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भक्तियुग के प्रमुख संत कवि रैदास

मध्ययुगीन भक्तकालीन संतों में से रैदास का प्रमुख स्थान है, वह एक सुप्रसिद्ध भक्तकवि भी थे, कथाओं के अनुसार वह काशी के निवासी थे, और जन्म से चर्मकार था, यह बात उनकी कई कविताओं से भी सिद्ध होती हैं, कहा यह भी जाता है, हालांकि उनका जन्म वर्ष-संवत इत्यादि कुछ भी निश्चित नहीं है, पर माघ महीने की पूर्णिमा को उनका जन्म माना जाता है, अलग-अलग स्त्रोतों में उनके माता-पिता के नाम भी अलग-अलग ही मिलते हैं। लेकिन रैदास के कुछ पदों के अनुसार उनके पिता का नाम रग्घू और माँ का नाम घुरबिनिया था, कहा यह भी जाता है, वह आजीवन सहर्ष जूते बनाने का काम करते रहे, जो उनका पिता और परिवार का व्यवसाय था। भिन्न-भिन्न पोथियों में उनके नाम में कुछ आंशिक मतांतर भी प्राप्त होते हैं, इसीलिए उनका नाम रैदास, रायदास, रूइदास, रोहिदास इत्यादि भी मिलते हैं।

उनके बारे में कई कथाएँ

उनके बारे में कई कथाएँ प्रसिद्ध हैं, यह माना जाता है वह 14 वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध धार्मिक संत रामानंद के शिष्य रहे, लेकिन कुछ विद्वान रैदास को रामानंद का शिष्य नहीं स्वीकारते हैं, इसी तरह कुछ कथाओं के अनुसार वह कबीर के समकालीन रहे, कुछ कथाओं के अनुसार मीराबाई उनकी शिष्या रहीं, हालांकि प्रियादास कृत भक्तमाल की टीका के अनुसार चित्तौड़ की झाली रानी उनकी शिष्या थीं, लेकिन इन कथाओं में पुख्ता साक्ष्यों का आभाव है, इसीलिए कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता है, उनके बारे में और भी कई कथाएँ प्रचलित हैं, जैसे सिकंदर लोदी से उनकी मुलाक़ात इत्यादि।

रैदास का व्यक्तित्व

रैदास पूरे संत दार्शनिक थे, संसार से उनको वीतराग था, उनका मन सदा ही परमार्थ का चिंतन करता रहता था, इसीलिए शारीरिक रूप से वह उदास थे, सांसारिक कामों में उनका मन नहीं लगता था, आचार्य शंकर के अद्वैत वेदान्त के जो लक्षण कहे गए हैं, वह सभी रैदास में मिलते हैं। उनके काव्य में कई जगह यह ‘उदास’ शब्द व्यक्त हुआ है, इसिलिए कई लोगों ने उन्हें उदासी संप्रदाय का मान लिया, लेकिन ऐतिहासिक रूप से ये सत्य प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि उदासी संप्रदाय गुरु-नानक के पुत्र श्रीचंद द्वारा चलाया गया था, इसके अलावा रैदास गृहस्थ थे, इसीलिए उनको गृहस्थसंत भी कहा जाता है।

रैदास का समाज पर प्रभाव

उनकी निर्दोष भक्तिभावना, उनके वाणी से फूटी सामाजिक कल्याण की भावना, सभी मानवों के लिए प्रेम और सद्भाव की भावना ने, उन्हें समाज के सभी वर्गों में लोकप्रिय कर देता है, वह किसी भी धर्म या दर्शन खंडन-मंडन में विश्वास नहीं करते हैं, बल्कि सत्य को स्वीकारते हैं, वह अपनी जाति के प्रति बहुत सहज हैं, वह स्वयं भले ही मूर्ति पूजा नहीं करते हैं, पर उसे व्यर्थ साबित करने की कोशिस भी नहीं करते हैं, इसीलिए शायद उनके भजनों और दार्शनिक उपदेशों का समाज में बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है और लोग सहजता से उनके अनुयायी बन जाते है, जिसके कारण हम देखते हैं, कथाओं के अनुसार चित्तौड़ की राजरानियाँ भी उनको गुरु मान रहीं हैं, विद्वान ब्राम्हण भी उन्हें प्रणाम कर रहे हैं। हालांकि इन कथाओं में कितनी सच्चाई है यह दावा तो नहीं किया जा सकता है, लेकिन फिर भी समाज में उनका प्रभाव तो था ही, क्योंकि राजस्थान की कई हस्तलिखित पोथियों में उनके पद्य मिलते हैं, गुरु अर्जुन द्वारा संकलित गुरुग्रंथ साहब में भी उनके पद्य मिलते हैं, मराठी और बंगाली भाषा के ग्रंथों में भी उनका जिक्र मिलता है। इसके अलावा कई भक्त संतों की वाणियों में भी रैदास का जिक्र है।

रैदास का साहित्य

रैदास के बारे में यह माना जाता है, वह अनपढ़ थे, लेकिन विभिन्न ग्रंथों में उनके पदों का संकलन के अनुसार यह कहा जा सकता है, उनके शिष्यों य अनुयायियों द्वारा इन्हें संकलित किया गया था, वह भक्तिकाल के ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि थे, लेकिन ज्ञान और प्रेम के बीच एक सामंजस्य उनकी रचनाओं में मूलतः प्राप्त होता है। उदाहरण स्वरूप उनका एक पद्य है-

रैदास प्रेम ना छिप सके, लाख छिपाए कोय ।

प्रेम ना मुख खोलै कभऊँ, नैन देत हैं रोय।।

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