न्याज़िया बेग़म
Kundan lal saigal biography in hindi: “दो नैना मतवारे तिहारे हम पर जुलुम करें,मन में रहें तो सुध बुध खोए छिपे तो छिपे तो चैन हरे, दो नैन मातवरे तिहारे हम पर जुलुम करें।
हर संगीत प्रेमी को ये गीत तो याद ही होगा जो बरबस ही अपनी आवाज़ और अंदाज़ से हमें अपनी ओर खींच लेता है,
तो इस महान कलाकार के लिए हम कहना चाहेंगे कि
खरे सोने में रियाज़ के तप से, जैसे वो कुंदन हो गया
गायकी का वो दिलकश अंदाज़, उनके नाम से ही मशहूर हो गया।
जी हां, कुंदन लाल सहगल का नाम हिंदी फिल्मों में एक बेमिसाल गायक के रूप में विख्यात हैं, लेकिन 1936 की फिल्म देवदास जैसी फिल्मों में उम्दा अभिनय के कारण उनके प्रशंसक उन्हें हिंदी सिने जगत का पहला सुपरस्टार मानते हैं। 1930 और 40 के दशक की संगीतमयी फिल्मों की ओर दर्शक उनके भावप्रवण अभिनय और दिलकश गायकी के कारण खिंचे चले आते थे।
अपने दो दशक के सिने करियर में सहगल ने 36 फिल्मों में अभिनय किया, लगभग 185 गीत गाए, जिनमें 142 फिल्मी और तैतालिस गै़र-फिल्मी गीत शामिल हैं।
सहगल का जन्म 11 अप्रैल 1904 को जम्मू में एक पंजाबी परिवार में हुआ था। उनके पिता अमरचंद सहगल जम्मू-कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह के दरबार में एक तहसीलदार थे, जबकि उनकी मां केसरबाई सहगल एक धार्मिक महिला थीं, जिन्हें संगीत का बहुत शौक था और वो अपने बेटे यानी सहगल साहब को धार्मिक कार्यक्रमों में ले जाती थीं जहां शास्त्रीय भारतीय संगीत पर आधारित पारंपरिक शैलियों में भजन, कीर्तन और शबद गाए जाते थे ।
जिससे उनका रुझान संगीत की तरफ हो गया, बचपन में सहगल कभी-कभी जम्मू की रामलीला में सितार बजाते थे। जब उन्होंने स्कूल छोड़ा तो रेलवे टाइमकीपर के रूप में काम करके पैसा कमाना शुरू कर दिया। बाद में, उन्होंने शिमला में रेमिंगटन टाइपराइटर कंपनी के लिए टाइपराइटर सेल्समैन के रूप में काम किया, जिससे उन्हें भारत के कई हिस्सों का दौरा करने की इजाज़त मिली और ये यात्राएं उन्हें लाहौर ले आईं, जहां अनारकली बाज़ार में उनकी दोस्ती शिलांग में असम साबुन फैक्ट्री शुरू करने वाले मेहरचंद जैन से हो गई और दोनों कलकत्ता चले आए जहां कई महफ़िलें सजी।
मुशायरों के दौर चले, उन दिनों सहगल एक उभरते हुए कलाकार थे और मेहरचंद ने उनके हुनर को परवाज़ देने के लिए पुरज़ोर हौसला अफ़ज़ाई की, सहगल कुछ वक्त के लिए होटल मैनेजर भी रहे पर गाने को लेकर उनका जुनून न केवल जारी रहा बल्कि बढ़ता ही गया। 1930 के दशक की शुरुआत में, शास्त्रीय संगीतकार और संगीत निर्देशक हरिश्चंद्र बाली केएल सहगल को कलकत्ता लाए और उन्हें आरसी बोराल से मिलवाया और फिर फिल्म स्टूडियो न्यू थिएटर्स ने उन्हें अनुबंध पर रख लिया ।
इस बीच, इंडियन ग्रामोफोन कंपनी ने सहगल का रिकॉर्ड जारी किया था जिसमें हरिश्चंद्र बाली द्वारा रचित कुछ पंजाबी गाने थे। इस तरह बाली सहगल के पहले संगीत निर्देशक बन गये। पहली फिल्म जिसमें सहगल की भूमिका थी, वो फिल्म मोहब्बत के आंसू थी, उसके बाद आई सुबह का सितारा और ज़िंदा लाश, सभी 1932 में रिलीज हुईं।
हालांकि, ये फिल्में बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाईं। सहगल ने अपनी पहली तीन फिल्मों के लिए सहगल कश्मीरी नाम का इस्तेमाल किया और 1933 की फिल्म यहूदी की लड़की से अपना नाम कुंदन लाल सहगल से केएल सहगल लिखना शुरू किया। 1933 में फिल्म पूरन भगत के लिए सहगल द्वारा गाए गए चार भजनों ने पूरे भारत में धूम मचा दी। इसके बाद आने वाली फ़िल्में थीं चंडीदास, रूपलेखा और कारवां-ए-हयात।
1935 में, सहगल ने वो भूमिका निभाई जो उनके अभिनय करियर को परिभाषित करती है जी हां फिल्म देवदास में शराबी शीर्षक चरित्र निभाया, जो शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित थी और पीसी बरुआ द्वारा निर्देशित थी। फिल्म देवदास में उनके गाने “बलम आए बसो मोरे मन में” और “दुख के अब दिन बीतत नाही” पूरे देश में लोकप्रिय हुए।
सहगल ने बांग्ला बहुत अच्छी सीखी और न्यू थियेटर्स द्वारा निर्मित सात बांग्ला फिल्मों में अभिनय किया पर किसी गै़र-बंगाली को अपने गीत गाने के लिए देने से पहले रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सहगल को सुना था और इन्हीं गीतों से
सहगल ने अपने 30 बांग्ला गीतों के माध्यम से पूरे बंगाल में अपना लोहा मनवाया।
न्यू थिएटर्स के साथ सहगल का जुड़ाव 1937 में दीदी (बंगाली), प्रेसिडेंट (हिंदी), देशेर माटी ( बंगाली ), 1938 में धरती माता (हिंदी) , साथी (बंगाली) और स्ट्रीट सिंगर (हिंदी) जैसी सफल फिल्मों में बाहोत यादगार रहा। इस युग के कई गीत हैं जो भारत में फिल्म संगीत की समृद्ध विरासत का निर्माण करते हैं। इसके अलावा, स्ट्रीट सिंगर में , सहगल ने ” बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए ” गीत को कैमरे के सामने लाइव प्रस्तुत किया, इसके बावजूद कि प्लेबैक, फिल्मों में गाने गाने का पसंदीदा तरीका बन रहा था।
देखते ही देखते सहगल की आवाज़ लोगों की दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन गई थी। वे रवीन्द्र संगीत गाने का सम्मान पाने वाले पहले ग़ैर बांग्ला गायक थे। ये वो समय था जब भारतीय फिल्म उद्योग मुंबई में नहीं बल्कि कलकत्ता में केंद्रित था। उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस ज़माने में उनकी शैली में गाना अपने आपमें सफलता की कुंजी मानी जाती थी।
मुकेश और किशोर कुमार ने अपने करियर के आरंभ में सहगल की शैली में गायन किया भी था। कुंदन के बारे में कहा जाता है कि पीढ़ी दर पीढी इस्तेमाल करने के बाद भी उसकी आभा कम नहीं पडती। सहगल सचमुच संगीत के कुंदन थे। सहगल की उदारता के कई क़िस्से मिलते हैं। कहते हैं कि न्यू थिएटर्स के ऑफिस से उनकी सैलरी सीधे उनके घर पहुंचाई जाती थी, क्योंकि अगर उनके हाथ में पैसे होते तो आधा वह शराब में उड़ा देते, बाकी जरूरतमंदों में बांट देते।
एक बार उन्होंने पुणे में एक विधवा को हीरे की अंगूठी दे दी थी।
सहगल बिना शराब पिए नहीं गाते थे। फिल्म ‘शाहजहां’ के दौरान नौशाद ने उनसे बिना शराब पिए गवाया, और उसके बाद सहगल की ज़िद पर वही गाना शराब पिलाकर गवाया। बिना पिए वो ज़्यादा अच्छा गा रहे थे पर उन्होंने नौशाद से कहा, ‘आप मेरी जिंदगी में पहले क्यों नहीं आए? अब तो बहुत देर हो गई।
सहगल साहब को खाना बनाने का बहुत शौक था।
मुग़लई मीट डिश वो बहुत चाव से बनाते थे और स्टूडियो में ले जाकर साथियों को भी खिलाते थे। यही नहीं, आवाज़ की चिंता किए बग़ैर वो अचार, पकौड़े और तली हुई चीजें भी खाते थे, सिगरेट के भी ज़बर्दस्त शौकीन थे। सहगल ने ग़ालिब की करीब 20 ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी थी। ग़ालिब से इसी मुहब्बत के कारण उन्होंने एक बार उनकी मजा़र की मरम्मत करवाई थी। सहगल पहले गायक थे, जिन्होंने गानों पर रॉयल्टी शुरू की।
उस वक्त प्रचार और प्रसार की दिक्कतों के बावजूद श्रीलंका, ईरान, इराक, इंडोनेशिया, अफगानिस्तान और फिजी में उनके गाने सुने जाते थे। एक दिक्कत वाली बात ये थी कि उनके सिर पर बाल कम थे इसलिए वो विग लगाकर एक्टिंग करते थे। अभिनेत्री कानन देवी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘साथी की शूटिंग के दौरान हवा के झोंके से उनकी विग उड़ गई और उनका गंजा सिर दिखने लगा। लेकिन सहगल अपनी धुन में मगन शॉट देते रहे। इस पर सब हंस पड़े और
सहगल झेंपने की जगह लोगों के ठहाकों में शामिल हो गए। इसी अंदाज़ की वजह से वो हर दिल अज़ीज़ थे, यहां तक की भारतरत्न लता मंगेशकर सहगल से बहुत प्रभावित थीं।
दिसंबर 1941 में, सहगल रंजीत मूवीटोन के साथ काम करने के लिए बॉम्बे चले गए। यहां उन्होंने कई सफल फिल्मों में अभिनय और गायन किया। इस दौरान उनकी भक्त सूरदास और फिल्म तानसेन बेहद सफल रहीं, तानसेन में राग दीपक में सहगल के गाए गीत “दीया जलाओ” के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है, तब उन्होंने “सप्त सुरन,” “तिन .. गा-ओ सबा गुनी जान” और “रूम झूम रूम झूम चल तिहारी” भी गाया था।
1944 में, वह माई सिस्टर को पूरा करने के लिए न्यू थियेटर्स में लौट आए। इस फिल्म में “दो नैना मतवारे” और “ऐ कातिब-ए-तकदीर मुझे इतना बता दे” गाने भी काफी लोकप्रिय हुए ।
इस समय तक सहगल के जीवन में शराब प्रमुख कारक बन चुकी थी। शराब पर उनकी निर्भरता ने उनके काम और स्वास्थ्य दोनों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। ऐसा कहा जाता था कि वो बहुत पीने के बाद ही गाना रिकॉर्ड कर सकते थे, उनकी शराब की लत इतनी बढ़ गई थी कि सहगल 18 जनवरी 1947 को केवल 43 वर्ष की उम्र में इस संसार को अलविदा कह गए थे। सहगल की आवाज़ की लोकप्रियता का आलम ये था कि कभी भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय रहा रेडियो सीलोन कई साल तक हर सुबह सात बज कर 57 मिनट पर इस गायक का गीत बजाता था।
कहते हैं, सहगल के निधन के बाद लता मंगेशकर सहगल का स्केल चेंजर हारमोनियम अपने पास रखना चाहती थीं, पर सहगल की बेटी ने उसे अपने पास रखते हुए सहगल की रतन जड़ी अंगूठी लता जी को बतौर निशानी दे दी थी।
ऐसा था कुंदन लाल सहगल का सुरीला सफ़र।