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सत्यजीत रे वह भारतीय निर्देशक, जिन्हें ऑस्कर से सम्मानित किया गया

About Satyajit Ray In Hindi | न्याज़िया बेगम: अगर हम किसी को सिनेमा का संस्थान कहना चाहें तो ज़रा ग़ौर करिए किसे कहेंगे! जिससे आज भी इस क्षेत्र से जुड़े या जुड़ने वाले लोग सीख रहे हैं वो भी केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में, बिल्कुल आप सही सोच रहे हैं, वो कोई और नहीं सत्यजीत रे ही हैं। जिन्होंने फिल्म निर्माण में ऐसी महारत हासिल की कि उनकी पहली ही फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ ने समाज के प्रति लोगों को एक नया नज़रिया दिया।
इसके बाद भी उन्होंने जलसा घर, चारुलता, देवी और शतरंज के खिलाड़ी जैसी फिल्मों के ज़रिए ऐसे सामाजिक मुद्दों को प्रमुखता से उठाया जिस पर निर्देशकों का ध्यान गया ही नहीं था या फिर उसे हाइलाइट करने के बारे में उन्होंने सोचा नहीं विरोध के डर से पर सत्यजीत रे के ढंग से उसे पेश करना भी सबके बस की बात नहीं थी कि बात भी समाज के सामने आ जाए और वर्ग विशेष को ठेस भी न पहुंचे।

फिल्मों के कुशल चितेरे थे सत्यजीत रे


उनकी फिल्मों की ख़ासियत की बात करें तो यूं लगता है कि जाने कैसे उनकी नज़र से कोई पहलू नहीं चूका एक चित्रकार की भांति उन्होंने सब कुछ फिल्मी पर्दे पर इतनी सफाई से उकेर दिया कि वो जो कहना चाहते थे उसके लिए उन्हें शब्दों की भी दरकार नहीं थी सबकुछ साफ साफ दिखाई दे रहा था। फिर चाहे वो विषय कोई भी रहा हो, उनका मानवीय दृष्टिकोण, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर गहरी दृष्टि, और दृश्य कला के प्रति उनका अनूठा प्रयोग हर बार उन्हें भीड़ से अलग खड़ा कर देना का माद्दा रखता था, हालांकि ये मुद्दे कुछ अलग नहीं थे पर उनकी फिल्मों में मानवीय मूल्यों, सामाजिक असमानताओं, और जीवन की कठिनाइयों को इतनी बारीकी से दर्शाया गया है कि वो समाज को एक आईना दिखाती हैं। उनमें वर्तमान और भविष्य का आकलन है यानी सुधार की गुंजाइश भी है तभी तो ये कला प्रेमियों को प्यारी हैं क्योंकि ये भी कला का एक हिस्सा ही है कि किस तरह से बात कही जाए कि वो बिना प्रहार के या बुरी लगे दिल में उतर जाए।


हम कह सकते हैं कि सत्यजीत रे ने ज़िंदगी को बहुत क़रीब से देखा था और हमदर्द बनके सब के ग़मों को महसूस भी किया होगा तभी तो उनकी फिल्में मानवीयता और सहानुभूति का एक गहरा असर छोड़ जाती हैं, किसी भी पात्र की भावनाओं उसके संघर्षों को इस तरह दर्शाती हैं कि हम बहोत गहरा जुड़ाव महसूस करने लगते हैं उनके गढ़े पत्रों के साथ।


सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया :-


कुछ चेहरे हमें दिखते तो रोज़ हैं पर बिना हमारे मन पर कोई प्रभाव छोड़े नज़र से ओझल हो जाते हैं। शायद इसलिए कि न हम उन पर ग़ौर करते न वो हम पर लेकिन वो हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा होते हैं तो ज़ाहिर है कोई न कोई वास्ता तो हमारा भी उनसे होता होगा बस हम जानते नहीं, जैसे हम दूर की रिश्तेदारी निकाल लेते हैं अपने समाज में बस वैसे ही उनको भी अपना मानने के लिए थोड़े जतन की ज़रूरत होती है लेकिन बस हम ये सोच लेते हैं इनकी हमारी क्या बराबरी, इनकी सोच अलग इनका जीवन यापन अलग पर ये एक गहरी खाई है जिसे हमदर्दी और इंसानियत के मरहम से ही पाटा जा सकता है, क्योंकि ये वो ज़ख्म हैं जो कब नासूर बन जाएं पता नहीं चलता।


पर सत्यजीत रे ने ऐसी दूरदर्शिता का परिचय अपनी फिल्मों में दिया है कि मानो वो इस खाई को भाप कर समाज को आगाह कर रहे हों आने वाले ख़तरे से और ये उनके लिए बहुत मुश्किल भी नहीं था क्योंकि उनकी फिल्मों में हर एक दृश्य किसी न किसी विषय की ओर हमारा ध्यान खींच लेता है ,जिसमें हमें उनके छायांकन में गीतों में यहां तक कि कहानी में भी कुछ ऐसे प्रयोग दिखाई देते हैं जो हर आयु वर्ग के दर्शक को ध्यान में रखते हुए किए गए हैं। संगीत रचनाएं भी कहानी के हिसाब से मर्मस्पर्शी होती थीं जाने उनकी कितनी कसौटियों को पार करने के बाद वो सीधे हमारे दिल में उतर जाती थीं।


हर तरह से सौंदर्य का बोध कराती हैं उनकी फिल्में :-

कलात्मकता के अनुपम प्रयोग के बावजूद यथार्थ को भली भांति व्यक्त करती हैं और कोई टिप्पणी भी हमारे लिए छोड़ जाती हैं जिनमें महिला प्रधान विषय विशेष छाप छोड़ते हैं। 50 और 60 का ये वो दशक था जब नायिका केवल सौंदर्य का प्रतिरूप मानी जाती थी तब भी महिलाओं को इतने सशक्त और दमदार किरदार में पेश किया, कि हीरोइन की कहानी या उसकी भूमिका हीरो के बराबर का दर्जा रखने लगी अब इन महिला प्रधान फिल्मों में लोग किसी हीरोइन की मुख्य भूमिका को देखने थिएटर जाने लगे अब उसकी झील सी आंखों में सुकून बस नहीं दिख रहा था। संघर्ष और प्रतिशोध भी था इस फेहरिस्त में कुछ खास फिल्में रहीं ‘देवी’, ‘चारुलता’, ‘महानगर’ और ‘घरे बाइरे’। उनकी ये अद्वितीय शैली आज भी नए फिल्म निर्माताओं का मार्गदर्शन कर रही है । सामाजिक जागरूकता पैदा करती हैं। उनकी फिल्में समाज के विभिन्न मुद्दों पर विचार करने के लिए प्रेरित करती हैं।
भावुकता:
किसी भी कृति को भावपूर्ण बनाने का समर्थ था उनमें तभी तो उनके पात्रों के जीवन की जटिलताएं और संघर्षों को हम इतने क़रीब से महसूस कर पाते हैं।
सांस्कृतिक पृष्ठभूमि:
सत्यजीत रे ने अपनी फिल्मों में भारतीय संस्कृति और परंपराओं को भी इस अंदाज़ में दर्शाया है, कि हमें और समृद्ध होने का अनुभव होता है। उनकी फिल्में आज भी लोगों को इस तरह प्रभावित करती हैं कि हम उन्हें सिनेमा का जीनियस कहते हैं, उनकी फिल्मों से आज भी लोग सीखते हैं और उनकी शैली उनकी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड में भी लोग उनके शैली के दीवाने हैं क्योंकि उस दौर में उन्होंने अपनी फिल्मों में जो प्रयोग किए वो आज के डिजिटल युग में भी लोग नहीं कर पाते। राजनीतिक मुद्दों को भी इतनी सरलता से देश के सामने रखा कि किसी हथियार से कम नहीं रहीं उनकी फिल्में।

इतनी सारी खासियतों को एक मंच पर प्रदर्शित करना किसी भी इंसान के लिए आसान नहीं होता लेकिन सत्यजीत रे जी के अंदर इतनी संवेदन शीलता थी, इंसानी जज़्बातों को लेकर इतनी हमदर्दी थी कि जिसे इंसानियत के नाते लोगों तक पहुंचाने के लिए फिल्मों के माध्यम से उजागर करने लिए उन्होंने जी जान लगा दिए।

एक बात आपको ये भी बताते चलें कि सिनेमा का इंस्टीट्यूट कहे जाने वाले सत्यजीत रे ने कहीं से फिल्म मेकिंग की ट्रेनिंग नहीं ली थी ये प्रतिभा उनमें कुदरती तौर पर मौजूद थीं कहते हैं फिल्म निर्माण उन्होंने हॉलीवुड फिल्मों को देखकर सीखा था लेकिन इतनी सलाहियत इतनी खूबियां का ये संगम उनमें ऐसे ही नहीं था बल्कि सत्यजीत रे मशहूर निर्देशक होने के साथ-साथ महान लेखक, कलाकार, चित्रकार, फिल्म निर्माता, गीतकार और बुक कवर डिज़ाइनर व कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर भी थे और अपने इन्हीं गुणों के साथ उन्होंने फिल्म निर्माण के हर पहलू पर पैनी नज़र रखी। उनकी मुख्तलिफ सोच ने ही उन्हें ‘ऑस्कर ऑनरी अवॉर्ड’ जितवाया जिसे पाने वाले वो अभी भी इकलौते भारतीय हैं इसके अलावा उन्हें दादा साहब फाल्के अवॉर्ड समेत रिकॉर्ड 37 नेशनल अवॉर्ड मिले हैं।

दरअसल 2 मई 1921 को कोलकाता के एक बंगाली परिवार में पैदा हुए सत्यजीत रे ने अपने करियर की शुरुआत बतौर चित्रकार ही की थी लेकिन फ़्रांसिसी फ़िल्म निर्देशक ज्यां रेनुआ से मिलने और 1947 में चिदानन्द दासगुप्ता और अन्य लोगों के साथ मिलकर राय ने कलकत्ता फ़िल्म सभा शुरु करने के बाद, उन्हें कई विदेशी फ़िल्में देखने को मिलीं और दिल में ख्याल आया फिल्म बनाने का।

१९५० में डी. जे. केमर ने राय को एजेंसी के मुख्यालय लंदन भेजा। लंदन में बिताए तीन महीनों में राय ने ९९ फ़िल्में देखीं। जिनमें से वित्तोरियो दे सीका की नवयथार्थवादी फ़िल्म लाद्री दी बिसिक्लेत्ते (Ladri di biciclette, बाइसिकल चोर) ने उन्हें अन्दर तक प्रभावित किया और इसके बाद उन्होंने फ़िल्म निर्देशक बनने का दृढ़संकल्प कर लिया।

लगी पुरस्कारों की झड़ी:-

इनकी पहली फ़िल्म पथेर पांचाली यानी पथ का गीत को कान फ़िल्मोत्सव में मिले “सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख” पुरस्कार को मिलाकर कुल ग्यारह अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। राय को जीवन में कई पुरस्कार मिले, जिनमें अकादमी मानद पुरस्कार और भारत रत्न शामिल हैं।

बहु आयामी व्यक्तित्व के थे धनी:-

आपको बता दें कि सत्यजीत साहब फ़िल्म निर्माण से जुड़े कई काम ख़ुद ही करते थे जैसे – पटकथा लिखना, अभिनेता ढूंढना, पार्श्व संगीत लिखना, चलचित्रण, कला निर्देशन, संपादन और प्रचार सामग्री की रचना करना। फ़िल्में बनाने के अतिरिक्त वे कहानीकार, प्रकाशक, चित्रकार और फ़िल्म आलोचक भी होते थे।

सत्यजित राय के दादा उपेन्द्रकिशोर राय चौधरी लेखक, चित्रकार, दार्शनिक, प्रकाशक और अपेशेवर खगोलशास्त्री थे,और तो और साथ ही वो ब्राह्म समाज के नेता भी थे। इसलिए उनके गुणों का आपमें आना तो स्वाभाविक था और सुकुमार और सुप्रभा राय के बेटे सत्यजीत जी जब केवल तीन वर्ष के ही थे तो इनके पिता चल बसे जिससे उन्होंने आर्थिक तंगियाँ भी देखी।
अर्थशास्त्र से स्नातक किया लेकिन मां के कहने पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित विश्व-भारती विश्वविद्यालय में आगे की पढ़ाई की पर अपनी दिलचस्पी के मुताबिक उन्होंने प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बोस और बिनोद बिहारी मुखर्जी से बहुत कुछ सीखा।

बतौर चित्रकार:-

सत्यजीत रे ने बहुत सी किताबों के मुखपृष्ठ बनाए, जिनमें जिम कार्बेट की मैन-ईटर्स ऑफ़ कुमाऊँ (Man-eaters of Kumaon, कुमाऊँ के नरभक्षी) और जवाहर लाल नेहरु की डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया (Discovery of India, भारत की खोज) शामिल हैं। राय ने दो नए फॉन्ट भी बनाए – “राय रोमन” और “राय बिज़ार”। राय रोमन को १९७० में एक अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला। कोलकाता में राय एक कुशल चित्रकार माने जाते थे। राय अपनी पुस्तकों के चित्र और मुखपृष्ठ ख़ुद ही बनाते थे और फ़िल्मों के लिए प्रचार सामग्री की रचना भी ख़ुद ही करते थे।

सफलता के बाद भी नहीं बदली जीवन शैली :-

फ़िल्मों में मिली सफलता से राय साहब के पारिवारिक जीवन में अधिक परिवर्तन नहीं आया, वे अपनी माँ और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ही एक किराए के मकान में रहते रहे वे अक्सर शहर के भागम-भाग वाले माहौल से बचने के लिए दार्जीलिंग या पुरी जैसी जगहों पर जाकर एकान्त में अपने कथानक पूरे करते थे।


अपराजितो की सफलता के बाद अंतर्राष्ट्रीय कैरियर पूरे जोर-शोर से भरी उड़ान :-

अपराजितो फ़िल्म में एक नवयुवक (अपु) और उसकी माँ की आकांक्षाओं के बीच अक्सर होने वाले खिंचाव को दिखाया गया है। मृणाल सेन और ऋत्विक घटक सहित कई आलोचक इसे पहली फ़िल्म से बेहतर मानते हैं। अपराजितो को वेनिस फ़िल्मोत्सव में स्वर्ण सिंह (Golden Lion) से पुरस्कृत किया गया। अपु त्रयी पूरी करने से पहले राय ने दो और फ़िल्में बनाईं-हास्यप्रद पारश पत्थर और ज़मींदारों के पतन पर आधारित जलसाघर। जलसाघर को इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण कृतियों में गिना जाता है।

सत्यजित राय का मानना था कि कथानक लिखना निर्देशन का अभिन्न अंग है शायद यही एक कारण है जिसकी वजह से उन्होंने प्रारम्भ में बांग्ला के अतिरिक्त किसी भी भाषा में फ़िल्म नहीं बनाई। अन्य भाषाओं में बनी इनकी दोनों फ़िल्मों के लिए इन्होंने पहले अंग्रेज़ी में कथानक लिखा, जिसे इनके पर्यवेक्षण में अनुवादकों ने हिन्दी या उर्दू में भाषांतरित किया।


राय के कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता की दृष्टि भी राय साहब की तरह ही पैनी थी। शुरुआती फ़िल्मों पर इनका प्रभाव इतना महत्त्वपूर्ण था कि राय कथानक पहले अंग्रेज़ी में लिखते थे ताकि बांग्ला न जानने वाले चन्द्रगुप्ता उसे समझ सकें। राय इतनी एकाग्रता से फिल्में बनाते थे कि चारुलता के बाद से राय कैमरा ख़ुद ही चलाने लगे, वे अपने मित्र के साथ मिलकर कपड़े पर से उछाल कर वास्तविक प्रतीत होने वाला प्रकाश रच लेते थे।


विवाह की बात करें तो :-


सत्यजीत रे ने अपनी प्रियतमा बिजोय राय से विवाह किया था। आपके बेटे सन्दीप हैं जो ख़ुद फ़िल्म निर्देशक है। नित नए प्रयोगों का संसार गढ़ते हुए वो एक दिन थक गए और 23 अप्रैल 1992 को लंबी गहरी नींद में सो गए। हमारे लिए सिनेमा का एक ऐसा इंस्टीट्यूट छोड़ कर जिसमें फिल्म निर्माण से जुड़ी हर छोटी से छोटी चीज़ आप बड़ी आसानी से समझ सकते हैं उसका अध्ययन कर सकते हैं।

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