जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी ।
गोरों से लडना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।
इतिहास में गुमनाम सेनानी :
स्वतंत्रता आंदोलन के कई ऐसे सेनानी रहे जो आज तक गुमनाम है, जिन्होंने संग्राम सेनानियों के साथ मिलकर अंग्रेज़ो के नाक में दम कर दिया इतना ही नहीं महासंग्राम में जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपने प्राण की आहुति तक चढ़ा दी। बावजूद इन सब के नई पीढ़ी को इनके बारे में जानकारी ही नहीं है ऐसे ही संग्रामियों में एक नाम है —वीरांगना झलकारी बाई का।
एक स्त्री जिसके हौसले और बहादुरी को इतिहास के दस्तावेज़ों में जगह नहीं मिली. पर आम लोगों ने उसे अपने दिलों में जगह दी. और क़िस्से – कहानियों- उपन्यासों- कविताओं के ज़रिये पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें ज़िंदा रखा. सालों बाद उसकी कहानियाँ दबे- कुचले, हाशिये के समाज के लोगों की प्रेरणा बनीं. तब ही तो घोड़े पर सवार उनकी मूर्तियाँ आज कई शहरों में दिख जाती हैं. वही झलकारी बाई हैं.
1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी का ज़िक्र होता है तो झाँसी की रानी का ज़िक्र लाज़िमी है. ऐसा कहा जाता है कि रानी झाँसी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर झलकारी बाई भी अंग्रेज़ों से लड़ीं थीं. रानी लक्ष्मीबाई का नाम तो हममें से ज़्यादातर लोग बचपन से जानते और सुनते आये हैं लेकिन झलकारी बाई का नाम इतिहास की किताबों में बहुत कम आया है । पर कुछ इतिहासकारों और उपन्यासकारों ने उनका ज़िक्र ज़रूर किया है।
उनका जन्म 22 नवम्बर सन् 1830 में हुआ था। आपके पिता का नाम सदोवर सिंह एवं माता जी का नाम जमुना देवी था
इतिहासकार राजकुमार उनके बारे में बताते हैं–
“झलकारी बाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के क़िले के सामने रहती थीं. भोजला उसका गाँव था और परिवार पेशे से बुनकर था. वो बहुत आम और ग़रीब परिवार की थीं .क़िले के दक्षिण में उन्नाव गेट है. झलकारी बाई के घराने के लोग वहीं रहते थे।”
रानी की दासी थीं झलकारी ;
ये लोग रानियों और राजाओं के घरों में सेवा कार्य से जुड़े ख़ास काम करते थे.. वैसे ही झलकारी भी उनके घर में काम करती थीं. और ऐसे ही वो लक्ष्मी बाई से जुडी थी. यानि की वो लक्ष्मीबाई की दासी थी, और उस समय रानी भी कम उम्र की थीं. ये दासियाँ भी कम उम्र की रही होंगी. इनमें मैत्री भाव का होना स्वभाविक था। और कहा जाता है कि झलकारी का चेहरा- मोहरा, काफी कुछ रानी लक्ष्मीबाई की ही तरह था. ‘बद्री नारायण का मानना है कि झलकारी का रानी से जुड़ना दो कारणों से संभव है. एक तो सेवा कार्य से जुड़ी हुई जाति से होना. दूसरा उनके पति का रानी की सेना में होना।
यानि की पति लक्ष्मीबाई की सेना में थे और पत्नी उनकी दासी। पर ज़रूरी तो नहीं की एक दासी देश के बारे में न सोचे या उसमें साहस न हो। उनके क्षेत्र में बहुत लूटपाट होती रहती थी जिसके लिए उन्होंने लोगों की सुरक्षा के लिए युद्ध करने का जौहर सीखा था। रानी लक्ष्मीबाई के महिला सेना ‘दुर्गा दल’ में शामिल होने के बाद झलकारी ने युद्ध के हर क्षेत्र में विशेशज्ञता हासिल कर ली थी, इसीलिए वे लक्ष्मीबाई की सबसे विश्वासपात्र थी। इसी साहस से झलकारी बाई का चरित्र इतना सशक्त होता गया कि वो देश के बारे में सोचने लगीं. समाज के बारे में सोचने लगीं..और साहस तो उनमें बचपन से था।
देश प्रेम से परिपूर्ण थी झलकारी ;
रानी लक्ष्मीबाई के बारे में समझ में आता है… वे जो अपने राज्य के लिए सोच रही थीं. शासक होने के नाते सोच रही थीं. लेकिन झलकारी बाई… कुछ नहीं था उनके पास. उसके बावजूद, वे समाज के बारे में सोचती थीं. देश के बारे में सोचती थीं. यह एक बड़ी बात है.” वृंदावनलाल वर्मा भी अपने उपन्यास में झलकारी बाई का ज़िक्र करते हैं और बताते हैं, ‘रानी ने स्त्रियों की जो सेना बनायी थी, उसकी एक सिपाही झलकारी भी थीं।
रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थीं झलकारी :
झलकारी बाई महारानी लक्ष्मी बाई की एक ऐसी महिला सिपाही थी जो न सिर्फ उनके जैसा साहस रखती थी बल्कि उनका रूप रंग भी लक्ष्मी बाई की तरह ही था। यही वजह थी की झलकारी बाई महारनी की तरह वेश भूषा पहन कर अंग्रेज़ो को चकमा दे देती थीं। और उस रोज़ भी उन्होंने वही किया।
रानी की जान बचने जब खुद को डाल दिया खतरे में ;
बकौल बद्री नारायण लिखते हैं की –जब 1857 के युद्ध में ब्रितानी सैनिकों का हमला हुआ तो उस समय झलकारी बाई ने एक योजना बनायीं और लक्ष्मी बाई को जान बनचाकर वहां से भाग जाने को कहा। तब झलकारी बाई ने उनका भेष धारण किया और घोड़े पर बैठीं और ऐठ के साथ अंग्रेज़ी छावनी की ओर चल दिया. साथ में कोई हथियार न लिया. चोली में केवल एक छुरी रख ली.थोड़ी ही दूर पर गोरों का पहरा मिला। अंग्रेज़ो ने उनसे सवाल किया कौन हो?….उन्होंने बड़ी ही हेकड़ी से जवाब दिया झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई। .ये सुनते ही गोरों ने उसको घेर लिया। और सभी जगह शोर हो गया झाँसी की रानी पकड़ी गयी। गोरे सिपाही ख़ुशी में पागल हो गये. पर उनसे भी बढ़कर पागल झलकारी थी. उसको विश्वास था कि मेरी जाँच – पड़ताल और हत्या में जब तक अंग्रेज़ उलझेंगे तब तक रानी लक्ष्मी बाई को इतना समय मिल जायेगा और वो काफी दूर निकाल जाएँगी।
बहादुरी से अंग्रेज़ों को चकमा देती रहीं
लक्ष्मीबाई बन कर वे ब्रिटिश सैनिकों को धोखा देती रहीं. बहुत वीरता से लड़ीं. कोई पहचान नहीं पाया कि लक्ष्मीबाई नहीं हैं.” सब कुछ योजना के अनुसार चल रहा था और रानी लक्ष्मीबाई किले से सुरक्षित बाहर निकल गई और झलकारी बाई ने अंग्रेजी सेना को उलझाये रखा। हॉलाकि एक मुखबिर ने झलकारी बाई को पहचान लिया और झलकारी बाई की पहचान उजागर करने की कोशिश की, तभी झलकारी ने उसे बंदूक से गोली मार दी, ताकि रानी लक्ष्मीबाई का सच सामने न आ सके।
वीरांगना वीर गति को प्राप्त हुईं ;
झलकारी बाई को भारी सुरक्षा के साथ एक तंबू में कैद किया गया था, लेकिन वो मौका पाकर वहाँ से भाग गयी थी। अगले दिन जनरल ह्यूज रोज़ ने किले में फिर से आक्रमण कर दिया जहाँ झलकारी बाई ने एक लंबी लडाई लड़ती रहीं आखिरकार- अंग्रेज़ो ने एक तोप के गोले से झलकारी बाई के शरीर से उनकी आत्मा को अलग कर दिया और वो वीर गति को प्राप्त हो गई और उन्होंने अंतिम उद्घोष लगाया ‘जय भवानी’।
वास्तव में ये सुनकर रूह कांप उठती है। झलकारी बाई की प्रेरणा का उसका असर हम आज देख सकते हैं. जगह-जगह लगीं उनकी मूर्तियाँ, उनके नाम पर जारी डाक टिकट इस बात बात की गवाही देता है की उन्होंने राष्ट्र प्रेम में क्या किया। वीरांगना झलकारी बाई हमारी स्मृति में हमेशा बनी रहेंगी। वीरांगना को शत शत नमन।