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सचिन देव बर्मन का राज घराने से ताल्लुक़ और संगीत जगत में अमूल्य योगदान !

sachin (1)

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Birth Anniversary Of Sachin Dev Burman: वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहां …… इस गीत कि छांव तले हमें बिठा कर वो खुद एक नए सफर पर चल दिए जाने किस नायब धुन को तलाशने किस सुकून की छांव में हमसे बहुत दूर. . बहुत दूर ….
लेकिन वो हमारी झोली में डाल गए कभी अपनी धुन कभी आवाज़ से सजे बेमिसाल नग़्मे जिनमें “सफल होगी तेरी आराधना “गीत के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता बेशक आप समझ गए होंगे कि हम बात कर रहे हैं सचिन देव बर्मन की जो त्रिपुरा राजघराने से ताल्लुक रखते थे, वो राजकुमारी निर्मला देवी यानी मणिपुर की राजकुमारी और त्रिपुरा के राजकुमार नवद्वीपचंद्र देव बर्मन ,के बेटे थे जो अपने पिता त्रिपुरा के महाराजा ईशान चंद्र माणिक्य के बाद किसी कारणवश राजा नहीं बन पाए और अपना राज दरबार छोड़ कर कोमिला में बस गए थे जहां 1 अक्टूबर 1906 को, टिपराह पैलेस , कोमिला , बंगाल प्रेसीडेंसी यानी बांग्लादेश में सचिन देव बर्मन का जन्म हुआ ,पर सचिन जी जब महज़ दो साल के थे तब उनकी मां गुज़र गईं ,जब बड़े हुए तो एम.ए करने के लिए कलकत्ता चले गए और वहीं 1925 से 1930 तक संगीतकार केसी डे के अधीन प्रशिक्षण लेकर अपनी औपचारिक संगीत शिक्षा शुरू की; उसके बाद 1932 में वे भीष्मदेव चट्टोपाध्याय के संरक्षण में आए , जो उनसे सिर्फ़ तीन साल बड़े थे। इसके बाद उन्होंने सारंगी वादक खलीफ़ा बादल ख़ान और सरोद वादक उस्ताद अलाउद्दीन ख़ान से प्रशिक्षण लिया।

शास्त्रीय और लोक धुनों का अनोखा प्रयोग :-

इसके बाद बर्मन ने 20 के दशक के अंत में कलकत्ता रेडियो स्टेशन पर एक रेडियो आर्टिस्ट के रूप में काम करना शुरू किया, उस वक्त एक गायक-संगीतकार के रूप में उनका काम बंगाली लोक संगीत और हल्के हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर आधारित था, नतीजतन, उनकी धुनें मुख्य रूप से वर्तमान बांग्लादेश और बाद में भारत के अन्य हिस्सों और दुनिया भर की लोक-धुनों से प्रभावित थीं।
1932 में आए उनके पहले रिकॉर्ड में भी एक तरफ “खमाज” में (अर्ध शास्त्रीय) धुन , “ई पाथे आज एसो प्रियो” और दूसरी तरफ लोक धुन “डाकले कोकिल रोज बिहाने” में सुनाई देती है
अगले दशक तक, वो बतौर गायक बुलंदियों पर पहुँच गए, उन्होंने बंगाली में 131 गाने गाए,
1934 में, उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के निमंत्रण पर अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में भाग लिया , जहाँ उन्होंने विजया लक्ष्मी पंडित और किराना घराने के अद्वितीय अब्दुल करीम खान जैसे प्रतिष्ठित श्रोताओं के सामने अपनी बंगाली ठुमरी पेश की ।
उसी वर्ष उन्हें कोलकाता में बंगाल संगीत सम्मेलन में आमंत्रित किया गया, जिसका उद्घाटन रवींद्रनाथ टैगोर ने किया , यहाँ भी उन्होंने अपनी ठुमरी गाई और उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया।

शादी से हो गया शाही परिवार में हंगामा :-

उन्होंने कोलकाता में ही एक घर बनाया और अपनी छात्रा मीरा दास गुप्ता से शादी की, कहते हैं एक गै़र शाही से शादी करने से शाही परिवार में हंगामा मच गया और बाद में उन्होंने अपने परिवार से संबंध तोड़ लिए और अपनी विरासत खो दी, खैर सचिन देव इस बात का बिना कोई ग़म किए आगे बढ़ गए , आप दोनों की एकमात्र संतान, राहुल देव बर्मन थे।
एसडी बर्मन ने(1934) की उर्दू फिल्म “सेलिमा” में गाने गाए और धीरेन गांगुली की (1935) की फिल्म विद्रोही में एक छोटी सी भूमिका भी निभाई। एक संगीतकार के रूप में, उन्होंने बंगाली नाटकों ‘सती तीर्थ’ और ‘जननी’ से शुरुआत की, और अंततः ‘राजगी’ फिल्म में अपना पहला संगीत दिया , उनकी दूसरी फिल्म 1940 की ‘राजकुमार निर्वाण’ बेहद हिट रही फिर उन्होंने प्रोतिशोध (1941), अभ्योयेर बिया (1942) और चद्दोबेशी (1944) जैसी बंगाली फिल्मों में संगीत दिया और 1946 में स्थायी रूप से मुंबई चले आए, उन्होंने 20 से अधिक बंगाली फिल्मों और कुल 89 हिंदी फिल्मों के लिए संगीत दिया।

गायक से संगीत निर्देशक तक :-

उनके गायन की बात करें तो यहूदी की लड़की में उन्होंने गाने गाए लेकिन वो फिल्म में शामिल नहीं हुए और
बतौर गायक उनकी पहली फ़िल्म “सांझेर पिडिम” (1935) बन गई ।
1958 में, एसडी बर्मन ने किशोर कुमार के हाउस प्रोडक्शन फिल्म चलती का नाम गाड़ी के लिए संगीत दिया । उसी वर्ष, उन्हें सुजाता में उनकी रचनाओं के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और वे इस प्रतिष्ठित पुरस्कार को जीतने वाले एकमात्र संगीत निर्देशक बने ।
एसडी बर्मन अक्सर लोक संगीत, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ जीवन की दिन-प्रतिदिन की आवाज़ों से प्रेरणा लेते थे,
एक इंटरव्यू में भी उन्होंने बताया था कि एक नया प्रयोग करते हुए “हम बेखुदी में तुम. ..” फिल्म ‘काला पानी’ के गीत की जो धुन तैयार की थी, वो “राग छायानट” और मुस्लिम मुअज़्ज़िन की दुआ पर आधारित थी जिसे वो मस्जिद के पास रोज़ सुनते थे।
अपने करियर के शुरुआती दिनों में, बर्मन ने अभिनेताओं को फिल्म पर अपनी आवाज़ को लिप-सिंक करने की इजाज़त देने से इनकार कर दिया लेकिन उनकी दमदार आवाज़ को बैक ग्राउंड सॉन्ग की तरह इस्तेमाल किया गया था, जो फिल्म का सिग्नेचर सॉन्ग बनके उभरे जैसे :- बंदिनी (१९६३) से “ओ रे माझी मेरे साजन है उस पार. ..”, गाइड (१९६५) से “वहाँ कौन है तेरा” और आराधना (१९६९) से “सफल होगी तेरी आराधना” ।

नवकेतन के बैनर तले देव आनंद-एसडी बर्मन की साझेदारी ने हमें ‘बंबई का बाबू’ (1960), ‘तेरे घर के सामने’ (1963), ‘गाइड’ (1965) और ‘ज्वेल थीफ’ (1967) जैसी हिट संगीत मय फ़िल्में दीं ।
1963 में, उन्होंने ‘मेरी सूरत तेरी आँखें’ (1963) के लिए संगीत तैयार किया , जिसमें मन्ना डे ने राग अहीर भैरव में “पूछो ना कैसे मैंने…” गाना गाया था । ये गाना “अरुण कांति के गो योगी” गाने से प्रेरित था, जो विद्रोही कवि काजी़ नज़रुल इस्लाम द्वारा रचित एक उत्कृष्ट कृति थी इसमें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खान का ख़याल भी शामिल था, जो राग अहीर भैरव पर आधारित था। उस फ़िल्म में मोहम्मद रफ़ी का गाया एक गाना “नाचे मोन मोरा मगन. ..” भी था जो हिंदी फ़िल्मी गानों में मील का पत्थर बन गए।
इस समय उनकी संगीत से सजी कुछ और हिट फिल्में रही ‘बंदिनी’ (1963), ‘ज़िद्दी'(1964) और ‘तीन देवियाँ’ (1965) । ‘बंदिनी’ में , सम्पूर्ण सिंह जिन्हें गुलज़ार के नाम से भी जाना जाता है उन्होंने “मोरा गोरा अंग लई ले. .” गीत के साथ गीतकार के रूप में अपनी शुरुआत की। देव आनंद अभिनीत ‘गाइड’ (1965) में उनका संगीत संभवतः उस दौरान उनके सबसे हटके और सुरीली धुनों के रूप में पसंद किया गया, जिसमें सभी गाने सुपर-हिट हुए ।

सचिन देव बर्मन की अनूठी शैली और मिज़ाज :-

आपके पास एक अनूठी शैली थी जब ज़्यादातर संगीतकार धुन बनाने के लिए हारमोनियम या पियानो का इस्तेमाल करते थे, तब उन्होंने ताली की लय का इस्तेमाल करके कई धुनें बनाई थी ।पहले धुन बनाते थे फिर गीत लिखवाते थे। एक बात और हम आपको बताते चलें कि
उन्हें “पान” बहुत पसंद था जो उनकी पत्नी खास तौर पर सूखे संतरे के छिलके और “केवड़ा” फूल के साथ स्वाद और ज़ायके के साथ बनाती थीं। यही कारण था कि वे अपना पान किसी के साथ साझा नहीं करते थे क्योंकि उनके पास पान की कमी हो जाती थी लेकिन अपना पान, वो उस व्यक्ति को इनाम के तौर पर देते थे जिसके काम की तारीफ करते थे।
‘बड़ी सूनी सूनी है. ..’ गीत की रिकॉर्डिंग के दौरान उनकी तबियत खराब हो गई और कुछ दिनों तक कोमा में रहने के बाद 31 अक्टूबर 1975 को अपनी आराधना को सफल बनाते हुए वो हमें अलविदा कह गए , एसडी बर्मन की पहली अंग्रेजी जीवनी एचक्यू चौधरी द्वारा लिखित “इनकम्पेरेबल सचिन देव बर्मन” है। इसे ढाका, बांग्लादेश से टोइटूम्बर द्वारा प्रकाशित किया गया था।

1969: में सचिन देव बर्मन को पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 1974 में सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार ज़िंदगी ज़िंदगी गीत के लिए मिला। फ़िल्मफ़ेयर में सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का पुरस्कार आपने फिल्म ‘अभिमान ‘ और ‘टैक्सी ड्राइवर’ के लिए जीता ,इसके अलावा 1 अक्टूबर 2007 को, उनकी 101वीं जयंती के अवसर पर, भारतीय डाक सेवा ने अगरतला में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया, जहाँ उनके जीवन और कामों पर एक प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया गया,उनकी याद में त्रिपुरा की राज्य सरकार संगीत में वार्षिक “सचिन देव बर्मन मेमोरियल पुरस्कार” भी प्रदान करती है। सचिन देव बर्मन मेमोरियल सरकारी संगीत महाविद्यालय उनकी याद में अगरतला, त्रिपुरा में बनाया गया जो त्रिपुरा विश्वविद्यालय से भी संबद्ध है और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त है ।
प्यासा के उनके गाने “ये दुनिया अगर मिल भी जाए” को 2022 की फिल्म चुप: रिवेंज ऑफ द आर्टिस्ट में दोबारा इस्तेमाल किया गया ।

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