सतना लोकसभा में बसपा के प्रत्याशी नारायण त्रिपाठी को अब अपनी उपयोगिता को सिद्ध करने खासी मशक्कत करनी पड़ रही है।मजदूरों की लड़ाई लड़ते लड़ते नेता बने नारायण के बार बार पाला बदलने से क्षेत्र की जनता ने उन्हें गंभीरता से लेना बंद कर दिया है।नारायण जब नेतागीरी में आये तो निर्दलीय से शुरू हुए।उसके बाद मौका देखकर चौका मारते कभी कांग्रेस ,कभी भाजपा और कभी रातों रात बनाई अपनी पार्टी विन्ध्य समाज पार्टी से चुनावों में उतरते रहे।भारत की राजनीति का संभवतः ये पहला मामला होगा जब किसी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष अपनी पार्टी छोड़ दूसरी पार्टी से चुनाव मैदान में है।
विधानसभा चुनावों में अपनी जमानत गवाने के बाद नारायण को समझ आ गया कि प्रथम बार को छोड़ दें तो बाकी जितनी बार वो विधायक बने वो परिस्थिति जन्य कारणों ओर समीकरणों के चलते बने न कि अपनी काबिलियत पर।इस बार नारायण जब खड़े हुए तो ये चर्चा आम थी कि नारायण, गणेश के चुनावी रथ में अदृश्य सारथी की भूमिका में चुनाव मैदान में हैं न कि योद्धा के रूप में।दरअसल सतना में इस बार गणेश को हराने भाजपा के अंदर औऱ बाहर के कई योद्धा सहयोग सिद्धार्थ को दे रहे हैं।
ख़ुद गणेश भी विधानसभा में मुंह की खाने के बाद अंदर से हिल गए हैं और ये चुनाव उनको अपने राजनैतिक भविष्य पर खतरे की आहट लग रहा है।इसीलिए गणेश इस बार कोई रिस्क नहीं लेना चाहते।तो फिर वो चल पड़े हैं उसी खेवनहार की तरफ जिस खेवनहार ने उन्हें 2014 में डूबने से बचा लिया था और गणेश बमुश्किल अपने माथे पर जीत का तिलक लगा पाए थे।
थोड़ा इसे विस्तार से समझते हैं।
यदि पिछले 4 बार के लोकसभा चुनावों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि गणेश सिंह को सबसे ज़्यादा लीड मैहर विधानसभा से ही मिलती आई है।2014 में जब गणेश कांग्रेस के अजय सिंह राहुल से मात्र 8000 के लगभग वोटों से ही जीते थे तब भी मैहर की भूमिका ही मुख्य थी।ये वही समय था जब नारायण वोट पड़ने के कुछ घंटों पहले पाला बदल कर भाजपा में आ गए थे।अब भी दबी जुबान से लोग इस बात की चर्चा करते हैं कि गणेश ने अपने विरोधी मतों को सिद्धार्थ की तरफ जाने से रोकने के लिए नारायण को खड़ा किया है।
लेकिन राजनैतिक समझ रखने वाले लोग ये भी कहते हैं कि मतदाता आज होशियार है और वो किसी भुलावे में नहीं रहता।वो उम्मीदवार के दिये सारे उपहारों को स्वीकार करता तो ज़रूर है, उसकी रैलियों में जाता भी है पर वो वोट वहीं देता है जहां उसे देना होता है।यदि वो ये चाहता है कि गणेश हारें तो भले ही अनमने मन से ही परंतु वो वोट सिद्धार्थ को ही देगा।वो नारायण को वोट नहीं देगा।हाल ही में हम इसका ताजा उदाहरण देख चुके हैं जब सीधी से केदार रीति को हराने खड़े हुए परंतु आखिरी आखिरी में केदार को युद्ध में उतारने वाले ही उनके साथ नहीं रहे।सतना लोकसभा में इस बार लड़ाई जितनी दिलचस्प है उतनी ही अनिश्चित भी।
और वोटर भी अभी पूरी तरह तय नहीं कर पाया है कि वो किधर जाए।गणेश के साथ उनकी वैतरणी पार करने मोदी नाम का कुशल खेवनहार है तो सिद्धार्थ के साथ गणेश की एन्टी इनकंबेंसी ओर उनपर लगा जातिवादी का ठप्पा।लोग भी अलग अलग कयास लगाए रहे हैं।ब्राह्मण वोटर गणेश को वोट नहीँ देंगे, राहुल के कहने पर क्षत्रिय समाज एक नहीं होगा या फिर ये भी की, क्या करें मोदी कर नाम पर आंखें मूँदनी पड़ेंगी।सिद्धार्थ लोगों के बीच जाकर एक मौका उनको भी देने का आग्रह कर रहे हैं।परिणाम क्या होगा वो बाद में ही पता चलेगा पर ये बात तय है कि ये चुनाव नारायण ओर गणेश दोनों का राजनैतिक भविष्य तय करेगा।