Salil Chowdhury Death Anniversary: सलिल चौधरी का तृप्त करता संगीत

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Death Anniversary Salil Chowdhury: आज बात करते हैं उस संगीतकार की जिसकी हिंदुस्तानी और पाश्चात्य संगीत में बराबर की पकड़ रही है और उनका कोई – कोई गीत तो लोकधुनों के इतना क़रीब लगता है कि उनकी धुनों पे अपने आप ही पैर थिरकने लगते हैं और कोई तो ज़िंदगी की सच्चाई इतनी संजीदगी से तर्ज़ के पंखों पर दिल में उतार देता है कि वो दिल में जज़्ब हो जाए ,नहीं समझे! तो हम आपको उनके कुछ गीत याद दिलाए देते हैं जिनमें ऐसे ही प्रयोग हैं :- 1962 की फिल्म “छाया”का गीत सुन लीजिए ‘ इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा…’, जिसमें उन्होंने खुद माना था की कंपोज़र मोतजार्ड की सिंफनी उनकी प्रेरणा बनी थी , ऐसे ही “काबुलीवाला “फिल्म के गाने ‘ ऐ मेरे प्यारे वतन…’, जिसमें देश प्रेम की सुरीली धड़कन है ,उसकी धुन जाने खुद को देश से कितनी दूर रखके सोची होगी कि इसमें छुपे दर्द को हर देश प्रेमी महसूस कर सकता है ।
उनके कुछ और प्रयोगों को समझने की कोशिश करें तो
“मधुमती” फिल्म के गीत याद आते हैं ,जिनमें उन्होंने असम के चाय बाग़ानों की लोकधुनों का इस्तेमाल किया तो वहीं इसी फिल्म के एक गीत- ‘ दिल तड़प तड़प के कह रहा है…’,में उन्होंने हंगरी की फॉक ट्यून का प्रयोग किया। “आनंद” फिल्म की धुन तो एक उम्दा मिसाल है ज़िंदगी के क़रीब होने की जो इन बोलों के साथ मिलकर कहती है , ‘ ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय कभी तो हंसाए…’
जी हां ये हैं सलिल चौधरी ,जिन्होंने दौर और हालात के हिसाब से अपने संगीत में बदलाव भी किए और इसलिए उनका संगीत हर उम्र के लोगों को आकर्षित करता रहा और आज भी सदाबहार बना हुआ है ।

दो बीघा ज़मीन की लिखी कहानी :-

सलिल दा सिर्फ संगीतकार नहीं थे, वे लेखक और कवि भी थे। ‘दो बीघा ज़मीन’ जैसी महान फिल्म की कहानी उन्होंने लिखी थी, वो भी जब विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने देखा कि ब्रिटिश हुकूमत बंगाल के चावल उत्पादन पर कब्ज़ा कर चुकी है और लोग भूख से मर रहे हैं।
19 नवंबर 1925 को पश्चिम बंगाल के गाज़ीपुर में ही पैदा हुए सलिल दा के लिए ये एक त्रासद अनुभूति थी जिसे उन्होंने क़लम के ज़रिए काग़ज़ पर उतारा और ऋषिकेश मुखर्जी को दिखाई और उन्होंने विमल राय को दी।
फिर बिमल जी ने निर्देशन का बीड़ा उठाया और इस फिल्म ने सलिल जी के करियर को तब नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया जब ये फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार जीतने वाली पहली फिल्म बनी और कान फिल्म समारोह में अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीत लिया।दो बीघा ज़मीन की कहानी के साथ-साथ सलिल दा ने इस फिल्म का संगीत भी तैयार किया जो काफी पसंद किया गया।

बचपन में पिता से मिला संगीत का ज्ञान :

सलिल जी का बचपन असम के चाय बाग़ान के इलाके में बीता।आपके पिता पेशे से डॉक्टर थे पर उन्हें संगीत में बहोत दिलचस्पी थी, खासकर बंगाली और असमिया संगीत में, पश्चिमी संगीत भी उन्हें काफी पसंद था जिस से असमिया और बंगाली लोक संगीत से साथ-साथ उनका दुनियाभर के संगीत से लगाव था। इसका सलिल और उनके भाइयों पर भी ऐसा असर पड़ा कि, बचपन से उन्हें सुर लहरियां आकर्षित करने लगीं और सबने संगीत की राह पकड़ ली , सलिल दा ने तो महज़ 6 साल की उम्र में अपने बड़े भाई से पियानो बजाना सीखा।

नुक्कड़ नाटक के ज़रिये भी जागरूकता फैलाने का किया काम :

1949 में आई बांग्ला फिल्म “पोरिबर्तन “से उन्होंने अपना सफर शुरू किया. कम ही समय में वे बांग्ला फिल्मों में चर्चित नाम हो गए और उन्होंने “पोरिबर्तन” के बाद “पाशेर बाड़ी” और “बार जातरी” जैसी हिट फिल्मों में संगीत दिया ।कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने धुनें बनानी शुरू कर दीं थी । उनका पहला लोकप्रिय गीत ” बेचारपोटी तोमर बिचार …” था यानी ‘नए न्याय के दिन आ गए हैं क्योंकि लोग अब जाग गए हैं।’
‘वो बचपन से ही छात्र आंदोलनों में भाग लेते थे और कलकत्ता के नज़दीक 24 परगना में किसान आंदोलन में भी शामिल हुए थे ।बंगाल में राजनीतिक उथल पुथल का दौर रहा जिसने सलिल जी को संगीत की तरह ही बहोत प्रभावित किया साथ ही वामपंथी विचार धारा ने भी जिसकी वजह से तमाम सामाजिक मुद्दों को लोगों के बीच उठाने के लिए वो (इप्टा) से जुड़ गए और गांव-गांव में नुक्कड़ नाटक और गीतों के ज़रिए लोगों में जागरूकता फैलाने का काम करने लगे।


कई भारतीय भाषाओं में चलाया अपने संगीत का जादू :-

20 साल की उम्र में उनके संगीत बद्ध किए गए गीतों जैसे ‘ग्नयार बोधु …'(গাঁয়ের বধূ) ने बंगाली संगीत में एक नई लहर ला दी थी ,
संगीतकार के तौर पर 1949 में आई ‘परिवर्तन’ सलिल दा की पहली फिल्म थी। उन्होंने बांग्ला, हिंदी, मलयालम समेत 13 भारतीय भाषाओं की फिल्मों में संगीत दिया ,इसमें 75 से अधिक हिंदी फिल्में, 41 बंगाली फिल्में, 27 मलयालम फिल्में और कुछ मराठी , तमिल , तेलुगु , कन्नड़ , गुजराती , ओडिया और असमिया फिल्में शामिल हैं वो एक कुशल संगीतकार और अरेंजर भी थे, जो बांसुरी , पियानो और इसराज सहित कई वाद्ययंत्रों में पारंगत थे । बंगाली में उनकी प्रेरणादायक और मूल कविता के लिए भी उन्हें काफी सराहना और प्रशंसा मिली, 1994 में रिलीज़ हुई। ‘महाभारती’ उन 41 बंगाली फ़िल्मों में से आखिरी थी जिसमें उन्होंने संगीत दिया था।
उनका संगीत इसलिए भी हमें बहोत आकर्षित करता है क्योंकि वो कहानी के भावनात्मक पहलू को ध्यान में रखते हुए संगीत तैयार करते थे कविता लिखने का भी शौक था इसलिए बड़ी तार्किक दृष्टि रखते हुए गानों की लय खोजते थे मतलब बोल का उतार चढ़ाव संगीत में भी दिखता था।

कार्य शैली से मिले नए क्षेत्र और सम्मान :-

उनकी पद्धति के बारे में पूछे जाने पर सलिल जी ने कहा था कि – वे आमतौर पर फिल्म निर्माता से कहानी समझाने के लिए कहते थे, फिर उसके मूड के मुताबिक धुन तैयार करते थे और गीतकार उन्हें शब्दों में उसे सेट करता था इससे संगीत का जुड़ाव कहानी से बना रहता था। एक ख़ास बात और हम आपको बता दें कि जब सलिल चौधरी 1990 में बांग्लादेश गए, तो ढाका में उनका एक जननेता के रूप में स्वागत किया गया । सलिल चौधरी को 2012 में मरणोपरांत” मुक्तिजोधा मैत्रेय “सम्मान से सम्मानित किया गया।
कवि, नाटककार, कथाकार, सलिल ने 1966 में अपनी कहानी और पटकथा पर आधारित मीना कुमारी, बलराज साहनी और महमूद अभिनीत एक फिल्म” पिंजरे के पंछी” का निर्देशन भी किया था। सलिल चौधरी 1958 में बॉम्बे यूथ क्वायर के संस्थापक थे, जो भारत में पहला धर्मनिरपेक्ष क्वायर था, इसके संगीतकार और कंडक्टर के रूप में – उन्होंने पूरे भारत में धर्मनिरपेक्ष गायन समूहों को गठन के लिए प्रेरित किया और भारतीय लोक और समकालीन संगीत के लिए मुखर बहुध्वनि का उपयोग करके संगीत की एक नई शैली तैयार की।

संगीत को लेकर वो बेहद प्रयोग वादी थे :-

उन्हें 2012 में मरणोपरांत “मुक्तिजोधा मैत्रेय” सम्मान से सम्मानित किया गया। सलिल चौधरी का संगीत पूरब और पश्चिम का मिश्रण है. उनके समकालीन जितने भी संगीतकार हुए उनमें से किसी ने भी सलिल दा जितने प्रयोग नहीं किए. सलिल दा इंस्ट्रूमेंट्स का काफी उम्दा प्रयोग करते थे, लोकगीत और पाश्चात्य संगीत का जिस बारीकी और सहजता से उन्होंने मिश्रण किया वो बेमिसाल है. उन्हें बांसुरी, हारमोनियम, सितार बजाना भी आता था जिसका इस्तेमाल वो अपने संगीत में भी करते थे।

उनके कुछ दिलकश गीतों को याद करें तो :-


‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए…’, ‘मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने…, ‘इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा…’, ‘न जाने क्यों होता है ये ज़िंदगी के साथ…’ और ‘धरती कहे पुकार के…’ सरीखे बेहतरीन नग़्में हमारे ज़हन में दस्तक देते हैं, जिन्हें बतौर तोहफा हमें देकर सलिल दा पांच सितंबर 1995 को इस दुनिया से रुख़सत हो गए।

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