Pyarelal Ramprasad Sharma Birthday:एक ऐसा संगीत जो बरबस ही हमें अपनी ओर खीच लेता है , वो गीत के बोल के हर भाव को संगीत की धुनों में पिरो कर इतना मर्म स्पर्शी बना देता है कि उसकी झंकार हमारे दिल में उतर जाए।
पर आखिर कौन था इस संगीत के पीछे जिसने बोलो को अपने संगीत में पिरोकर अनमोल कर दिया और हमें दिया बेशकीमती नग़्मों का खज़ाना ,
इस ख़ज़ाने के कुछ नगीने नुमा गीत अगर हम याद करें तो सबसे पहले हमारे ज़हेन में आते हैं ,चाहूंगा मै तुझे सांझ सवेरे , बिंदिया चमकेगी ,यशोदा का नंद लाला,सावन का महीना ,एक दो तीन चार ,डफली वाले ,दिल विल प्यार व्यार और ऐसे कई बेशुमार गीत है जिन्हे अपने संगीत से लाजवाब बना दिया इस संगीत के पारखी ने जी हां लक्ष्मी कांत प्यारे लाल ने ,
जिनसे उनका हर चाहने वाला तो मिला नहीं था इसलिए ज़्यादातर लोग उन्हें एक ही इंसान समझते थे पर असलियत ये है कि ये दो लोगों की ,दो जिस्म मगर एक जान जैसी जोड़ी थी , जिसमें से किसी एक का ज़िक्र ,दूसरे के बिना अधूरा है, जिन्होंने 500 से अधिक फिल्मों में साथ काम किया।और संगीत की खनक को अपने अनूठे अंदाज़ में हम तक पहुंचाया आप दोनों संगीत के ज़रिए ही मिले और बहोत छोटे थे ,तब से एक दूसरे का संगीत में साथ देने लगे थे , लक्ष्मीकांत क़रीब 12 साल के थे और प्यारेलाल महज़ नौ बरस के यानी जब इनसे टेबल में रखने वाले वाद्य यंत्र बिना ऊंचे पैर वाली कुर्सी में बैठे, बजाते भी नहीं बनते थे तब से पूरे भरोसे के साथ ये संगीत निर्देशन के क्षेत्र में आ गए ।
लक्ष्मीकांत शांताराम कुदलकर का जनम 3 नवंबर 1937 को लक्ष्मी पूजन के दिन हुआ था और इसीलिए उनका नाम लक्ष्मी रखा गया, जो देवी लक्ष्मी के नाम पर था,कहते हैं उन्होंने अपने बचपन के दिन मुंबई की बस्तियों में अत्यंत गरीबी के बीच बिताये, जब वो बहोत छोटे थे तब उनके पिता की असमय मृत्यु हो गई थी और उनके पिता के दोस्त, जो एक संगीतकार थे उन्होंने लक्ष्मीकांत और उनके बड़े भाई को संगीत सीखने की सलाह दी तदनुसार, लक्ष्मीकांत ने सारंगी बजाना सीखा और उनके बड़े भाई ने तबला बजाना और जाने-माने सारंगी वादक हुसैन अली की सोहबत में दो साल रहे फिर बतौर बाल अभिनेता वो फिल्मों से जुड़े और
हिंदी फिल्म भक्त पुंडलिक (1949) और आंखें (1950) फिल्म की। उन्होंने कुछ गुजराती फिल्मों में भी काम किया।
प्यारेलाल जी की बात करें तो वो प्रसिद्ध बिगुल वादक पंडित रामप्रसाद शर्मा जिन्हें बाबाजी के नाम से जाना जाता था उनके के पुत्र थे, उन से ही प्यारे लाल जी ने संगीत की मूल बातें सीखी थी। प्यारेलाल जी का जन्म 3 सितंबर 1940 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उन्होंने 8 साल की उम्र से ही वायलिन सीखना शुरू कर दिया था और प्रतिदिन 8 से 12 घंटे का अभ्यास किया करते थे। उन्होंने एंथनी गोंजाल्विस नाम के एक गोअन संगीतकार से वायलिन बजाना सीखा हालंकि ये नाम सुनकर आपको अमर अकबर एंथोनी फिल्म का शीर्षक गीत याद आ गया होगा जिसे इस बेमिसाल जोड़ी ने ही संगीतबद्ध किया था , अब फिर थोड़ा पीछे चलते हैं १२ वर्ष की उम्र तक आते आते आपके परिवार की वित्तीय स्थिति काफी खराब हो गयी और उन्हें इस उम्र में ही कई स्टूडियो में वायलिन बजाने का काम करना पड़ा।, जिसके कारण उन्हें बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी ,दूसरी तरफ
बचपन के दिनों से ही लक्ष्मीकांत का रुझान भी संगीत की ओर था और वो संगीतकार बनना चाहते थे तो संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ‘उस्ताद हुसैन अली’ से हासिल करने के बाद वो भी , घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए संगीत समारोह में हिस्सा लेने लगे और आगे चलकर वाद्य यंत्र मेंडोलियन बजाने की शिक्षा बालमुकुंद इंदौरकर से ली और इतने संघर्ष के बाद कुंदन की तरह तप कर जब आप दोनों ने मिलकर काम किया ,बतौर संगीतकार, तो लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ,फ़िल्म जगत में अपने संगीत का लोहा मनवाकर ही माने। अपने कैरियर की शुरुआत में कल्याण जी आनन्द जी के सहायक के रूप में उन्होंने ‘मदारी’, ‘सट्टा बाज़ार’, ‘छलिया’ और ‘दिल तेरा हम भी तेरे’ जैसी कई फ़िल्मों में काम किया,संगीत के प्रति ये आप दोनों का जुनून ही था जिसने मशहूर निर्माता-निर्देशक बाबू भाई मिस्त्री की क्लासिकल फ़िल्म ‘पारसमणि’ से आपकी तक़दीर बदल कर रख दी, क़िस्मत का सितारा यूं चमका कि फिर आप दोनो ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा उन्हें अपनी मंज़िल के जानिब एक रास्ता मिल चुका था
वो बताते थे कि
जब लक्ष्मीकांत १० साल के थे तब उन्होंने लता मंगेशकर के कंसर्ट में सारंगी बजाने का काम किया था और लता जी उनसे इतना प्रभावित हुई थीं कि संगीत कार्यक्रम के बाद उन्होंने लक्ष्मीकांत जी से बात भी की थी, ये उनके मन का एक बड़ा यादगार लम्हा रहा ,एक और ख़ास बात है कि अभिनेता राजेश खन्ना की 26 फिल्मों में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत है ।
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ पश्चिमी संगीत की धुनों को लेकर भी संगीत रचा ; तो अपनी लोक धुनों और अर्ध-शास्त्रीय संगीत को इस्तेमाल करने के लिए भी लोकप्रिय हुए । शागिर्द के लिए , उन्होंने रॉक-एन-रोल शैली की धुनों की रचना की तो कर्ज़ में उनका संगीत डिस्को रिदम के क़रीब लगता है । इस फिल्म के लिए उन्होंने ग़ज़ल के पश्चिमी संस्करण में “दर्द-ए-दिल दर्द-ए-जिगर” की तर्ज़ बनाई
फिल्म फेयर पुरस्कार में आपने 7 बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का खिताब जीता और 25 बार नामांकन प्राप्त किया पर
25 मई 1998 को 60 बरस की उम्र में लक्ष्मीकांत जी का ये सफर मुकम्मल हो गया और वो
हम सबके साथ प्यारेलाल जी को भी छोड़ कर चले गए , इसके बाद भारत सरकार ने प्यारेलाल जी को पद्म भूषण से नवाज़ा और अब भी वो फिल्म संगीत में अपना योगदान देते रहते हैं पर बड़ी ख़ामोशी से।