पहुंचे। दोनों में कई दिनों तक शास्त्रार्थ हुआ और निर्णायक की भूमिका सरस्वती उर्फ उभय भारती ने अदा की। जब मंडन मिश्र पराजित हो गए तो उभय भारती ने उनसे शास्त्रार्थ किया और बीच में कामशास्त्र को ले आयीं। शंकराचार्य को कामशास्त्र का ज्ञान न था, अतः उन्होंने उसे अर्जित करने के लिए साल भर का समय मागा।
शंकराचार्य ने अपनी आत्मा को अमस राजा की मृत देह मे प्रवेश करा कर कामशास्त्र का ज्ञान अर्जित किया और शास्त्रार्थ में उभय भारती को पराजित किया। ‘‘शंकर दिग्विजय’ में इन सभी घटनाओं का विस्तार से वर्णन है। कुल मिला कर शंकराचार्य दिग्विजयी हुए और सत्य सनातन अनाचारियों के व्यूह से मुक्त हुआ। उन्होंने चारों दिशाओं में चार ज्योर्तिमठों की स्थापना की। शंकराचार्य अकेले अद्वैतवादी नहीं, वे सनातन की सभी विधाओं में पारंगत थे। ईश्वर के विभिन्न अवतारों, देवी-देवताओं और पवित्र नदियों पर सबसे अधिक स्त्रोत्र उन्होंने ही रचे हैं, जो भक्तों की भक्ति भावना की और बलवती बनाते हैं। उन्होंने कर्म, ज्ञान और उपासना तीनों को ही आत्मसात किया था।