Shamshad Begum | शमशाद बेगम जो हर धुन में गा लेने का माद्दा रखती थीं

Shamshad Begum Biography in Hindi | न्याज़िया बेगम | दशकों से एक आवाज़ एक अलग ही पहचान बनाकर हमारे बीच भूले बिसरे गीतों के ज़रिए गूंज रही है, खुद को एक पहेली बनाए वो कई दफा हमसे अपना नाम बूझने को कहती है वो भी अपना पूरा पता बता के, क्या आप जानते हैं उनका नाम? जिन्होंने इस पहेली नुमा गीत को आवाज़ दी- “बूझ मेरा क्या नाव रे, नदी किनारे गांव रे, पीपल झूमे मोरे अंगना, ठंडी ठंडी छांव रे” या ऐसे ही जाने कितने गाने जो हमारे दिलों में अमिट छाप छोड़ते हैं जैसे – कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र…, कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना…, उड़ जा रे पंछी शिकारी है दीवाना…, तेरी महफिल में क़िस्मत आज़माकर हम भी देखेंगे…, होली आई री कन्हाई रंग छलके सुना दे ज़रा बांसुरी…, ओ गाड़ीवाले गाड़ी धीरे हांक रे…, रेशमी सलवार कुर्ता जाली का रूप सहा नहीं जाए नखरे वाली का…, या फिर लेके पहला पहला प्यार…, सैयां दिल में आना रे…, कजरा मोहब्बत वाला और मेरे पिया गए रंगून…।

Shamshad Begum


बेशक आप समझ गए होंगे कि हम शमशाद बेगम की बात कर रहे हैं क्योंकि उनके गाने बहोत से संगीत प्रेमियों के पसंदीदा गानों की फेहरिस्त में शामिल हैं, वो हिंदी फिल्म उद्योग के शुरुआती दौर की पार्श्व गायिकाओं में से एक थीं। अपनी विशिष्ट आवाज़ और रेंज के लिए जानी जाने वाली शमशाद बेगम ने हिंदी के अलावा बंगाली, मराठी, गुजराती, तमिल और पंजाबी भाषाओं में 6,000 से भी ज़्यादा गाने गाए, जिनमें से 1287 हिंदी फिल्मी गाने थे। उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध संगीतकारों, जैसे नौशाद अली और ओपी नैय्यर के साथ काम किया , और वो उनकी पसंदीदा गायिका भी बन गईं ।
1940 के दशक से लेकर 1970 के दशक की शुरुआत तक उनके गानों ने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे ,ये गाने सुनने में इतने सरल लगते थे की सबको आकर्षित कर के गाने पे मजबूर कर देते थे जिससे बोल तो सबकी ज़ुबान पे चढ़ जाते थे पर उसकी तर्ज़ इतनी मुश्किल होती थी कि उसे हूबहू गाना सबके बस की बात नहीं थी,वो हिंदी ,इंग्लिश या जिस भी भाषा के लिए गाती उसी की हो जातीं उसी का एक रवायती चलन उनकी आवाज़ में महसूस होता था।

*जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की याद दिला देता है उनका जन्मदिन :- Shamshad Begum Birthday
शमशाद बेगम का जन्म 14 अप्रैल 1919 को अमृतसर में जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के अगले दिन लाहौर , ब्रिटिश भारत यानी अब के पाकिस्तान में हुआ था ।
*घर में भी थे सख़्त नियम :-
वो आठ भाई बहनों के बीच, पंजाबी मुस्लिम परिवार में पैदा हुई थीं वालिद ,मियां हुसैन बख्श मान, एक मैकेनिक थे और उनकी माँ ,ग़ुलाम फातिमा, ने अपने बच्चों को इस्लाम की सख़्त हिदायतों के साथ पाला था जिसमें गाने के लिए तो ज़रा भी जगह नहीं थी ।

*सबसे पहले स्कूल के प्रिंसिपल साहब ने पहचानी उनकी छुपी हुई प्रतिभा :- Shamshad Begum Talent

इसके बावजूद शमशाद जी गाती थीं और उनके इस हुनर को 1924 में उनके प्रिंसिपल ने समझा जब वो प्राइमरी स्कूल में थीं और प्रेयर में उनकी आवाज़ सबसे अलग सुनाई दे रही थी जिसे सुनकर उन्होंने, उन्हें प्रार्थना सभा का प्रमुख गायक बना दिया , और तब से उनका गाने का रियाज़ रोज़ाना होने लगा क्योंकि उनके गाने के बाद ही सब बच्चे प्रार्थना को दोहराते थे और तभी से या क़रीब 10 साल की उम्र से , उन्होंने धार्मिक समारोहों और पारिवारिक शादी ब्याह में पारंपरिक गीत गाना शुरू कर दिया।

*चाचा ने चुपके से पहुंचाया स्टूडियो:- Shamshad Begum

इसके लिए उन्हें कोई औपचारिक संगीत प्रशिक्षण नहीं मिला बस सुन सुन के सीखा था और अपना एक अलग अंदाज़ बना लिया था जिसे आज भी हम शमशाद बेगम स्टाइल कहते हैं इसके बावजूद उनका परिवार उनके गाने के सख़्त ख़िलाफ़ हो गया , सिवाए चाचा के जिन्होंने बग़ावत करते हुए इस बारह बरस की बच्ची को लाहौर में संगीतकार ग़ुलाम हैदर से मिलवाया और ऑडिशन के लिए ज़ेनोफोन म्यूजिक कंपनी में ले गए।
*पहली दफा एक गाने के लिए मिलते 15 रुपए :- Shamshad Begum

जहां उन्होंने ऑडिशन पास कर लिया जिसके बाद शमशाद बेगम जी को बारह गानों के लिए कॉन्ट्रैक्ट मिल गया।
जिसमें हर गाने के लिए उन्हें 15 रुपए मिले थे
*बुर्क़ा पहन के गाए गाने :- Shamshad Begum

ये चाचा आमिर खान ही थे जिन्होंने आख़िर कार मियां हुसैन बख्श को शमशाद जी को गाने की इजाज़त देने के लिए राज़ी किया था , पर वालिद साहब ने ये शर्त रख दी कि वो बुर्का पहनकर रिकॉर्डिंग करेंगी और अपनी तस्वीरें भी नहीं खिंचवाएंगी ।
*अपने प्यार के लिए लड़ गईं सबसे :- Shamshad Begum

ख़ैर इतनी परेशानियों के बाद भी वो गाती रहीं और
1932 में , वो कानून के छात्र रहे ,गणपत लाल बट्टो से मिली थी जिनके ख्यालात आपसे बहोत मिलते थे जिससे दोनों को आपस में प्यार हो गया ।
दूसरी तरफ इस बात से अंजान
शमशाद जी के घर वाले उनके लिए रिश्ते की तलाश में थे और इससे पहले कि उनकी कोशिशें रंग लाती तभी 1934 में गणपत लाल बट्टो और शमशाद ने एक-दूसरे से शादी करने का फैसला कर लिया जिसके बाद , धार्मिक मतभेदों के कारण दोनों परिवारों में कड़ा विरोध हुआ ।
*पर हार नहीं मानी:- Shamshad Begum

इन सबके बीच भी शमशाद बेगम नहीं रुकीं दिल्ली में अपना म्यूज़िक ग्रुप ‘द क्राउन इंपीरियल थियेट्रिकल कंपनी ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स’ बनाया और उसके ज़रिए आकाशवाणी के लिए गाना गाती रहीं, जिससे संगीत निर्देशकों के कानों में उनकी आवाज़ पड़ती रहती थी , शमशाद बेगम ने कुछ ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग कंपनियों के लिए नात और अन्य भक्ति संगीत भी रिकॉर्ड किए थे ।
*कैसे मिला उस्ताद का साथ:- Shamshad Begum Maestro
उनकी एकदम साफ सधी हुई आवाज़ ने सारंगी वादक हुसैन बख्श वाले का ध्यान अपनी ओर तब खींचा जब
कुलीन वर्ग में उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी थी जिसे देखते हुए हुसैन बख्श वाले और बाद में ग़ुलाम हैदर ने उन्हें अपने शागिर्दों में शामिल करके 1937 और 1939 के बीच उनके गायन कौशल में सुधार किया जिससे शमशाद बेगम ,बतौर गुलुकारा और निखर गईं।
*चाहकर भी नहीं कर सकीं अभिनय :- Shamshad Begum couldn’t act

निर्माता दिलसुख पंचोली चाहते थे कि वो उनके द्वारा बनाई जा रही फिल्म में अभिनय भी करें और उनकी इस इच्छा को पूरा करने के लिए शमशाद बेगम फौरन सहमत हो गईं, उन्होंने स्क्रीन टेस्ट दिया और पास भी हो गईं पर जब उनके वालिद को पता चला तो वो बहोत नाराज़ हो गए और उन्हें चेतावनी भी दी कि अगर वो अभिनय करने की इच्छा रखती रहीं तो उन्हें गाने की भी अनुमति नहीं दी जाएगी।
इस पर शमशाद जी ने अपने पिता से वादा किया कि वो कभी भी कैमरे के सामने नहीं आएंगी फिर वो रेडियो पर गाने गाती रहीं। उन्होंने कभी तस्वीरें नहीं खिंचवाईं इसीलिए 1933 से 1970 के दशक के बीच की उनकी बहुत कम तस्वीरें मिलती हैं।

*महबूब खान लाए मुम्बई :- Shamshad Begum was brought to Mumbai by Mehboob Khan

निर्देशक मेहबूब खान को ,शमशाद बेगम की आवाज़ बहोत पसंद थी इसलिए उन्होंने उनके शौहर और वालिद को बड़ी मिन्नतें करके उनको मुंबई भेजने के लिए मनाया था ताकि उन्हें फिल्मों में काम मिल सके और ऐसा हुआ भी यहां ग़ुलाम हैदर ने अपनी कुछ फिल्मों जैसे खजांची (1941) और खानदान (1942) में उनकी खनकती आवाज़ का इस्तेमाल किया।
1940 के यमला जट के गाने “चीची विच पा के छल्ला”, “मेरा हाल वेख के” और “कंकाण दियां फसलां” बहुत हिट हुए शमशाद बेगम ने ज़मींदारा , पूंजी और शमा जैसी फिल्मों के लिए भी गाया।
*बुलंदियों पर था उनकी क़िस्मत का सितारा:- Peak of Shamshad Begum’s career

बंटवारे के बाद हैदर तो पाकिस्तान चले गए लेकिन शमशाद बेगम मुंबई में ही रहीं। 1940 के दशक से लेकर 1960 के दशक की शुरुआत के बीच शमशाद बेगम पूरे देश में जगमगाता सितारा बन गईं, उनकी आवाज़ नूरजहाँ , मुबारक बेगम, सुरैया, सुधा मल्होत्रा , गीता दत्त जैसे अपने साथियों से न केवल अलग थी बल्कि गायकी का अंदाज़ भी मुख्तलिफ था जिसकी बदौलत उनका शिखर काल शुरू हो गया जो 1940 से 1955 और फिर 1957
से 1968 तक चला ।
1955 में वो थोड़ा रुक गईं थीं क्योंकि उनके ऊपर ग़मों का पहाड़ टूट पड़ा था दरअसल गणपत लाल बट्टो की एक सड़क
दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी , लेकिन फिर 1 दो साल बाद महबूब खान ने उनसे कहा कि उन्हें मदर इंडिया में नरगिस के लिए एक दमदार आवाज़ चाहिए और उन्हें ही गाना गाना है तो वो मान गईं ।
और फिर मदर इंडिया के लिए “पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली” गाकर उन्होंने सफल वापसी की।

*बर्दाश्त नहीं कर पा रहीं थी शौहर का ग़म:- Death of Shamshad Begum’s husband

शौहर के गुज़र जाने से वो टूट गई थी ,शमशाद को बहुत व्याकुल कर दिया, उनके पति ही उनके जीवन का केंद्र थे और वे दोनों एक-दूसरे के प्रति बेहद समर्पित थे।
शमशाद बेगम के पीछे एक सकारात्मक ऊर्जा बनकर रहे थे वो जिसके बल पर वो बेफिक्री से आगे बढ़ती रहीं ।
उनके जाने के बाद वो उदासियां में घिर गईं ,अपने सुरों से जज़्बातों में रंग भरने वाली शमशाद बेगम असल ज़िंदगी में बड़ी सादी थीं अपने करियर के मुक़ाबले हमेशा अपने परिवार को ज़्यादा तवज्जो देती थीं, चकाचौंध से दूर रहना पसंद करती थीं।
ऐसे में वो धीरे-धीरे एक वैरागी बन गईं और खुद को पूरी तरह से अपने पोते-पोतियों के लिए इस हद तक समर्पित कर दिया, कि आम जनता को पता ही नहीं चला कि वो ज़िंदा भी हैं या नहीं ।
*नय्यर साहब ने की अनोखी तुलना :- Shamsad Begum’s voice is like a temple bell

शमशाद बेगम की नैय्यर साहब से मुलाकात लाहौर में अपने रेडियो कार्यकाल के दौरान हुई थी, लेकिन 1954 में, जब नैय्यर को संगीतकार के रूप में ब्रेक मिला, तो बतौर गायिका उन्होंने शमशाद जी को लिया ।
नैय्यर साहब उनके स्वरों की खनक और स्पष्टता के कारण उनकी आवाज़ को “मंदिर की घंटी” के समान बताते थे जिसकी झंकार पूरे वातावरण में गूंज जाए उन्होंने 1960 के दशक के अंत तक उनके साथ काम किया और उन्हें कई हिट गाने दिए, जिनमें मिस्टर एंड मिसेज ’55 से “अब तो जी होने लगा”, हावड़ा ब्रिज से “मैं जान गई तुझे” , मंगू से “ज़रा प्यार करले” , शामिल रहे तो 12′ ओ क्लॉक से “सइयां तेरी आंखों में” , मुसाफिरखाना से “थोड़ा सा दिल लगाना” , जैसे गीत भी लोगों को खूब भाए।
*मदन मोहन और किशोर कुमार ने दिया कोरस में साथ :- Shamshad Begum and Kishore Kumar

इस दौरान उनके कई गाने बेहद लोकप्रिय रहे, मो. रफ़ी के साथ उनका युगल गीत , बाज़ार से “छल्ला देजा निशानी” मेगा-हिट बन गया यहां आपको ये भी बताते चलें कि
1940 के दशक के अंत में, किशोर कुमार और मदन मोहन जैसे महान कलाकारों ने फिल्मिस्तान स्टूडियो में उनके गीतों के लिए कोरस दिया ।

*हर धुन में गा लेने का माद्दा रखती थीं:- Shamshad Begum Voice ability

एक ओर वो लोक धुनों के क़रीब गीत गाती रहीं,तो वहीं दूसरी ओर उन्होंने संगीतकार सी रामचन्द्र के लिए ‘‘आना मेरी जान.. संडे के संडे ’’ जैसी पश्चिमी धुन पर बड़ी सहजता से गा कर कमाल कर दिया.
वो 1963 तक शीर्ष पर बनी रहीं पर 1965 से, एक ट्रैंड जैसा बन जाने के कारण उनके गीतों की नकल की जाने लगी। 1965 की शुरुआत में, फिल्मों में उनके लिए गाने कम होने लगे लेकिन 1968 की फिल्म किस्मत का उनका गाना “कजरा मोहब्बत वाला” और 1971 की फिल्म जौहर महमूद इन हांगकांग का “नथनिया हाले तो बड़ा मज़ा” आज भी लोकप्रिय हैं।
*सम्मान:- Shamshad Begum Awards and Honors

उन्हें 2009 में पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया
तो वहीं हिंदी फिल्म संगीत में उनके योगदान के लिए प्रतिष्ठित ओपी नैय्यर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

*गायकी का एक अलग ही मानक तय कर हैं हैं शमशाद बेगम :- Shamshad Begum death

पर अब तक वो बहोत थक गई थीं, एक लंबी बीमारी के बाद 23 अप्रैल 2013 की रात शमशाद बेगम मौत की आगो़श में सो गईं, 94 वर्ष की उम्र में इस फ़ानी दुनियां को अलविदा कह गईं। सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने उनके देहांत पर कहा- फिल्म उद्योग ने अपने बहुमुखी गायकों में से एक को खो दिया है। शमशाद जी की गायन शैली ने नए मानक स्थापित किए। शक्तिशाली गीतों के साथ उनकी मधुर आवाज़ ने हमें ऐसे गाने दिए जो आज भी लोकप्रिय हैं और कल भी रहेंगे।


प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा- “वो असाधारण प्रतिभा और क्षमताओं की कलाकार थीं, और अपने लंबे करियर में उन्होंने जो गाने दिए हैं, वह संगीत प्रेमियों को मंत्रमुग्ध करता रहेगा।” उनकी बेटी उषा रात्रा ने कहा- “अपने युग की शीर्ष गायिकाओं में से एक होने के बावजूद उन्होंने खुद को इंडस्ट्री के ग्लैमर से दूर रखा क्योंकि उन्हें लाइमलाइट पसंद नहीं थी। मेरी मां कहा कहती थीं कि कलाकार कभी नहीं मरते। उनके गानों के लिए उन्हें सदा याद किया जाएगा।” सच हमारे दिलों से भी यही आवाज़ आ रही है कि वो अपने दिलकश नग़्मों के ज़रिए हमेशा जावेदाँ रहेंगी।

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