How Did China Captured Aksai Chin: अक्साई चिन का इतिहास देश के लोगों को जानना बहुत जरूरी है, हमारी Story Of Aksai Chin आपके बड़े-बड़े डाउट्स को क्लियर कर देगी
अक्साई चिन की कहानी: चाइना ऐसा देश है जो पूरे एशिया को चाइना मानता है. विस्तारवादी सोंच रखने वाला देश चीन हमेशा से अपने पडोसी देशों की जमीन को भी हथियाने में लगा रहा है. सिर्फ भारत ही नहीं है जो चीन के राष्ट्रपति कम तानाशाह Xi Jinping से परेशान है. बल्कि तिब्बत, भूटान, मलेशिया, ताईवान, जापान हर कोई इस देश की हरकत से हलकान है.
भारत में विपक्षी पार्टी खासतौर पर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी चीन का मुद्दा उठाते रहते हैं. राहुल गांधी दावा करते हैं कि चीन ने भारत का एक बड़ा भूभाग अपने कब्जे में ले लिया है, चीन ने लद्दाख की जमीन पर अपने बेस कैंप बना लिए हैं. जब राहुल ऐसे दावे करते हैं तो इधर से लोग उन्हें ‘अक्साई चिन’ का इतिहास याद दिला देते हैं. वही अक्साई चिन जिसकी अहमियत को तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने नहीं समझी, वही अक्साई चिन जिसका जिक्र होते ही राहुल गांधी की जुबान ठंडी पड़ जाती है, वही अक्साई चिन जो कभी भारत का हिस्सा था मगर आज उसी अक्साई चिन के दम पर चीन भारत की नाक में दम किए हुए है.
अक्साई चिन बहुत बड़ा भूभाग है, जो कुछ नहीं सिर्फ सफ़ेद रेगिस्तान है. और इसी सोच से ग्रसित पंडित जवाहर लाल नहरू ने इस जमीन को कोई तवज्जों नहीं दी. अक्साई चिन का इतिहास बहुत पुराना है इसी लिए अब आप पढ़ने आए हैं तो पूरा इतिहास समझकर ही अपनी आंखों को आराम दीजियेगा। क्या है कि अधूरा ज्ञान लेने वाली ही चीन-चीन चिल्लाते हैं जिन्हे इतिहास मालूम है वो जानते हैं कि चाइना की गुंडई की वजह क्या है?
अक्साई चिन का इतिहास
अक्साई चिन का इतिहास जानने से पहले ये जानना जरूरी है कि अक्साई चिन में ‘चिन’ क्या है? बहुत लोग ‘चिन’ और चीन’ में कन्फ्यूज हो जाते हैं. 19वीं सदी में मोहम्मद अमीन नाम के वीगर मुस्लिम ने ‘यह नाम दिया था. अमीन एक गाइड था, जिसने रोबर्ट, हरमन और अडोल्फ नाम के तीन जर्मन भाइयों की इस इलाके की खोज करने में मदद की थी. ये तीनों जर्मन भाई ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से इस क्षेत्र का मुआयना करने के लिए आए थे.
Ethnolinguistic Prehistory नाम की एक किताब में डच भाषाविद ‘जॉर्ज वैन ड्रियम’ ने लिखा है कि-
”मोहम्मद अमीन ने इस जगह को नाम दिया था ‘अक्साई चोल’. वीगर भाषा में जिसका मतलब होता है ‘पत्थरों वाला सफ़ेद रेगिस्तान’.बाद में यही नाम अंग्रेजी में अक्साई चिन के नाम से प्रचलित हो गया”
अब अक्साई चिन के मैप को देखिये
अक्साई चिन भारत के लद्दाख का हिस्सा है, लेकिन चीन के कब्जे में हैं और चाइना इसे अपने शिनजियांग प्रांत का हिस्सा बताता है.
अक्साई चिन के नीचे तिब्बत का हिस्सा है जिसमे में भी चीन का कब्जा है. अक्साई चिन के ऊपर सियाचिन है. सियाचिन, लद्दाख और अक्साई चिन जिस हिस्से में मिलते हैं उसे काराकोरम पास (Karakorum Pass) कहते हैं. एक समय था जब काराकोरम पास लद्दाख को शिनजियांग से जोड़ता था. हालांकि तब शिनजियांग को तारिम घाटी कहते थे, इसमें भी कब्जा करके चीन ने इसे शिनजियांग नाम दे दिया था. ये भारत का ही हिस्सा हुआ करता था.
तारिम घाटी
तारिम घाटी का सबसे बड़ा शहर था खोतान, जिसे अब होतान कहा जाता है. स्थानीय लोग इसे गोस्थान बुलाते थे. सन 1900 के करीब औरल स्टाइन नाम के एक आर्किओलॉजिस्ट को यहां प्राकृत भाषा के ग्रंथ मिले थे, उन ग्रंथो से पता चला था कि खोतान को तक्षशिला से आए भारतीयों ने बसाया था. कहा जाता है कि इस शहर का निर्माण 300 BC में हुआ था. सम्राट अशोक के पुत्र को इसी कबीले के लोगों ने अंधा कर दिया था जिसके बाद मौर्य साम्राज्य ने पूरे कबीले को ही निष्काषित कर दिया था. तब ये सभी निष्काषित लोग खोतान में आकर बस गए थे.
ये भी कहा जाता है कि खोतान को अशोक के पुत्र ने ही बसाया था. यहां मिले बौद्ध ग्रन्थ इस बात का प्रमाण हैं कि एक समय में खोतान भारत का हिस्सा था. यहां एक शिव जी की प्राचीन पेंटिंग भी है और ये सबसे बड़ा प्रमाण है. भारत के पौराणिक ग्रंथों में भी इस इलाके का जिक्र मिलता है. रोमन भूगोलशास्त्री टॉलेमी ने 200 AD में लिखा था कि चीन के पूर्वी हिस्से में उत्तर कराई नाम की जगह है, इस कथन का महत्त्व इसी लिए है क्योंकी सनातन ग्रंथों में भी उत्तर की तरफ ‘कुरु’ नाम की जगह का वर्णन है जिसका महाभारत में भी जिक्र मिलता है.
खोतान से भारत तक जाने के लिए दो रास्ते थे. पहला था कराकोरम दर्रे को पार करते हुए हुंजा तक, (हुंजा अब POK में पड़ता है, हुंजा से आगे गांधार और तक्षशिला का रास्ता था) दूसरा रास्ता दक्षिण की तरफ जाता था, लेह ही तरफ कराकोरम दर्रे से होते हुए सिल्क व्यापारी यहीं से भारत में एंट्री करते थे. शक, कुषाण, हूण इसी मार्ग से भारत आए थे.
अक्साई चिन की कहानी
Story Of Aksai Chin: अक्साई चिन ऐसा इलाका था जो पूरी तरह से बेजान था. यहां घांस का एक तिनका भी नहीं उगता था. इसी लिए कोई अक्साई चिन पर कब्जा करने की सोचता भी नहीं था. इसका सिर्फ एक ही महत्त्व था, वो ये था कि तारिम घाटी से पश्चिम तिब्बत का रास्ता यहीं से गुजरता था. इस मार्ग का इस्तेमाल व्यापारी करते थे.
आंठवी सदी में तिब्बती राजाओं ने लद्दाख में और तारिम घाटी में तुर्कों ने कब्जा कर लिया। फिर भी किसी ने अक्साई चिन को कब्जाने की कोशिश नहीं की. क्योंकि यहां कब्जा करने के बाद राजाओं को कुछ मिलता ही नहीं। ये बात तब की है जब चीन की सीमा भारत से लगती ही नहीं थी. चीन लद्दाख को अपना हिस्सा इसी लिए कहता है क्योंकी इतिहास में यहां तिब्बती राजाओं का कंट्रोल था, लेकिन तब तिब्बत चीन का हिस्सा ही नहीं था.
लद्दाख के इतिहास में लम्बे समय तक चीन कहीं था ही नहीं. जिसे शिनजियांग नाम दिया जाता है. वो इलाका भी 18 वीं सदी में अस्तित्व में आया. जब चीन के किंग साम्राज्य ने तारिम घाटी और आसपास के इलाके को मिलाकर उसे शिनजियांग नाम दे दिया. इस दौरान भी किंग साम्राज्य ने अक्साई चिन के इलाके में दखल देने की कोई कोशिश नहीं की. क्योंकि ये किसी के काम का नहीं था.
अक्साई चिन को लेकर विवाद कब शुरू हुआ
18वीं सदी तक तो अक्साई चिन को कोई तवज्जों ही नहीं दी गई, लेकिन 19वीं सदी की शुरुआत में रूस और ब्रिटिश साम्राज्य के बीच चले सियासी खेल ने अक्साई चिन की अहमियत समझ में आई. फिरंगियों को डर था कि कहीं रूस मध्य एशिया से अपनी पहुंच बढाकर भारत तक ना घुस आए, इसी लिए 18वीं सदी के अंत से ही ब्रिटिशर्स ने तिब्बत और शिनजियांग के इलाके के महत्व को समझा।
अठारवीं सदी में फ़्रांस और ब्रिटेन आपस में गुत्थमगुत्था थे. फ़्रांस के सम्राट नेपोलियन ने मैसूर के टीपू सुल्तान के साथ संधि कर भारत में आक्रमण का प्लान बनाया. नेपोलियन ने रूस के ज़ार से मदद मांगी. लेकिन ये आक्रमण शुरू होने से पहले ही फेल हो गया. अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को युद्ध में हराया. वहीं नेपोलियन यूरोप की लड़ाइयों में ही फंसकर रह गया. यानी अब अकेला बच गया रूस. रूस अफ़ग़ानिस्तान और तिब्बत में एंट्री चाहता था. लिहाजा अंग्रेजों ने भी अपनी तैयारी शुरू कर दी.
चुसूल की संधि
19वीं सदी में लद्दाख पर सिख साम्राज्य ने कब्जा कर लिया था. बाद में कश्मीर के डोगरा सरदार ‘गुलाब सिंह’ ने लद्दाख पर आधिपत्य जमा लिया। साल 1841 में उनके एक सेनापति जोरावर सिंह कहलुरिया ने तिब्बत पर हमला कर दिया. तिब्बत की मदद के लिए चीन के किंग सम्राट की सेना आई और इस जंग में कहलुरिया मारे गए. इसके बाद तिब्बती और चीनी फौज ने मिलकर लद्दाख पर हमला कर दिया. लद्दाख पर कुछ दिनों के लिए तिब्बतियों का कंट्रोल हो गया. लेकिन जल्द ही डोगरा फौज ने उन्हें वापस पीछे खदेड़ दिया. सितम्बर 1842 में डोगरा साम्राज्य और तिब्बत के बीच एक संधि हुई. जिसे ‘चुशुल की संधि’ कहा जाता है. संधि में साफ़ था कि लदाख डोगरा साम्राज्य का हिस्सा है. और बदले में उन्होंने तिब्बत पर अपना अधिकार छोड़ दिया.
अमृतसर की संधि
चुशुल की संधि के 4 साल बाद ‘अमृतसर की संधि’ हुई. महाराजा गुलाब सिंह और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई इस संधि के तहत जम्मू-कश्मीर गुलाब सिंह के हवाले कर दिया गया जिसके बदले उन्होंने अंग्रेजों को भारी-भरकम रकम अदा की. इधर डोगरा महाराजा लदाख से पहले आने वाला हिस्सा चाहते थे जिसे अंग्रेजों ने देने से मना कर दिया। उनके मुताबिक लद्दाख में सिर्फ काराकोरम दर्रे तक लद्दाख की सीमा थी. गुलाब सिंह के बाद महाराजा बने रणबीर सिंह ने इसे मानने से इंकार कर दिया. और काराकोरम से 100 किलोमीटर आगे, शाही दुल्ला में अपनी फौज बिठा दी. शाही दुल्ला शिनजियांग प्रान्त में पड़ता है. रणबीर सिंह ज्यादा दिन यहां अपनी पोस्ट बरक़रार नहीं रख सके और 1867 में उन्होंने अपनी फौज वापस बुलानी पड़ी.
साल 1965 में ब्रिटिश सर्वेयर, विलियम जॉनसन ने लद्दाख का सर्वे शुरू किया, वो शाही दुल्ला तक गए और पूरे लद्दाख का नक्शा बनाया। यहीं गलवान घाटी का सर्वे हुआ था. जब ब्रिटिश सर्वे दल बर्फीली पहाड़ियों में भटक गया था तब लद्दाख के एक गाइड गुलाम रसूल गलवान ने उनकी मदद की थी. जिस इलाके से उसने अंग्रेजों की टीम को बचाया था उसका नाम ‘गलवान’ रख दिया था.
खैर… लद्दाख का नक्शा बनकर फाइनल हुआ. भारत और चीन की सीमा तय हुई. इस सीमा रेखा को जॉनसन लाइन या आर्डाघ- जॉनसन लाइन कहा जाता है. (Ardagh Johnson Line) कहा गया. भारत इसी लाइन को मानता है और चीन की बात ही निराली वो तो रूस को भी चीन मनाता है.
नक्शा बन गया, बॉर्डर बन गए लेकिन 20वीं सदी तक अक्साई चिन में किसी ने भी दखल नहीं दिया। 1899 में ब्रिटिश सरकार ने चीन किंग साम्राज्य को नई सीमा रेखा बनाने का प्रस्ताव दिया, जिसके तहत अक्साई चिन का आधा हिस्सा चीन को दिया जा रहा था. ऐसा इसी लिए सोचा गया क्योंकी अक्साई चिन का काराकोरम पर्वत श्रृंखला एक नेचुरल बॉर्डर था. इसलिए ब्रिटिश अधिकारियों ने काराकोरम से आगे का एक बढ़ा इलाका चीन के हवाले करना चाहा. उन्होंने ये प्रस्ताव चीन के पास भेजा लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वहां से कोई जवाब नहीं आया. इसके बाद अंग्रेज़ अपने नक्शों में आर्डाघ- जॉनसन लाइन को ही सीमा रेखा के तौर पर इस्तेमाल करते रहे. 1940 तक नक्शा ज्यों का त्यों रहा. चीन ने भी कोई आपत्ति नहीं की. यहां तक कि 1917 से 1933 तक चीन का पोस्टल एटलस, जॉनसन लाइन को ही सीमा रेखा दिखाता रहा. बीजिंग यूनिवर्सिटी एटलस से छपने वाले नक़्शे भी इसी रेखा को छापते रहे.
1941 से शुरू हुई असली लड़ाई
1940 तक सब ठीक था, लेकिन 1941 में अंग्रेजी हुकूमत को खबर लगी की रूसी अधिकारी अक्साई चिन में सर्वे कर रहे हैं. रूस के इस नए इंटरेस्ट का कारण था, ‘सेंग शिकाई’ नाम का एक सामंत. जिसने 1933 में सत्ता पलट कर शिनजियांग पर अपना अधिकार जमा लिया था. सेंग शिकाई के सोवियत रूस से अच्छे संबंध थे. और उसी के बिना पर रूस अक्साई चिन में सर्वे करना चाहता था. यहां एक बार फिर ब्रिटिश सरकार ने जॉनसन लाइन का हवाला दिया. लेकिन फिर भी अक्साई चिन में कोई मिलिट्री पोस्ट तैयार नहीं की.
1947 में भारत आजाद हुआ. इसी दरमियान ‘माओ’ चीन का तानाशाह बन गया. माओ ने अपनी 5 विंग पॉलिसी में लद्दाख को जोड़ दिया। उसने दावा किया कि तिब्बत चीन का दायां हाथ. और उसकी पांच उंगलियां- सिक्किम, नेपाल, भूटान, अरुणाचल और लद्दाख हैं. इधर प्रधान मंत्री नहरू लदाख को नक़्शे में ‘अनडीमार्केटेड ‘ दिखाते रहे. यानी सरकार सीमा रेखा को लेकर किसी विवाद से बचना चाहती रही.
उस समय भोला नाथ IB हेड थे, उन्होंने अपनी किताब My Years with Nehru: The Chinese Betrayal में उन्होंने लिखा-
“नेहरू चीन के साथ 25 साल का समझौता चाहते थे. लेकिन चीन सिर्फ आठ साल के लिए तैयार हुआ”.
चीन ने अक्साई चिन पर कब्जा कैसे किया
चीन भारत के लिए बहुत बड़ा खतरा था, ये बात चाचा नहरू अच्छे से समझते थे. वो ये भी जानते थे कि इन नक्शों को लेकर हो रहे मतभेद दोनों देशों के बीच विवाद का कारण बनेंगे। लेकिन नहरू को कभी अक्साई चिन की तवज्जो नहीं थी. वो भी इस हिस्से को ‘बेकार, बेजान, सफ़ेद रेगिस्तान’ समझते थे. उनका सोचना था कि अक्साई चिन भारत का हो या ना हो कोई फर्क नहीं पड़ता। यही वजह थी की 1958 तक भारत ने अक्साई चिन के पास एक बॉर्डर पोस्ट तक नहीं बनाई.
यही जवाहर लाल नहरू की सबसे बड़ी गलती थी. इन्होने अक्साई चिन को बंजर मान लिया उधर 1956 में चीन ने शिनजियांग और तिब्बत के बीच एक पक्की रोड का निर्माण कर लिया. यह रोड अक्साई चिन से गुजरती थी. चीन ने भारत की जमीन में 1200 किलोमीटर लंबी रोड बना दी और इधर सरकार को कुछ पल्ले ही नहीं पड़ा.
फ्रेंच पत्रकार क्लॉड आर्पि ने अपनी किताब “The Fate of Tibet: When Big Insects Eat Small Insects” में CIA के कुछ दस्तावेजों का हवाला देते हुए लिखा
‘चीन की सेना ने 1951 में पहली बार अक्साई चिन का दौरा किया, और 1953 में यहां सड़क निर्माण शुरू कर दिया, 1956 तक 1200 किलोमीटर सड़क बन गई और भारत को 1957 में इसके बारे में पता चला’
सड़क बनते ही चीन ने तिब्बत को अपने कन्ट्रोल में ले लिया तभी दलाई लामा को तिब्बत छोड़ भारत में शरण लेनी पड़ी.
1960 में भारत ने दौलत बेग ओल्डी में एक बॉर्डर पोस्ट बनाई और जुलाई 1962 में गोरखा सैनिकों की एक प्लाटून ने गलवान घाटी में पोस्ट का निर्माण कर लिया. इस बीच 1960 में चीन के प्रधानमंत्री चू इन्लाई ने भारत का दौरा किया. इन्लाई बॉर्डर विवाद पर बात करना चाहते थे. उनका प्रस्ताव था कि अगर भारत अक्साई चिन पर अपना दावा छोड़ दे तो वो NEFA यानी अरुणाचल पर दावा छोड़ देगा. अब तक नेहरू की हालत दूध के जले जैसी हो चुकी थी. यूं भी देश में माहौल चीन के खिलाफ था. और नेहरु अपनी पॉलिटिकल कैपिटल तिब्बत और पंचशील पर खर्च कर चुके थे. वार्ता विफल रही. इसके बाद जैसा हम जानते हैं 1962 में पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर लड़ाई शुरू हो गई. अरुणाचल से चीन वापस हट गया लेकिन अक्साई चिन पर उसने अपना कब्ज़ा कभी नहीं छोड़ा.
चीन इसी लिए लद्दाख और अरुणाचल को अपना हिस्सा बताता रहता है. और उसी मुद्दे को लेकर विपक्ष सरकार पर सवाल खड़े करता है. चीन देश ही ऐसा है जिसने आधी दुनिया को परेशान किया हुआ है. वह भारत पर भी दादागिरी दिखाते रहता है. चीन आगे भी ऐसा करते रहेगा। लेकिन उसके दावे से क्या फर्क पड़ता है. जिसे भारत ने पूर्व प्रधान मंत्री की नादानी के चलते खो दिया सो खो दिया, अभी जो हमारा है वो हमारा ही रहेगा। चीन ने दो साल पहले गलवान को कब्जाने की कोशिश की थी तब बॉर्डर में तैनात जवानों ने चीनी सैनिकों को कचर के रख दिया था.