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पितृपक्ष 2024: कौव्वे इसलिए हमारे पुरखे..! | जयराम शुक्ल

Pitra Paksh Mei Kauvon Ki Pooj Kyo Hoti Hai

Pitra Paksh Mei Kauvon Ki Pooj Kyo Hoti Hai

Pitra Paksh Mei Kauvon Ki Pooja Kyo Hoti Hai | Author: Jayram Shukla: पितृपक्ष जाने को है कौव्वे कहीं हेरे नहीं मिल रहे। इन पंद्रह दिनों में हमारे पितर कौव्वे बनके आते थे। अपने हिस्से का भोग लगाते थे। कौव्वे पितर बनके तर गए या फिर पितर ही कौव्वा बनकर आने से मना कर दिया।

मैंने मित्र से पूछा–आखिर क्या वजह हो सकती है। मित्र बोले- पहले झूठ बोलने वाले काले कौव्वे के काटने से डरा करते थे, क्योंकि ये मानते थे कि कौव्वे हमारे पुरखों के प्रतिनिधि हैं, ऊपर जाके बता देंगे कि तुम्हारे नाती पोते कितने झुट्ठे हैंं। बदले जमाने में आदमी ही काँव काँव करते एक दूसरे को काटने खाने दौड़ रहा है। चौतरफा काँव काँव का इतना शोर मचा है कि कौव्वे आएं भी तो उसी शोर में गुम जाएं।

मैंने कहा- आखिर कौव्वों का भी तो अपना चरित्र है तभी न भगवान् ने पितरों का प्रतिनिधि बनाया है। और फिर ये न्याय के देवता शनि महाराज के वाहक। लेकिन आप ठीक कहते हैं इस अन्यायी समाज में भला उनकी पैठार कहाँ?

कौव्वे और कुत्ते मनुष्य के अत्यंत समीप रहने वाले पक्षी पशु हैं। पर कौव्वा हठी होता है,जमीर का पक्का। कुत्ता को रोटी बोटी दिखाओ, तलवे चाटने लगता है,दुम हिलाने लगता है। कौव्वा ..जहाँ हक न मिले वहां लूट सही ..पर यकीन करने वाला। भगवान् के हाथ से भी अपना हिस्सा छीनने की जिसके पास हिम्मत है। …रसखान बता गए ..काग के भाग बडो़ सजनी हरि हाँथ से लै गयो माखन रोटी।

दब्बुओं के हाथ की भाग्य रेखा कभी नहीं उभरती। कर्मठ अपनी भाग्यरेखा खुद खींचते हैं। युगों से कौव्वे आदमी के बीच रहते आए पर स्वाभिमानी इतने कि कभी इन्हें कोई पाल नहीं सका। इनकी आजाद ख्याली और बिंदास जिंदगी अपने आप में एक संदेश है। एक सुभाषित श्लोक में कौव्वे को आदमी से श्रेष्ठ कहा गया है–

काक आह्वायते काकान् याचको न तु याचकः

काक याचक येन मध्ये वरं काको न याचकः ।।

आदमी पैदाइशी भिखारी है। जन्म के बाद एक बार जो मुट्ठी खुली फिर तो श्मशान तक हाथ पसारे जाता है। कितना भी अमीर हो जाऐ मिलबाँटकर नहीं खाता। हड़पो जितना हड़प सको।

Mankameshwar Temple : तिरुपति विवाद के बाद अब लखनऊ के मनकामेश्वर मंदिर में भी बाहर के प्रसाद पर बैन, घर पर बनी चीजों को ही मंजूरी।

ये हडपनीति हडप्पाकाल से चली आ रही है। कौव्वे का समाजवाद देखिए,एक रूखी रोटी का टुकड़ा भी मिल जाए काँव काँव करके पूरी बिरादरी को बुला लेता है। क्या अमीर क्या गरीब, क्या बलवान क्या निर्बल।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी पशु पक्षी हमारे पुरखे हैं। इसलिए इन्हें वेदपुराणों से लेकर हर तरह के साहित्य व संस्कृति में श्रेष्ठता मिली है। पशु पक्षियों को निकाल दीजिए हमारी समूची लोकपरंपरा प्राणहीन हो जाएगी।

गरूण के नाम से एक पुराण ही है। इस गरुण पुराण में ही हमारी पितर संस्कृति का बखान है। लेकिन गरुण को ज्ञान मिला कौव्वे से। ये रामचरित के कागभुशुण्डि कौन हैं..। ये गरुण के गुरूबाबा हैं। आज हम जिस रामकथा का पारायण करते हैं। उज्ज्यिनी में इन्होंने ही गरुण को सुनाया था।

कागभुशुण्डि का चरित्र उन सब के लिए सबक है जो चौबीसों घंंटे अपने ग्यान के गुमान में बौराए रहते हैं। कथा है कि उज्ज्यिनी में एक ब्राह्मण संत रहते थे। उन्होंने अपने शिष्य को पढ़ालिखाकर प्रकांड विद्वान बना दिया। शिष्य को घमंड हो गया। वह गुरू की अवग्या,अपमान करते हुए ग्यान के घमण्ड में मस्त रहने लगा। शंकरजी को गुरू के इस तरह के अपमान पर क्रोध आ गया। उन्होंने शिष्य को श्राप दे दिया। शिष्य को उसकी करनी का फल मिला..!

लेकिन गुरू से अपने शिष्य की यह गति देखी नहीं गई। वे शंकर जी के चरणों में लोट गए …और शिवाजी की जो स्तुति की जिसके भाव को गोस्वामी जी ने प्रस्तुत किया वह अबतक की सर्वश्रेष्ठ स्तुति मानी जाती है–

नमामि शमीशान् निर्वाणरूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदंस्वरूपं, निजं निर्गुणं निर्विकंल्पं नीरीहं…।

गुरु का शिष्य के लिए इतना उत्कट प्रेम। आज के गुरू हों तो शिष्य के समूचे करियर का सत्यानाश कर दें। हां तो जब शंकर जी प्रसन्न हुए तो गुरू के निवेदन पर सजा कम करते हुए निकृष्ट पक्षी कौव्वा बना दिया। यही कागभुशुण्डि हुए।

एक निकृष्ट तिर्यक योनि पक्षी को भी कागभुशुण्डि ने पूज्य और सम्मानीय बना दिया। कागभुशुण्डि का चरित्र इस बात का प्रमाण है कि नीचकुल में जन्मने वाला भी प्रतिष्ठित और सम्मानित हो सकता है। कौव्वे हमारी लोकसंस्कृति में ऐसे घुलेमिले हैं कि कथा, कहानी, गीत, संगीत जीवन के दुख और सुख में शोक और उत्सव में। पर आज हमने उनसे रिश्ता तोड़ सा लिया है। आज वे हमारे घर की मुडेरों पर बैठकर शगुन संदेश नहीं देते। कौव्वे के जरिये शिक्षाप्रद कहानियां नहीं सुनने को मिलतीं।

सदियों पहले पं.विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र की कहानियां रचीं थी। जिसके हर प्रमुख पात्र पशु पक्षी ही थे। कौव्वे की चतुराई को उन्हीं ने ताड़ा था। विष्णु शर्मा ऐसे गुरू थे जिन्होंने अपने शिष्यों को नीतिशास्त्र की शिक्षा पशुपक्षियों के माध्यम से ही दी। इसलिए हमारे लोकाचार में प्रत्येक पशुपक्षी के लिए सम्मानित जगह है। आज हम उनके निर्वसन में जुटे हैं। आंगन से भी निकाल दिया और मन से भी। वे अब कर्मकाण्ड के प्रतीक मात्र रह गए। रिश्ता टूट सा गया। वे मनुष्य की जुबान नहीं बोल सकते, पर कभी महसूस करिए कि उन्हें यदि हमारी जुबान मिल जाए तो वे क्या कहेंगे..? याद रखिये पशु पक्षियों की अवहेलना पुरखों की अवहेलना है, और इसका फल मरने के बाद सरग या नरक में नहीं इसी लोक में मिलेगा।

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