न्याजिया बेग़म
Playback Singer Noorjahan: यूं ही नहीं उसे नूर जहां नाम मिला, सारे जहां का नूर अल्लाह ने उसे बतौर तोहफा दिया, वो आईं थी इस जहां को रोशन करने ज़र्रे ज़र्रे कतरे कतरे में अपनी आवाज़ से मिठास भरने। अदाकारी ऐसी कि फिल्मी दुनिया का गोशा रोशनी से भर गया और सुर ऐसे की मल्लिका ए तरन्नुम का खेताब मिला, गूंजी सरहदों के पार उसकी सदा .. आवाज़ दे कहां है दुनिया मेरी जवां है… जी हां अल्लाह वासी उर्फ़ नूर जहां ने क़रीब चार दशक तक अपनी आवाज़ और बेमिसाल अदाकारी के दम पर हिंदी सिनेमा पर राज किया।
कहते हैं 21 सितंबर 1926 को जब पंजाब के छोटे से शहर कसुर में वो पैदा हुईं तो उनके रोने की आवाज़ सुनकर उनकी फुफी ने कहा ‘इस बच्ची के रोने में भी संगीत की लय है ये आगे चलकर प्लेबैक सिंगर बनेगी’ और चूंकि उनके वालिद, वालिदा थिएटर में काम ही करते थे तो नूरजहां को घर में संगीतमय माहौल मिला जिससे उनका रुझान भी संगीत की ओर हो गया और उनकी आंखें गायिका बनने के सपने देखने लगी जिसे पूरा करने के लिए ,उनके अम्मी अब्बू ने पहले कज्जनबाई से गाना सिखाया और फिर शास्त्रीय संगीत की तालीम उस्ताद ग़ुलाम मोहम्मद तथा उस्ताद बडे़ गुलाम अली खां से दिलवाई और जब नूरजहां बहोत छोटी थी तभी उन्हें इंडियन पिक्चर के बैनर तले बनी एक मूक फिल्म ‘हिन्द के तारे’ में काम करने का मौका मिल गया और फिर एक के बाद एक क़रीब 11 मूक फिल्मों मे उन्होंने अभिनय किया इस बीच उनका परिवार पंजाब से कोलकाता चला आया लेकिन वर्ष 1931 तक नूरजहां ने बतौर बाल कलाकार अपनी पहचान बना ली थी।
वर्ष 1932 में प्रदर्शित फिल्म ‘शशि पुन्नु’ नूरजहां के सिने कैरियर की पहली टॉकी फिल्म थी। इस दौरान उन्होंने कोहिनूर यूनाईटेड आर्टिस्ट के बैनर तले बनी कुछ फिल्मों मे काम किया। कोलकाता में उनकी मुलाकात फिल्म निर्माता पंचोली से हुई। पंचोली को नूरजहां में फिल्म इंडस्ट्री का एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने नूरजहां को अपनी नई फिल्म ‘गुल ए बकावली’ के लिए चुन लिया। पर उनसे मुलाक़ात के पीछे भी एक क़िस्सा है कि वो रोज़ लाहौर के पांचोली स्टुडिओ के फाटक के पास जाकर खड़ी हो जाया करती थीं और स्टुडिओ के मालिक दिलसुख एम. पांचोली की गाड़ी के फाटक के पास आते ही गाना गाना शुरू कर देती थीं और कुछ ही दिनों में नूरज़हां की मधुर आवाज़ ने पांचोली साहब का ध्यान आकृष्ट कर लिया और उन्हें अपनी फिल्म गुले बकावली में भूमिका दे दी| इस पंजाबी फिल्म के संगीतकार थे ग़ुलाम हैदर साहब जिन्होंने नूरज़हां को फिल्मों में गाने के कुछ ख़ास गुर सिखाए|
इस फिल्म के लिए नूरजहां ने अपना पहला गाना ‘साला जवानियां माने और पिंजरे दे विच’ रिकार्ड कराया। लगभग तीन वर्ष तक कोलकाता में रहने के बाद नूरजहां वापस लाहौर चली गई। वहां उनकी मुलाकात मशहूर संगीतकार जीए चिश्ती से हुई, जो स्टेज प्रोग्राम में संगीत दिया करते थे। उन्होंने नूरजहां से स्टेज पर गाने की पेशकश की जिसके ऐवज में उन्होंने नूरजहां को एक गाने के लिए साढे़ सात आने दिए। साढे़ सात आने उन दिनों अच्छी खासी रकम मानी जाती थी और संगीतमय फिल्म ‘गुल ए बकावली’ की सफलता के बाद ही नूरजहां फिल्म इंडस्ट्री में सुर्खियों मे आ गई। इसके बाद वर्ष 1942 में पंचोली की ही निर्मित फिल्म ‘खानदान’ की सफलता के बाद वह बतौर अभिनेत्री भी फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गई। फिल्म ‘खानदान’ में उन पर फिल्माया गाना ‘कौन सी बदली में मेरा चांद है आ जा’ काफी लोकप्रिय हुआ। नूरज़हां की ये पहली हिंदी फिल्म थी और इसमें प्राण ने नायक की भूमिका निभाई थी|
इसके बाद वो मुंबई आ गईं । फिल्म खानदान के बाद नूरजहां ने शौकत हुसैन से निकाह कर लिया और फिर उनकी निर्देशित नौकर और जुगनू जैसी हिट फिल्मों मे अभिनय किया। नूरजहां अपनी आवाज़ में अक्सर नए प्रयोग किया करती थी और उनकी इस खूबी की वजह से लोग उन्हें ठुमरी गायन की महारानी कहने लगे थे और इस दौरान उनकी दुहाई 1943 की फिल्म, दोस्त 1944 की फिल्म, बडी मां और विलेज गर्ल, जैसी कामयाब फिल्में प्रदर्शित हुई। इन फिल्मों में उनकी आवाज़ का जादू श्रोताओ के सर चढ़कर बोला, इस तरह नूरजहां फिल्म इंडस्ट्री में मल्लिका-ए-तरन्नुम के नाम से मशहूर ओ मारूफ हो गई ।
वर्ष 1945 में नूरजहां की एक और फिल्म ‘जीनत’ भी प्रदर्शित हुई और इस फिल्म की कव्वाली ‘आहें ना भरी शिकवें ना किए, कुछ भी ना ज़ुबां से काम लिया’ आज भी एक खास मकाम रखती है।
फिर उन्होंने निर्माता निर्देशक महबूब खान की 1946 मे प्रदर्शित फिल्म अनमोल घड़ी में काम किया जिसमें महान संगीतकार नौशाद के निर्देशन में उनके गाए गीत आवाज़ दे कहां है, आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे, जवां है मोहब्बत ,आज भी संगीत प्रेमियों को आकर्षित करते हैं। 1947 में बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान चली गईं पर फिल्मी दुनिया से जुड़ी रहीं और पाकिस्तान फिल्म इंडस्ट्री में भी खुद को स्थापित किया जहाँ उनकी आवाज़ वर्षों तक गूंजती रही और उन्हें मलिका-ए-तरन्नुम का खिताब मिला| इस के बाद नूरजहां ने फिल्म ‘चैनवे’ का निर्माण और निर्देशन किया। इस फिल्म ने बॉक्स आफिस पर खासी कमाई की ,इसके बाद 1952 में प्रदर्शित फिल्म ‘दुपट्टा’ ने फिल्म ‘चैनवे’ के बाक्स आफिस रिकार्ड को भी तोड़ दिया। इस फिल्म मे नूरजहां की आवाज़ में सजे गीत श्रोताओं के बीच इस कदर लोकप्रिय हुए कि न सिर्फ पाकिस्तान में बल्कि पूरे भारत में भी धूम मचा दी। ऑल इंडिया रेडियो से लेकर रेडियो सिलोन पर नूरजहां की आवाज़ का जादू श्रोताओं पर छाया रहा।
1953 से 61 तक उन्होंने गुलनार, फतेखान, लख्ते जिगर, इंतेज़ार, अनारकली, परदेसियां, कोयल और मिर्ज़ा ग़ालिब जैसी बेमिसाल फिल्मों से हमें लुत्फ अंदोज़ किया । कुछ बरस बाद उम्र के तकाज़े से साल 1963 में उन्होंने अभिनय की दुनिया से विदाई ले ली और उनका आखरी गाना 1996 में प्रदर्शित एक पंजाबी फिल्म ‘सखी बादशाह’ में ‘कि दम दा भरोसा’ था पर तब तक वो क़रीब दस हजार गाने गा चुकी थीं । हिन्दी फिल्मों के अलावा नूरजहां ने पंजाबी, उर्दू और सिंधी फिल्मों में भी अपनी आवाज़ से श्रोताओं को मदहोश किया। यहां हम कुछ ख़ास बातें उनके बारे में हम आपको बताते चलें कि , नूरजहां पहली पाकिस्तानी महिला फिल्म निर्माता, गायिका, अभिनेत्री और म्यूजिक कंपोजर रहीं। 1945 में उन्होंने फिल्म बड़ी मां में लता मंगेशकर व आशा भोंसले के साथ एक्टिंग की।
1945 में नूरजहां की आवाज़ में दक्षिण एशिया में पहली बार किसी महिला की आवाज़ में कव्वाली रिकॉर्ड की गई। ‘आहें न भरे, शिकवे न किए’ यह कव्वाली उन्होंने जो़हराबाई अंबालेवाली और अमीरबाई कर्नाटकी के साथ गाई। स्वर कोकिला लता मंगेशकर,नूरजहां को अपना आइडल मानती थीं, फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार ने जब नूरजहां से भारत में ही रहने की पेशकश की तो नूरजहां ने कहा ‘मैं जहां पैदा हुई हूं वहीं जाउंगी।’ साल 1982 में इंडिया टॉकी के गोल्डेन जुबली समारोह में उन्हें भारत आने को न्योता मिला। तब श्रोताओं की मांग पर नूरजहां ने ‘आवाज़ दे कहां है दुनिया मेरी जवां है’ गीत पेश किया और उसके दर्द को हर दिल ने महसूस किया। 1992 में उन्होंने संगीत की दुनिया को भी अलविदा कह दिया पर उन्हें अपनी मंज़िल ए मकसूद मिल गई थी और 23 दिसम्बर 2000 को 74 साल की उम्र में वो इस फानी दुनिया को भी अलविदा कह गईं।