Happy Birthday Runa Laila :’दमादम मस्त क़लन्दर अली दा पहला नंबर’ कुछ ऐसे अल्फ़ाज़ हैं जो कभी न कभी संगीत प्रेमियों की ज़ुबान पर आ ही जाते हैं और ये क़व्वाली बनकर भी कई रूपों में ढली ,लेकिन इसकी रूहानी तासीर आज भी वही है जो कल थी जब इसे गाकर
अपनी आवाज़ और अंदाज़ से हम सबको दीवाना बनाने रूना लैला बंगलादेश से आईं और इसी तरह के और गीत जैसे -‘ओ मेरा बाबू छैल छबीला मै तो नाचूंगी’ और ‘घरौंदा’ फिल्म के गीत , ‘दो दीवाने शहर में…’और ‘तुम्हें हो न हो. ..’ , गीतों के साथ बंगलादेश, भारत और पाकिस्तान में भी एक अलग पहचान हासिल कर ली पर हम आपको बता दें कि बतौर गुलूकारा उनका पहला शो इत्तेफ़ाक़ से पेश हुआ था।
इत्तेफ़ाक़ से पहुँचीं स्टेज पर :-
दरअसल रुना लैला का जन्म पूर्वी बंगाल के सिलहट शहर में 17 नवम्बर 1952 को हुआ था जो 1971 में बंगलादेश बना।
उनके परिवार में संगीत को बहुत पसंद किया जाता था और जब वो छोटी थीं तब उनकी बड़ी बहन दीना लैला संगीत सीखती थीं और उन्हें सुनसुन कर रूना ने थोड़ा बहोत संगीत सीख लिया पर चुलबुली रूना नृत्य में भी दिलचस्पी रखती थीं इसलिए कत्थक, भरतनाट्यम और कत्थक्कली भी सीखा उनके गुरु उस्ताद कासिम थे, जो बाद में ‘पिया रंग’ के नाम से मशहूर हुए ।
एक बार उनकी बड़ी बहन, दीना, को मंच पर गाने का न्योता मिला था लेकिन उनका ऐन वक़्त पर गला ख़राब हो गया। रुना तब इतनी छोटी थीं के उनसे तानपुरा भी खड़ा करके पकड़ा न गाया और उसे अपने गोद में लिटा कर उन्होंने एक ख़्याल गाया जो काफी पसंद किया गया और तब से वो कराची के टेलिविजन पर ‘द ज़िया मोहियुद्दीन शो’ पर आने लगीं जिसके बाद पाकिस्तानी फिल्म निर्माताओं की उनपर नज़र पड़ी और उनका पाकिस्तानी फ़िल्म जगत में प्रवेश हुआ।
उनकी पहली फिल्म का क़िस्सा:-
रुना जब महज़ १२ बरस की थीं, तो संगीत निर्देशक मंज़ूर हुसैन ने न केवल उन्हें पाकिस्तानी फ़िल्म ‘जुगनू’ में गाने के लिए चुना बल्कि उन्हें फिल्मी गीतों के लिए तैयार भी किया इस बात के लिए वो आज भी उनका एहसान मानती हैं क्योंकि उन दिनों आज जैसी तकनीकी सुविधा तो उपलब्ध थी नहीं के संगीत टीम की ग़लतियों को बाद में ठीक कर के अलग से कंप्यूटर के ज़रिये संगीत से मिश्रित किया जा सके इसलिए सारा ऑर्केस्ट्रा इक्कठा गायक के साथ रिकार्डिंग करता था और अगर ज़रा सी भी कोई ग़लती हो तो सब को शुरू से फिर गाना शुरू करना पड़ता था इसलिए सबको अपना रियाज़ भी अच्छा करना पड़ता था ।
हालांकि तब उन्होंने मशहूर पाकिस्तानी पार्श्वगायक अहमद रश्दी से भी बहुत प्रेरणा ली और बाद में रुना जी की उनके साथ कईं गानों में जुगलबंदी भी हुई ,जिन्हें हम युगल गीतों में सुन सकते हैं । उनका सबसे मशहूर गीत ‘उनकी नज़रों से मोहब्बत का जो पैग़ाम मिला…’ था, जिसने उनकी कामयाबी की नई इबारत लिखी थी।
इसी तरह से आगे बढ़ते हुए रूना जी ने 1970- 80 के दशक में कईं पाकिस्तानी फ़िल्मी नग़में गाये। 1972 में बनी ‘उमराओ जान अदा’ एक ऐसी फ़िल्म थी जो बहुत चली और जिसके एक को छोड़ कर बाक़ी सारे गाने रुना लैला ने गाये थे।
उनकी बहन दीना जिनकी वजह से रूना गायिकी की दुनिया में आईं वो भी , आगे आना चाहती थीं पर शादी के बाद वो गायन से दूर हो गईं ।
1971 में बंगलादेश आज़ाद हुआ और 1974 में उन्होंने हिन्दुस्तानी फिल्मों में भी ‘एक से बढ़कर एक’ गाने गाए और इनमें से आपकी आवाज़ में’दमादम मस्त क़लन्दर’ और घुंघरू टूट गए …,भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में सुपरहिट हो गया ,जब उन्होंने फिल्मी दुनिया में क़दम रखा तब केवल लता मंगेशकर और आशा भोसले के गाने ही पसंद किए जाते थे इसके बावजूद रूना जी ने अपनी जगह बना ली।
लता मंगेशकर की हैं फैन:-
वो खुद भी स्वर कोकिला लता मंगेशकर की बहोत बड़ी फैन थीं और जब साल 1974 में उन को इंडियन काउंसिल फॉर कल्चरल रिलेशन से भारत आने का न्यौता मिला था तो उन्होंनें केवल लता जी से मिलने की ख्वाहिश जताई थी ।
और उनसे मिलने के बाद कई गीत, ग़ज़ल पेश करके सबका दिल जीत लिया था।
रूना लैला की मुख्तलिफ आवाज़ के साथ उनकी गायकी का उम्दा अंदाज़ आप 1977 में बनी फ़िल्म ‘घरोंदा’ के गीतों में महसूस कर सकते हैं ,पर इन चंद नग़्मों में यहां वो सिमट के रह गईं और फिर भारत में नहीं गाया ,उनके कुछ बंगाली गाने भी मशहूर हैं, मसलन ‘साधेर लाऊ बनाईलो मोरे’ और ‘शिल्पी आमी, तोमादेरी गान शोनाबो’।
वो अपने गाने इतनी शिद्दत से पेश करती हैं कि आज उनके चाहने वाले पूरी दुनिया में मौजूद हैं और उन्हें आज भी खूब प्यार मिलता है ।
