कांग्रेस के आधे से भी बहुत कम उम्र की भाजपा, प्रत्याशी चयन के मामले में सयानी और चतुर सुजान निकली। उसने जहां चौथी सूची भी जारी कर दी, वहीं कांग्रेस की टिकटें अभी उलझी हुई हैं। ऊपर से जिन्हें टिकट नहीं दिया जाना है, बड़े नेता उनके कान फूंक रहे हैं कि इस बार ठहरो, अगली बार देखेंगे।
हमारे विन्ध्य में टिकट को लेकर कांग्रेस ने ऐसी ही शुरूआत की है। कभी प्रदेश के बड़े नेताओं में रहे श्रीनिवास तिवारी के पौत्र सिद्धार्थ तिवारी के साथ ऐसा ही हुआ। नेतृत्व के कहने पर जिस त्यौंथर में वे सालभर से अपना महौल बना रहे थे, दो दिन पहले ही उन्हें प्रदेश कांग्रेस का महामंत्री बनाते हुए कहा गया गया कि इस बार ठहरो।
विधानसभा को दस साल तक अपने इशारे में नचाने वाले ताकतवर नेता श्रीनिवास तिवारी दो बार यहां से विधायक रहे। यद्यपि उनकी पारंपरिक सीट मनगवां थी जोकि अब अजा के लिए सुरक्षित है। सिद्धार्थ तिवारी 2019 में लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। उनके पिता सुंदरलाल तिवारी 1998 में लोकसभा के लिए चुने गए थे। 2013 में वे गुढ़ से विधानसभा पहुंचे और फायरब्रांड नेता की इमेज बनाई थी। पिछले लोकसभा चुनाव के ऐन वक़्त उनकी हार्टअटैक से मौत हो गई थी। तब भी यह चर्चा उड़ी थी कि दीपक बाबरिया (तत्कालीन संगठन प्रभारी) ने उनके कान में कहा था- इस बार ठहरो, दूसरे को मौका दो।
लेकिन यह कहें कि भाजपा ने पहले टिकट घोषित करके कोई बड़ा तीर मार लिया तो यह भी ठीक नहीं। विन्ध्य में उसने दो सांसदों को विधानसभा मैदान में उतार दिया। सतना से गणेश सिंह और सीधी से रीति पाठक।
चार बार के सांसद गणेश सिंह के खिलाफ भाजपा के आकांक्षी प्रत्याशी सड़क पर उतर पड़े और टिकट वंचितों का एक समूह गठित कर हराने का सार्वजनिक ऐलान भी कर दिया। पर सबसे दिलचस्प सीधी है जहां निवर्तमान विधायक केदारनाथ शुक्ल खुलेआम बगावत पर उतर गये। उन्होंने तो इस भाजपा को ही नकली करार दे दिया। वे अपनी ‘असली भाजपा’ के साथ गांव-गांव न्याय यात्रा पर हैं। विधानसभा प्रत्याशी रीती पाठक का यह कहते हुए मजाक उड़ाते हैं कि वो तो आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की नौकरी का फार्म भरने गई थी, भाई लोगों ने तब सांसदी का फार्म भरवा दिया, चलो वह ठीक रहा पर मेरी टिकट काटकर उसे..? यह नहीं चलेगा। सीधी के जगचर्चित पेशाब कांड के छीटे केदार जी के कैरियर को भी भिगो गए।
तीसरे किरदार हैं मैहर के नारायण त्रिपाठी, भाजपा के विधायक रहते हुए ही भाजपा की नाल ठोकने में लगे रहे। उनकी टिकट काटकर श्रीकांत चतुर्वेदी को टिकट दे दी गई, पिछली बार श्रीकांत कांग्रेस से लड़ें थे। अब नारायण का ऐलान है कि विन्ध्यप्रदेश के मुद्दे को लेकर तीसों सीटों पर उम्मीदवार उतारेंगे और भाजपा को मजा चखाएंगे।
ये तीन घटनाक्रम यह बयान करने के लिए पर्याप्त हैं कि टिकट बंटने के साथ यहां का चुनावी माहौल क्या है? और जब सभी दलों के प्रत्याशी मैदान पर उतरेंगे तो वह किस तरफ जाएगा? फिलहाल टिकट की सरगर्मी में मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है। फिलहाल भाजपा की आफत और कांग्रेस में सांसत साफ दिख रही है।
मध्यप्रदेश में विन्ध्य पर भाजपा और कांग्रेस दोनों की पैनी नजर है। 30 सीटों वाला यह इलाका कितना अहम है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब कमलनाथ आह भरते हैं तो उनकी जुबान से विन्ध्य का नाम फूटता है. काश इस इलाके ने 2018 में साथ दिया होता। शिवराज सिंह चौहान जब जोश से वाह कहते हैं तो उनके स्वर से विन्ध्य की प्रशस्ति झरती है। 2020 में जब वे मुख्यमंत्री बनकर यहां पहली बार आए तो यहां की भूमि को शाष्टांग प्रणाम किया, कारण कठिन स्थिति में भी यहां भाजपा को 30 में से 24 सीटें मिली थीं जो चुनावी पंडितों को चकित कर देने वाली रहीं।
इस इलाके के एक महत्वपूर्ण किरदार हैं राजेंद्र शुक्ल जिन्हें पिछले चुनाव में भाजपा ने समूचे विंध्य के लिए पार्टी का चेहरा बनाया था। लेकिन जब भाजपा ने कमलनाथ से सत्ता छीनी तो उसके बाद पहला सियासी खेल राजेन्द्र शुक्ल के साथ ही किया। चार बार से रिकॉर्ड मतों से जीतने वाले इस नेता को हाशिए में डालकर भाजपा के प्रदेश नेतृत्व के इस कृत्य का प्रकटीकरण नगरनिगम और जिला पंचायतों के चुनाव में सामने आया जब भाजपा सिंगरौली, रीवा नगर निगम, सीधी, शहडोल नगरपालिका गंवा बैठी। राजेन्द्र को डेढ़ महीने पहले ही कैबिनेट में लिया और वह भी दिल्ली की हिदायत पर। इस बार राजेन्द्र समूचे विन्ध्य के लिए कितने प्रभावी होंगे इसका आंकलन आप खुद कर सकते हैं।
इस बार एक नयी किरदार है आम आदमी पार्टी, जिसने सिंगरौली से दस्तक दी है नगर निगम चुनाव जीतकर। ‘आप’ कितनी गंभीर है अरविंद केजरीवाल के दौरों से पता चलता है। वे तब से अब तक तीन बार आकर जन सभाएं संबोधित चुके हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान की तो यहां ड्यूटी सी लगा रखी है। पिछले हफ्ते यहां थे अगले हफ्ते भी यहीं के विधानसभाओं में घूमेंगे।
90 के दशक में धूमकेतु की तरह छा जाने वाली बहुजन समाज पार्टी का फिलहाल कोई घनीघोरी नहीं। ईडी, आईटी से भयाक्रांत बहन मायावती को इधर झांकने की फुर्सत कहां। विन्ध्य में वोटों का 20 से 25 प्रतिशत तक का हिस्सा छीनने वाली बसपा लुढ़ककर पांच प्रतिशत में आ गई। और यही राज की बात है कि 1990 के पूर्व तक विन्ध्य में ‘निल बंटा सन्नाटा’ रहने वाली भाजपा के पांव हाथी जैसे इसलिए भारी हो गए कि कांग्रेस टस से मस नहीं कर पा रही। इस बार भी बसपा के वोट भाजपा के साथ फेवीकोल की भांति चपके ही रहेंगे? वोटर ही जानें।