Sarojini Naidu Birth Anniversary\आज हम देखते हैं हर क्षेत्र में महिलाएँ, पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चल रहीं हैं, राजनीति के क्षेत्र में भी महिलाओं की भूमिका प्रशंसनीय है, लेकिन आज से लगभग सौ साल पहले भी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी एक महिला का आगमन हुआ, जिन्होंने उस समय के रूढ़िवादी समाज में महिलाओं के लिए एक आदर्श तय किया, यह थीं सरोजिनी नायडू, सरोजिनी नायडू जिन्हें भारत की बुलबुल कहा जाता है, जिन्होंने भारत में महिला अधिकारों की नींव रखी, स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय रहीं, वह एक कवयित्री, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता भी रहीं, इसके साथ ही वह किसी राज्य की पहली महिला राज्यपाल भी रहीं हैं। भारत में उनकी जन्मजयंती को राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है।
जन्म-शिक्षा, विवाह और पारिवारिक पृष्ठभूमि
सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 को हैदराबाद में एक बंगाली परिवार में हुआ था, उनके पिता अघोरनाथ चट्टोपध्याय थे तो मूलतः बंगाली, लेकिन हैदराबाद में निजाम कॉलेज के प्रिंसपल थे। जबकि उनकी माँ एक गायिका और कवियत्री थीं, अपने आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं, वह बचपन से ही बहुत मेधावी थीं, जब वह 12 वर्ष की थीं, तभी उन्होंने सर्वोच्च अंकों के साथ मैट्रिक परीक्षा पास की और विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए उन्हें अहर्ता प्राप्त हो गई, और उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए लंदन चलीं गईं, और वहाँ उन्होंने पहले किंग्स कॉलेज और बाद में कैम्ब्रिज के गिर्टन से अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त की, विदेश में पढ़ाई करने के लिए उन्हें निजाम की सरकार की तरफ छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई थी। पढ़ाई के बाद सरोजिनी नायडू 1898 में देश लौट आईं, विदेश में पढ़ने के दौरान ही उनकी मुलाक़ात मछलीपट्टनम आंध्रप्रदेश के डॉ गोविंदराज नायडू से हुई, जो एक डाक्टर थे, उन्होंने उनके साथ विवाह का फैसला कर लिया, यह एक अन्तर्जातीय विवाह था, जो उस दौर के समाज में एक बड़ी बात थी। इस तरह सरोजिनी चट्टोपाध्याय से वह सरोजिनी नायडू बन गईं, नायडू दंपत्ति आगे चलकर पाँच बच्चों के माता-पिता बने, उनकी एक बेटी पद्मजा नायडू तो भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदार रहीं और आगे भी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहीं।
सार्वजनिक जीवन और राष्ट्रीय आंदोलन
उस समय देश में प्लेग महामारी का आतंक था, उन्होंने इससे प्रभावित लोगों की बड़े लगन के साथ सेवा की, 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों से ही नायडू भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय हो गईं थीं, इसके अलावा वह महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रयास भी किया करती थीं, 1906 कलकत्ता में हुए कांग्रेस के एक सार्वजनिक सम्मेलन को भी उन्होंने संबोधित किया, वह बहुत ही कुशल वक्ता थीं, उनकी आवाज भी बहुत मीठी थी, उन्होंने बाढ़ पीड़ित लोगों के लिए बहुत कार्य किए, जिसके बाद 1911 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें केसर-ए-हिन्द से सम्मानित किया। लेकिन 1919 में हुए जलियाँवाला बाग नरसंहार के बाद उन्होंने यह उपाधि लौटा दी थी। वह एनी बेसेंट के होमरूल आंदोलन से भी जुड़ी थीं, लेकिन 1914 में उनकी मुलाक़ात महात्मा गांधी से हुई, जिसके बाद राजनैतिक आंदोलनों में उनकी सक्रियता और भी बढ़ गई। 1919 में वह असहयोग आंदोलन में बहुत सक्रिय रहीं, 1925 में कानपुर में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में वह राष्ट्रीय अध्यक्ष बनीं, कांग्रेस की अध्यक्षता करने वाली वह पहली भारतीय महिला थीं। आगे भी वह सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय महात्मा गांधी की प्रमुख सहयोगी थीं, नमक सत्याग्रह में गांधी की गिरफ़्तारी के बाद वह इस सत्याग्रह की लीडर बनीं, और जेल भी गईं, 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय भी उन्हें 21 महीने की जेल हुई थी। महिला अधिकारों को लेकर वह बहुत मुखर रहीं, एमलक्ष्मी रेड्डी के साथ मिलकर उन्होंने भारतीय महिला एसोसिएशन की भी स्थापना की थी।
लेखिका और कवियत्री
भारत की स्वर कोकिला के के नाम से मशहूर सरोजिनी नायडू की आवाज बहुत ही सुरीली थी, इसीलिए महात्मा गांधी उन्हें बुलबुल कहते थे, जब वह महज 12 वर्ष की थीं तब उन्होंने फारसी में एक नाटक लिखा था, जिसकी निजाम ने खूब प्रशंसा की थी। वह इंग्लिश भाषा में कविताएं लिखती थीं, उनकी कविताएं ब्रिटिश रोमांटिकवाद से प्रभावित थी, उनका पहला काव्य संग्रह ‘द गोल्डन थ्रेशोल्ड’ 1905 में लंदन से प्रकाशित हुई थी। उनकी और भी कई कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे।
आजादी के बाद
देश की आजादी के बाद वह तब के यूनाइटेड प्राविन्स अर्थात उत्तरप्रदेश की राज्यपाल बनीं, भारतीय इतिहास में राज्यपाल बनने वाली वह पहली महिला थीं, हालांकि स्वस्थ के कारण वह राज्यपाल बनना नहीं चाहती थीं, लेकिन पंडित जवाहर नेहरू के आग्रह को वह टाल नहीं सकीं, 15 अगस्त 1947 से लेकर 2 मार्च 1949 अपनी मृत्यु तक वह राज्यपाल रहीं, राज्यपाल रहते ही हृदयघात से उनकी मृत्यु हो गई थी।