कांग्रेस के टिकट वंचितों के आंख में आंसू, जुबां पे गाली और अपनी ही धुन पर ‘निर्ममनाथ’!
प्रदेश की सियासी फिजा में फिलहाल कांग्रेस के टिकट वंचितों का रुदन और चीख-पुकार सभी के कानों तक पहुंच रही है। नवरात्रि के शुभ-लाभ वाले मुहूर्त में पार्टी ने 144 सीटें घोषित कर दी की टिकटांक्षी जोधा धरे रह गए! घोषित होने वाले 86 दिल्ली में रात जागरण कर रहे हैं।
भाजपा इस मामले में चतुर निकली। जिन सीटों में टिकटार्थियों की चीख-पुकार मचनी थी उन्हें पहले ही बांट दिया। जिनको जहां जाना था वहां जाकर सेटल हो गए। अब उन 94 सीटों के लिए नाम घोषित करने हैं जहां ज्यादा मारा-मारी नहीं है। टिकट कटने से ऐसी हाय-तौबा तो हर बार मचती है, पर यह मुद्दतों बाद देखने को मिल रहा है कि दोनों प्रतिद्वंद्वी दल फूंक-फूंक कर आगे बढ़ रहे हैं। यह चुनाव दोनों के लिए ‘करो या मरो’ जैसा है।
पहली बार सूबेदारी और पट्ठेबाजी नहीं चली
टिकट जिन्हें नहीं मिली वो भले नाराज़ हैं लेकिन न तो भाजपा और न ही कांग्रेस ने टिकट बांटने में ऐसा कोई रिस्क दिखाया जिसमें पट्ठेबाजी या सूबेदारी दिखती हो। कांग्रेस मुद्दतों बाद इससे से मुक्त दिख रही है। जिनकी नेताओं के कुनबों की टिकटें रिपीट हुई हैं वे पहले से ही जीतते आ रहे हैं। मसलन दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह और बेटे जयवर्धन सिंह। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो इस बार कोई इस तरह के कोटे की बात नहीं कर रहा कि पचौरी की इतनी, राहुल के हिस्से में ये, इतने अरुण यादव के कोटे वाले, इतना हिस्सा दिग्विजय सिंह का और इतने कमलनाथ के खास।
इस बार पैराशूटर्स के लिए ‘आप’ की वरीयता
दोनों दलों ने इस बार पैराशूट लैंडिंग यानी कि दो दिन पहले ही दल-बदल कर आए उम्मीदवार को उतारने से परहेज़ किया है। भाजपा द्वारा सांसदों को दांव पर लगाने के बाद कांग्रेस ने टिकट के मामले में जीरो टॉलरेंस की नीति अपना ली। दल छोड़ने वालों की वरीयता में इस बार केजरीवाल की ‘आप’ है। थैलीवाले बसपा की ओर भाग रहे हैं। और अंत में हारे दांव सपा।
फुंकी हुई कारतूस साबित हो चुकी बसपा खड़-खंड विभाजित गोंगपा से हाथ मिलाने की बात कर रही है तो कांग्रेस इस बार भी जयस को पुचकार रही है। कुल मिलाकर चुनावी चौसर में प्यादे बैठाने के पहले दौर में यही सबकुछ चल रहा है।
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धुन के पक्के, जुबां के खरे कांग्रेस के ‘निर्ममनाथ’
कांग्रेस की सूची में कुछेक टिकटों को लेकर चौंकाने जैसा कुछ नहीं। कमलनाथ की अठारह महीने की सरकार के स्पीकर एनपी प्रजापति की टिकट कट गई, शेखर चौधरी उनकी जगह ले रहे हैं। एनपी कमलनाथ के करीबी और कांग्रेस की राजनीति के व्यवस्थापकों में से एक रहे हैं। इनकी टिकट कटने का मतलब कमलनाथ की निर्ममता का प्रकटीकरण है यानी कि टिकट के मामले में कोई मेरा नहीं, जो जीतने लायक वहीं काम का। यह मैसेज अगली 86 सीटों के लिए उन चंपुओं को भी सांसत में डाल रखा है जिनका गला जय-जय कमलनाथ चिल्लाते कभी फटता नहीं था।
चलिए अब विन्ध्य का कुछ हाल-चाल जानें
दो दिन से अखबारों, चैनल, ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप नागौद के यादवेन्द्र सिंह के आंसुओं से भीगे हैं। गले में बसपा का पट्टा बांधे यादवेन्द्र सिंह कैमरों के सामने फफकते और भभकते दिख रहे हैं। 2013 में नागौद के राजा की सल्तनत को चुनौती देकर कांग्रेस को फतह दिलाने वाले यादवेन्द्र सिंह पिछला चुनाव महज 1236 वोट से हारे थे। उन्हें चुनाव प्रचार के लिए कह दिया गया था। वे चुनाव प्रचार में मस्त भी थे कि उन्हें पस्त करने वाली टिकट कटने की नामुराद खबर मिली। यादवेन्द्र ने अब सीधे कमलनाथ को निशाने पर रखा है। बद्दुआओं के साथ ऐलान किया है कि कमलनाथ की कांग्रेस को समूचे जिले में मजा चखाएंगे।
अब ओबीसी से ही चुनाव की एबीसी
यादवेन्द्र सिंह की टिकट एक युवा डा. रश्मिसिंह पटेल को दे दी गई, वे अब तक जिला पंचायत उपाध्यक्ष थीं। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल पड़ोसी सीट सतना से सांसद गणेश सिंह पटेल को भाजपा ने उतारा है। उनके सामने काछी समाज के सिद्धार्थ कुशवाहा डब्बू हैं, उन्हें हराना है तो काछी-कुनबी की युति चाहिए। यहीं युति गणेश सिंह की सफलता का सबब रही है। और हां यादवेन्द्र सिंह की टिकट के कटने का मतलब यह कि सतना संसदीय क्षेत्र में वर्चस्व रखने वाले अजय सिंह राहुल की एक भी नहीं चली। साफ संदेशा गया कि अब आगे राहुल भैया के भरोसे कोई न रहे।
गुरुदेव के नाती को फेल कर गए राजा
इधर रीवा के त्योंथर से श्रीनिवास तिवारी के पौत्र सिद्धार्थ तिवारी की टिकट कटी तो इसका उनके समर्थकों ने इसका लांछन अजय सिंह पर लगाया। सूत्र कहते हैं कि यह सही नहीं। एक तो दिग्विजय सिंह के सर्वे में सिद्धार्थ का नाम नहीं था, दूसरे कमलनाथ की ओबीसी पालिटिक्स में रमाशंकर सिंह फिट बैठते हैं। दिग्विजय सिंह श्रीनिवास तिवारी को गुरुदेव कहा करते थे। सुंदरलाल तिवारी ने प्रदेश में दिग्विजय के अलावा कभी किसी को भजा नहीं। उनके बेटे सिद्धार्थ भी इसी मुगालते में रहे आए। टिकट कटी तो आंख खुली। सिद्धार्थ फिलहाल चौराहे पर खड़े हैं और उनके समर्थक कांग्रेस का नाश मना रहे हैं।
और अंत में नारायण नारायण
विन्ध्य ही नहीं वरन् प्रदेश के पालटिकल थियेटर के दो ‘एक्ट्रा’ किरदारों की बात न हो तो पूरी कहानी फीकी रहेगी। एक हैं मैहर के नारायण त्रिपाठी और दूसरे सेमरिया के अभय मिश्रा। पांच सालों में दोनों इतनी बार पाले बदल चुके हैं कि कोई यकीन के साथ कह ही नहीं सकता कि फिलहाल मैदान में कहां किस पाले पर खड़े हैं। विधायक और जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुके अभय मिश्रा एक महीने पहले ही कांग्रेस से भाजपा में गए। पर वे अब सेमरिया से कांग्रेस की टिकट के लिए दिल्ली में डटे हैं।
वे पहले भाजपा से ही कांग्रेस में आए थे, रीवा से राजेन्द्र शुक्ल के खिलाफ विधानसभा का चुनाव लड़ा और 18 हजार वोटों से हार कर ठंडे पड़ गए थे। इस बार सेमरिया से कांग्रेस की उम्मीदवारी में उन्हीं का नाम चल रहा था कि अचानक क्या सूझी कि नरोत्तम मिश्रा और वीडी शर्मा की शह पर भाजपा में चले गए। भाजपा ने यहां की टिकट घोषित तो नहीं किया पर विधायक केपी त्रिपाठी की टिकट कटे अब यह वीडी-नरोत्तम के वश की बात नहीं रही।
नारायण त्रिपाठी अब तक भाजपा में ही थे प्रदेश ने यह तब जाना जब चार दिन पहले उन्होंने ने पार्टी व विधायकी से इस्तीफा दिया। नारायण ने कब से कैसे राजनीति शुरू की कब कब कहां रह, कितनी बार कुलाटेबाजी की यह बड़े ब्योरे का विषय है पर वे अब कांग्रेस की टिकट के आकांक्षी हैं। नारायण ने 2014 के लोकसभा चुनाव में वोटिंग के चार दिन पहले कांग्रेस से कुलाटी मारकर भाजपा के पाले में खड़े हो गए। अजय सिंह राहुल चुनाव जीतते जीतते हार गए 7 हजार वोटों से।
अजय सिंह नारायण को अब-तक कांग्रेस में देखना भी नहीं चाहते थे, पर अब नया ट्विस्ट यह कि वे कांग्रेस में अभय मिश्रा की टिकट पैरोकार हैं और इसलिए उनके सामने नारायण को स्वीकार किए जाने की शर्त स्वमेव खड़ी है। वाय-द-वे नारायण और अभय को कांग्रेस की टिकट मिल जाए तो अपने इस ‘चुनावी लोकतंत्र’ की बस अच्छे से जय जय बोलिएगा।
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